‘जी रया जागि रया,
यो दिन यो मास भेंटने रया,
दुब जस पनपी जाया’
- अरुण कुकसाल
हिमालयी क्षेत्र एवं समाज के जानकार लेखक चन्द्रशेखर तिवारी की नवीन पुस्तक ‘लोक में पर्व और परम्परा’ कुमाऊं अंचल के सन्दर्भ में एक सामाजिक, सांस्कृतिक
और पर्यावरणीय विवेचन प्रस्तुत करती है. कुमाऊंनी जनजीवन के जीवन-मूल्यों एवं जीवंतता को यह पुस्तक खूबसूरती से बताती है. कुमाऊं अंचल के पर्व, परम्परा और संवाहक खंडों के फैलाव में 8 अध्यायों की यह पुस्तक है. पर्व खंड में- हरेला, सातूं-आठूं और गंगा दशहरा, परम्परा खंड में- कुमांऊ के विवाह संस्कार, नौल-धार और कुमाऊं के वस्त्राभूषण तथा संवाहक खंड में- लोकगायिका नईमा खान उप्रेती और कबूतरी देवी के बारे में इस किताब में बेहतरीन जानकारी है. किताब में समाज वैज्ञानिक के बतौर चन्द्रशेखर तिवारी ने अपनी लेखकीय दृष्टि को पूरी तरह से शोधपरख रखा है. किताब का प्रकाशन दून पुस्तकालय एवं शोध केन्द्र, देहरादून ने किया है. मुख्यपृष्ठ के चित्रकार बृज मोहन जोशी हैं.खूबसूरती
लोक-व्यवहार में कुमाऊं को
‘रंगीलो’ कहा जाता है. अर्थात, उसके सामाजिक जीवन रूपों में अनगिनत रंगों और विधाओं के उत्सव पग-पग में हर समय धूम मचाते दिखाई देते हैं. लोक जीवन की इसी धूम ने उसे अनेकों पर्वों और परम्पराओं के रूप में सजाया-संवारा है. चन्द्रशेखर तिवारी ने कुमाऊंनी जनजीवन के इन्हीं अहम् हिस्सों को इस किताब की विषय-वस्तु बनाया है.खूबसूरती
प्रकृति से सीधा जुडा
लोक पर्व हरेला से यह किताब शुरू होती है. हरेला की अवधारणा के वैज्ञानिक और व्यवहारिक पक्ष पहाड़ की बारहनाजा खेती और पशुपालन की महत्वा को बताते हैं. यह परिवारजनों के लिए आशीर्वाद का त्योहार है-खूबसूरती
‘जी रया जागि रया,
यो दिन यो मास भेंटने रया,
दुब जस पनपी जाया’
खूबसूरती
(जीते रहो, जागरूक बने रहो, यह दिन-बार आता-जाता रहे, दूब के जैसे हर स्थिति में पनपते रहो) हरेला के दिन बड़े-बुजुर्गों के इस आत्मीय
आशीर्वाद में स्थानीय प्रकृति और मानव के सह-अस्तित्व बोध है. हरेले के तिनड़े की हरितिमा धन-धान्य से परिपूर्ण समृद्ध जीवन की मनोकामना है. तभी तो, श्रावण मास के प्रथम दिन याने कर्क संक्रान्ति को प्राकृतिक पर्व हरेला अपनी स्वाभाविक जीवंतता के साथ नयी खुशियों के श्रीगणेश का संदेश लिए सबके द्वार पर मुस्कराता आता है. लेखक ने हरेला के माध्यम से पहाड़ के सांस्कृतिक और आर्थिक सह-संबधों को बताया है. हम-सबके प्रिय ‘नैनीताल समाचार’ के प्रतिवर्ष के हरेला अंक और उसके तिनड़े का जिक्र भी इसमें बखूबी से किया है.खूबसूरती
साझी विरासत का लोक पर्व ‘सातूं-आठूं’ पूर्वी कुमाऊं और पश्चिमी नेपाल का मुख्य त्यौहार है. हिमालय में शिव और गंगा तट पर गौरा की
आपसी गौरव गाथा के उत्सव को ‘सातूं-आठूं’ और गमरा-मैसर कहा जाता है. यह उत्सव भारत-नेपाल की साझी सांस्कृतिक विरासत का प्रतीक है. भादों मास की पंचमी से यह 12 दिनों का उत्सव प्रारम्भ होता है. हर दिन-रात ऴोऴि-मैसर (गौरा-महेश) के गीतों की धूम रहती है-खूबसूरती
नदी का किनार
नदी पार मैसर गुसैं बाकरा चराऴा.
खूबसूरती
नदी के एक तरफ़
गौरा गायें चरा रही है, तो दूसरी तरफ शिव बकरियां चरा रहे हैं. देवी-देवताओं को अपने परिवार का सामान्य मनुष्य मानते हुए उनके प्रति लाड़-दुलार और गुस्सा-मनुहार पहाड़ी समाज के उन्मुक्त अंत:भाव हैं. जो, उसकी सामाजिक समरसता और सरलता को अभिव्यक्त करते हैं.खूबसूरती
नदियों के
संरक्षण का पर्व गंगा दशहरा है. ज्येष्ठ माह की शुक्ल पक्ष की दशमी को गंगा के पृथ्वी पर अवतरण की खुशी का यह त्यौहार है. गंगा दशहरा पर बात करते हुए चन्द्रशेखर तिवारी ने उन सभी पक्षों का विश्लेषण किया है जो हमें नदियों को जीवत और जीवंत रखने के प्रति आगाह करते हैं.खूबसूरती
पहाड़ी जनजीवन में प्राकृतिक जल श्रोत्रों में नाग और विष्णु की गरिमामयी उपस्थिति ‘जल ही जीवन है’ की धारणा को आत्मसात
करती है. इसी खंड में चन्द्रशेखर तिवारी ने कुमाऊं के प्रचलित और प्राचीन वस्त्राभूषण के बारे जो जानकारी दी है वह बेहद रोचक है.
