पर्वतीय राज्य का सपना क्या 22 वर्षों में पूरा हुआ?

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प्रकाश उप्रेती

9 नवंबर की तारीख़ पर्वतीय राज्य का सपना देखने वालों के लिए ऐतिहासिक महत्व की है.आज पूरे उत्तराखंड की सुबह “चलुक्” (भूकंप) से डोलती धरती के साथ हुई. ऐसा लगा कि गोया धरती भी 22 वर्षों की चिर निंद्रा से उत्तराखंड वासियों को जगाने की कोशिश कर रही है. क्या हम अब भी जागे?

उत्तर प्रदेश पुनर्गठन विधेयक- 2000 को 1 अगस्त की देर शाम जब लोक सभा ने ध्वनिमत से पारित किया तो देश के नक्शे पर 27वें राज्य के रूप में उत्तराखंड ( पर्वतीय राज्य की माँग के साथ) बनने का रास्ता साफ हुआ. 10 अगस्त को इस बिल को मंजूरी देने के पश्चात राष्ट्रपति ने 28 अगस्त , 2000 को राज्य के गठन की अधिसूचना जारी कर दी थी. अटल बिहारी बाजपेयी की सरकार ने 1 नवंबर, 2000 को उत्तराखंड की पहली सरकार गठन करने का फैसला किया, लेकिन पता चला कि उक्त दिन “ग्रह नक्षत्रों” के हिसाब से “शुभ” नहीं है. “शुभ” की आशा में 9 नवंबर, 2000 को नए राज्य ने आकार ग्रहण किया.

वैसे तो पर्वतीय राज्य की संकल्पना के बीज को हम- गढ़देश सेवा संघ,  हिमालय सेवा संघ, पर्वतीय राज्य परिषद, पर्वतीय विकास परिषद,1968 में बोट क्लब की रैली और उसके बाद उत्तराखंड क्रांति दल का अस्तित्व में आना तथा राज्य आंदोलन के इस संघर्ष को तेज करना आदि के रूप में देख सकते हैं. कायदे से तो आज का दिन वर्तमान की चमक और भविष्य की भव्यता के स्मरण का दिन होना चाहिए था लेकिन हम आज भी इतिहास के पन्नों से धूल ही झाड़ रहे हैं. आखिर ऐसा क्यों?

उत्तराखंड के साथ झारखण्ड  राज्य भी अस्तित्व में आया था | झारखंड राज्य अपनी आदिवासी अस्मिता के साथ आगे बढ़ा और आज भी कायम है-

* उत्तराखंड राज्य गठन के पीछे जो पर्वतीय/ पहाड़ी राज्य की अस्मिता का सवाल था क्या हम उसको लेकर कभी चले भी?

* राजनैतिक पार्टियों के लिए क्या कभी पहाड़ की अस्मिता का सवाल मुख्य सवाल रहा?

* गैरसैंण की बजाय देहरादून को राजधानी बनाकर हमारे कर्ताधर्ताओं ने पर्वतीय राज्य की संकल्पना और पहाड़ी अस्मिता के सवाल की भ्रूण हत्या नहीं की?

* उत्तराखंड इन 22 वर्षों में राजनैतिक अखाड़े की उर्वर भूमि के अलावा और क्या रहा?

पर्वतीय राज्य की अवधारणा में हिमालयी संस्कृति, पहचान, नदी, खेत, जंगल, बुग्याल, सभी कुछ थे. क्या इन 22 वर्षों में वो बचे हैं-

* हिमालय जो इस राज्य की ताकत था, आज वह सबसे ज्यादा कमजोर हो गया है.

* बुग्याल निजी भूमि में बदल गए हैं .

* पहचान- ‘पहाड़ी,पहाड़ी मत कहो मैं देहरादून वाला हूँ’.

* जंगलों के लिए चिपको से लेकर आज तक संघर्ष जारी है.

* भूमि का अंधाधुंध दोहन जारी है. सन् 1960-64 में भूमि का बंदोबस्त हुआ था. उसके बाद 2004 में होना था, जो आज तक नहीं हुआ.

