जवाबदेही की अविस्मरणीय यात्रा – भाग-5
- सुनीता भट्ट पैन्यूली
मेरे माथा ठनकने को पतिदेव ने तनिक भी विश्राम न करने दिया कार में बैठे और आईएसबीटी से कार सहारनपुर रोड की ओर घुमा दी मेरे यह पूछने पर कि यह
आप क्या कर रहे हो? कहने लगे तुम्हें कालेज पहुंचाने जा रहा हूं और यह कहकर कार की गति और बढ़ा दी. मैंने कहा अरे आप ऐसे कैसे? नाईट सूट में ही मुझे सहारनपुर परीक्षा दिलवाने ले जायेंगे? उनके यह कहने पर कि यह समय तर्क-वितर्क का नहीं है बस तुम चुपचाप बैठी रहो क्योंकि सीमित समय में मुझे सहारनपुर पहुंचाने का तनाव पतिदेव के माथे पर साफ़ नज़र आ रहा था.परिस्तिथि ऐसी बन पड़ी थी कि
मेरे पास तर्क करने की कोई वजह भी नहीं थी. समय कम था अत: कालेज समय से पहुंचने के दबाव में बिना एक-दूसरे से बात किये हम सहारनपुर की ओर चले जा रहे थे रास्ता आज और दिन की अपेक्षा बहुत लंबा महसूस हो रहा था.सत्य
संजीवनी बूटी-सा होता है संबल या
अवलंबन मुसीबतों से निदान दिला पाये या नहीं किंतु उस क्षण यदि मिल जाये तो उम्मीद बरक़रार रहती है मुसीबतों से पार पा जाने की. मन में सोच रही थी मेरी अपनी आकांक्षाओं के फलीभूत होने की इस यात्रा में पहले कभी पतिदेव ने मुझे बस अड्डे तक भी छोड़ने को नहीं कहा और आज सहारनपुर तक छोड़ने को तैयार हो गये? यूं ही पूछ लिया सहारनपुर जाते हुए उनसे? कहने लगे मुझे तुम्हारी क़ाबिलियत पर पूरा भरोसा है और मैं चाहता हूं तुम अपनी इस शैक्षिक यात्रा से मज़बूत व्यक्तित्व बनके उभर कर निकलो मेरा मन भीतर ही भीतर रोया, मेरे मन में जो थोड़ा बहुत जो गुब्बार था पति के लिए कभी सहारनपुर जाने के लिए उनका बस अड्डे तक भी मुझे नहीं छोड़ने के लिए झट हवा में काफ़ूर हो गया.सत्य
जल्दी से कार से उतरकर
कालेज का गेट खोलकर मैं अंदर की ओर भागी बिना पति से दरयाफ़्त किये कि आप मेरा इंतज़ार करोगे या सीधे देहरादून निकल जाओगे? वाज़िब था कि वह मेरे लिए ढाई-तीन घंटे क्यों इंतज़ार करते? यही सब प्रश्न साथ में लिये मैंने परीक्षा हाल में प्रवेश किया वहां ड्यूटी पर बैठे शिक्षक से यह सुनकर कि आपका तो आज कोई पेपर नहीं है मेरे भय और आश्चर्य का ठिकाना न रहा ऐसे महसूस हुआ मुझे माना कि मैं अभी गिर पड़ूंगी.
सत्य
जैसे-तैसे हम कालेज के गेट पर पहुंच गये थे.