खूबसूरती
किताब के दूसरे खंड
में कुमाऊं के विवाह संस्कार, समृद्व जल परम्परा के प्रतीक नौल व धार् तथा कुमाऊं के वस्त्राभूषणों पर विस्तृत चर्चा की है-हरिया तेरो गात, पिंड.ऴी तेरो ठूंग,
रतनारी तेरी आंखी, नज़र तेरी बांकी,
सुवा रे सुवा, बनखण्डी सुवा,
जा सुवा नगरिन न्यूत दिया.
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कुमाऊंनी विवाह का यह
निमंत्रण परिवारजनों के उल्लास की अनुपम अभिव्यक्ति है. विवाह संस्कार में कुटम्बजनों के साथ संपूर्ण प्रकृति जगत की सक्रिय भागेदारी आलौकिक सौन्दर्य बोध को प्रदर्शित करता है. पहाड़ी जनजीवन में प्राकृतिक जल श्रोत्रों में नाग और विष्णु की गरिमामयी उपस्थिति ‘जल ही जीवन है’ की धारणा को आत्मसात करती है. इसी खंड में चन्द्रशेखर तिवारी ने कुमाऊं के प्रचलित और प्राचीन वस्त्राभूषण के बारे जो जानकारी दी है वह बेहद रोचक है.खूबसूरती
किताब का अन्तिम खंड कुमाऊं की शीर्ष लोकगायिकायें नईमा खान उप्रेती और कबूतरी देवी के व्यक्तित्व और कृतित्व को समर्पित है. नईमा खान
और मोहन उप्रेती कुमाऊं के सर्वाधिक लोकप्रिय कलाकार रहे हैं. कुमाऊंनी लोकगीत-लोकनृत्यों के माध्यम से वे देश-दुनिया में मशहूर हुए. उनके गाये ‘पार रे भीड़ा को छै घस्यारी’, ‘बेडु पाको बारामासा’, ‘ओ ऴाऴी हौसिया’, ‘नी बास घुघती रुनझुन’ और ‘घास काटणा जानू हूं दीदी’ जैसे कालजयी गीत आज भी लोगों के मन-मस्तिष्क में तरोताजा हैं. चन्द्रशेखर तिवारी ने किताब के विराम में कुमाऊंनी महान लोकगायिका कबूतरी देवी के रचना संसार को प्रस्तुत किया है-खूबसूरती
आज पनि
भोळ पनि जांऊ जांऊ
पोरखिन कै न्हैं जोंळा.
स्टेशन सम्म
पछिळ विरान होये जौंळा.
जीवन में मिले अभावों के
बीच अपनी मौलिक प्रतिभा को चहुंओर बिखेरने वाली कबूतरी देवी ने लोक गायकी में प्रसिद्वि हासिल की थी. उनके गायन और गीतों में पिथौरागढ़ की सौर्याळी और काली पार डोटी अंचल की साझी झलक श्रोत्राओं को मंत्र-मुग्ध कर देती थी. कुमाऊंनी मागंळ गीत, ऋतुरैण, भगनौळ, न्यौळी, जागर, घनेळी, झोड़ा और चांचरी गाते हुए उनका मधुर स्वर आज भी पहाड़ की कंधराओं से लेकर कर्मशील कुमाऊंनी जनजीवन में गूंजता रहता है.खूबसूरती
‘लोक में पर्व और
परम्परा’ पुस्तक के जरिए चन्द्रशेखर तिवारी ने हमारी कुमाऊंनी पहचान को खूबसूरती से लिपिबद्व किया है. लेखक को बधाई और शुभकामनाएं. बेहतरीन पुस्तकों के निरंतर प्रकाशन के लिए दून पुस्तकालय एवं शोध केन्द्र परिवार को आभार और साधुवाद.
खूबसूरती
आज की पीढ़ी अपने
वैभवशाली सांस्कृतिक विरासत को अपनाने में झिझक महसूस करने लगी है. इसका कारण यह भी है कि सयानी पीढ़ी ने स्वयं ही अपनी समृद्व पैतृक पर्व और परम्पराओं को उन तक पहुंचाने में हिचक की है. खुले मन से हमने पैतृक सांस्कृतिक लोकज्ञान और हुनर को अपनाया ही नहीं है. अतः जरूरी है कि हम लोक विरासत को अपनी पहचान बनायें. ‘लोक में पर्व और परम्परा’ पुस्तक के जरिए चन्द्रशेखर तिवारी ने हमारी कुमाऊंनी पहचान को खूबसूरती से लिपिबद्व किया है. लेखक को बधाई और शुभकामनाएं. बेहतरीन पुस्तकों के निरंतर प्रकाशन के लिए दून पुस्तकालय एवं शोध केन्द्र परिवार को आभार और साधुवाद.(लेखक एवं प्रशिक्षक)