* 8 दिसंबर , 2018 को जो संसोधन किया गया, उसके बाद तो अब- पहाड़ों  में जमीनों की लूट का रास्ता खुल गया. इसके बाद पहाड़ो  में  कृषि भूमि को कोई भी कितनी भी मात्रा में खरीद सकता है. पहले इस अधिनियम की धारा-154 के अनुसार कोई भी कृषक 12. 5 एकड़ यानी 260 नाली जमीन अपने पास रख सकता था.  इससे अधिक जमीन पर सीलिंग थी. नए संशोधन में इस अधिनियम की धारा 154 (4) (3) (क) में बदलाव कर दिया गया है. नए संशोधन में धारा- 154 में उपधारा (2) जोड़ दी गई है. इससे कृषक होने की बाध्यता समाप्त हो गई है. इसके साथ ही 12.5 एकड़ की बाध्यता को भी समाप्त कर दिया गया है.

* तरुण जोशी अपने लेख में एक आंकड़ा देते हैं- “राज्य में बाहरी व्यक्तियों के द्वारा जो भूमि की खरीद-फरोख्त की गई है उसके संबंध में एक अनुमान है कि अभी तक लगभग 100000 हैक्टेयर जमीन स्थानीय लोगों के हाथ से निकलकर बाहरी व्यक्तियों के हाथ में चली गई है. साथ ही राज्य बनने के बाद कृषि भूमि का क्षेत्रफल लगभग 90000 हैक्टेयर घट गया है.”

ऐसे में पर्वतीय राज्य की अस्मिता और राज्य संकल्पना की अवधारणा कहाँ बची है ? इन 22 वर्षों में हमने राजनीतिक राज्य के रूप में बहुत कुछ पाया है लेकिन एक पर्वतीय एवं सांस्कृतिक राज्य के रूप में जो था उसको भी गंवा दिया. अभी भी पर्वतीय राज्य के नाम पर जो कुछ बचा- कुचा था उसे 2025-26 में होने वाला परिसीमन खत्म कर देगा-

* उत्तराखंड में भौगोलिक दृष्टि से लगभग 85℅ भू- भाग पहाड़ी और 15% भू-भाग मैदानी क्षेत्र में आता है. पलायन के कारण 85% भू-भाग में 42.5% और 15% में  57.5% जनसंख्या रहती है.

* उत्तराखंड में परिसीमन भौगोलिक नहीं जनसंख्या के आधार पर हुआ और 2026 में होने वाला भी ऐसे ही होगा.

* 2002 के परिसीमन में पहाड़ में- 40 और मैदान में- 30 सीटें,

2012 के परिसीमन में- पहाड़ में- 34 और मैदान में- 36 सीटें हो गईं. 2026 में होने वाले परिसीमन के बाद क्या स्थिति होगी उसका अंदाजा आप लोग लगा सकते हो!

* जब सारी पॉलिटिकल पॉवर मैदान में ही सिमट जाएगी तो पहाड़ के हिस्से क्या आएगा?

* किसी भी पॉलिटिकल पार्टी ने इसके लिए क्या कोई प्रयास किया?

* क्या इसके बाद पहाड़ी अस्मिता का सवाल कहीं बचेगा?

एक राज्य और नागरिक के बतौर हम इन 22 वर्षों में बढ़ने के बजाय घटे हैं. एक राजनैतिक स्टेट के तौर पर भी हमारा कद घटा ही है. इसके बावजूद हमारी नींद टूटने के बजाय और गहरी हो रही है. ऐसे में मुझे दुष्यंत याद आते हैं-

तुम्हारे पाँव के नीचे कोई ज़मीन नहीं/कमाल ये है कि फिर भी तुम्हें यक़ीन नहीं /मैं बे-पनाह अँधेरों को सुबह कैसे कहूँ/मैं इन नज़ारों का अंधा तमाशबीन नहीं..

(डॉ. प्रकाश उप्रेती दिल्ली विश्वविद्यालय में असिस्टेंट प्रोफेसर एवं हिमांतर पत्रिका के संपादक हैं और
पहाड़ के सवालों को लेकर हमेशा मुखर रहते हैं.)

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