जल्दी से कार से उतरकर कालेज का गेट खोलकर मैं अंदर की ओर भागी बिना पति से दरयाफ़्त किये कि आप मेरा इंतज़ार करोगे या सीधे देहरादून निकल जाओगे? वाज़िब था कि वह मेरे लिए ढाई-तीन घंटे क्यों इंतज़ार करते? यही सब प्रश्न साथ में लिये मैंने परीक्षा हाल में प्रवेश किया वहां ड्यूटी पर बैठे शिक्षक से यह सुनकर कि आपका तो आज कोई पेपर नहीं है मेरे भय और आश्चर्य का ठिकाना न रहा ऐसे महसूस हुआ मुझे माना कि मैं अभी गिर पड़ूंगी. डेटशीट दोबारा चेक की उसमें आज ही मेरा पहला पेपर था यहां हाल में शिक्षक ने अनभिज्ञतावश हाथ खड़े कर दिए सहसा मुझे इलाहाबाद परीक्षा नियंत्रक से बात करने की सुध हो आयी जिनका नंबर सौभाग्यवश मेरे मोबाइल में सुरक्षित था.सत्य
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मुझ अनजान, अनुभवहीन के लिए जो कि
आतुर है नयी तरह की शिक्षा के क्षेत्र में कूदने को, इन छोटे-छोटे सुझाव जैसे कि कोर्स से संबंधित सभी शिक्षकों और युनिवर्सिटी के व्यवस्थापकों के फोन नंबर मोबाइल पर सुरक्षित करके रखना मेरे सरोकार के केंद्र में कहां हो सकता था?यह सुझाव छोटी बहन द्वारा निर्देशित किये गये थे मुझे जो कि आज बहुत मददगार साबित हो रहे थे मेरे लिए .सत्य
समय गुज़रता जा रहा था
मैंने तुरंत परीक्षा नियंत्रक संतोष यादव जी (काल्पनिक नाम) को फोन किया और उन्होंने फोन भी उठा लिया सारी समस्या उन्हें बताने पर उन्होंने यहां हेड आफ द डिपार्टमेंट से बात करवाने को कहा और उनके फोन रखते ही मैंने के.पी.मल्होत्रा सर को फोन किया वह आस-पास ही थे शायद,परीक्षा हाल में तुरंत हाज़िर हो गये, मैंने के.पी.मल्होत्रा सर की संतोष यादव सर से बात करायी दोनों में न जाने क्या बात हुई? और मुझे दूसरे कमरे में ले जाया गया जहां मेरी ही तरह परीक्षा देने आये कुछ बच्चे पेपर आने का इंतज़ार कर रहे थे थोड़ी देर बाद पेपर आ गया, तसल्ली यह हुई कि हमें अतिरिक्त समय दिया जा रहा था इस बेवजह की गड़बड़ी की भरपाई के लिए.सत्य
उफ़्फ ये पत्राचार द्वारा पढ़ाई करना भी न..! विघ्न पर विघ्न..क्षणिक यह महसूस हुआ मानो समस्त कालेज के प्रबंधन को देखने की ज़िम्मेदारी मेरे कांधे पर आ गयी थी.
पेपर अच्छा गया था मेरा,ईश्वर की कृपा से मुसीबत आकर चली गयी थी.खुशी-खुशी बाहर आकर रिक़्शे की तलाश में मैंने इधर-उधर नज़र दौड़ाई तो देखा कि सड़क के दूसरी ओर पतिदेव चाय की दुकान में खड़े होकर हाथ से इशारा कर रहे थे वहां आने को.मैंने रोड क्रास किया और हम दोनों ने ढाबे में सुकून भरी चाय पी और मैंने थोड़ी राहत महसूस की.सत्य
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पहले सेमेस्टर की परीक्षाएं तो
अबाध निपट ही गयी थीं असाईनमेंट के नंबर भी संतुष्ट कर गये थे मुझे. अब बारी थी तो दूसरे सेमेस्टर की जिसमें विषय भी थोड़े हटकर ही थे किंतु पढ़ना तो था ही,पहले की तरह वही फिर से दूसरे सेमेस्टर से पहले असाइनमेंट लिखना और फिर कालेज में उन्हें जमा करवाने की प्रक्रिया से गुज़रना. मैं तैयार थी कमर कसकर तमाम प्रक्रियाओं से होकर गुजरने के लिए.पहले सेमेस्टर में नंबर अच्छे आये थे इस सकारात्मक परिणाम से मुझे पीजीडी एचआरडी कोर्स को पूरा करने की और उसको उसकी नियति तक पहुंचाने की दोगुनी ताकत मिली.सत्य
असाइनमेंट पूरे कर लिए हैं मैंने सिर पर कालेज जाकर इन्हें जमा करने की सिरदर्दी फिर से हावी है मेरे ज़ेहन में. एक दिन बड़ी दीदी के यहां गयी उन्होंने मेरी परीक्षायें
और उसकी तैयारी के बारे में पूछा दीदी को असाइनमेंट पूरा करने और उन्हें जमा करने जाने की जानकारी दी और यूं ही बातों-बातों में दीदी मेरे साथ मेरे कहने पर तैयार हो गयीं सहारनपुर चलने के लिए.
सत्य
शरद ऋतु अपने बिखरे हुए
अवशेषों को अपने अंक में समेटने में जुटी है और मैं बंद कमरे में अपनी किताबें और पेपर शीट फैलाये उनमें घुसकर अपने ख़्वाबों की ताबीरी के लिए जी जान से जुटी हूं.असाइनमेंट पूरे कर लिए हैं मैंने सिर पर कालेज जाकर इन्हें जमा करने की सिरदर्दी फिर से हावी है मेरे ज़ेहन में. एक दिन बड़ी दीदी के यहां गयी उन्होंने मेरी परीक्षायें और उसकी तैयारी
के बारे में पूछा दीदी को असाइनमेंट पूरा करने और उन्हें जमा करने जाने की जानकारी दी और यूं ही बातों-बातों में दीदी मेरे साथ मेरे कहने पर तैयार हो गयीं सहारनपुर चलने के लिए.पढें— मन में अजीब से ख़्याल उपज रहे थे…
सत्य
इस बार कालेज जाने में कुछ अलग ही
भय महसूस हो रहा था क्योंकि दूसरा सेमेस्टर था तो इसके हेड या प्रोफेसर भी अलग थे. कोई प्रोफेसर अरोड़ा थे(काल्पनिक नाम) जिनके पास मुझे अब की बार दूसरे सेमेस्टर के असाइनमेंट जमा करने थे.कालेज जाने से एक-दिन पहले फोन पर उनसे मिलने का अपाइंटमेंट लिया,दूसरे दिन बारह बजे मिलने का टाईम दिया उन्होंने,और दीदी को इतला देकर मैं फिर से जुट गयी पहले की तरह जाने की तैयारी और घर के प्रबंधन में.सत्य
उन्होंने कहा..घर पर आ जाओ..
कालेज के पीछे ही मेरा घर है. प्रोफेसर अरोड़ा से बात करते हुए ही मेरे मन में एक प्रश्न कौंधा… घर पर आ जाओ..! लेकिन क्यों? कालेज में क्यों नहीं मैंने सहमति का उत्तर दे तो दिया लेकिन किंकर्त्तव्यविमूढ़ होकर मैंने दीदी को बताया दीदी को भी प्रोफेसर का घर पर बुलाना नागवार गुजरा कि घर पर क्यों?
सत्य
आठ बजे मैं और दीदी सहारनपुर
की बस में सवार थे आज हवाओं में उतनी चुभन नहीं थी जितनी की दिसंबर की ठंड में. कपड़े भी हमने गर्मी में सुकून देने वाले पहने हुए थे क्योंकि ये अप्रैल की सुबह की हल्की ठंड और हल्की गर्मी की मिली-जुली सुबह थी.आज दीदी साथ में थी एक स्तंभ सी मुझे अभयदान देने हेतु मुझे . गर्मी के मौसम की आहट थी बस की खुली खिड़कियों के कारण आज मुझे ट्रैवल सिकनेस भी नहीं हुई.दीदी के साथ बातों-बातों में कब कालेज के गेट के बाहर रिक्शा से पहुंच गये हमें पता ही न चला.सत्य
मैंने प्रोफेसर अरोड़ा को फोन किया,
उन्होंने कहा..घर पर आ जाओ..कालेज के पीछे ही मेरा घर है. प्रोफेसर अरोड़ा से बात करते हुए ही मेरे मन में एक प्रश्न कौंधा… घर पर आ जाओ..! लेकिन क्यों? कालेज में क्यों नहीं मैंने सहमति का उत्तर दे तो दिया लेकिन किंकर्त्तव्यविमूढ़ होकर मैंने दीदी को बताया दीदी को भी प्रोफेसर का घर पर बुलाना नागवार गुजरा कि घर पर क्यों?क्रमशः
(लेखिका साहित्यकार हैं एवं विभिन्न पत्र—पत्रिकाओं में अनेक रचनाएं प्रकाशित हो चुकी हैं.)