पुरानी टिहरी के स्थापना दिवस, 30 दिसम्बर पर किशोरावस्था से मन-मस्तिष्क में बसी टिहरी को नमन करते हुए अग्रणी साहित्यकार स्वर्गीय ‘बचन सिंह नेगी’ का मार्मिक उपन्यास-
- डॉ. अरुण कुकसाल
“…शेरू भाई! यदि इस टिहरी को डूबना है, तो ये लोग मकान क्यों बनाये जा रहे हैं?
शेरू हंसा ‘चैतू! यही तो
निन्यानवे का चक्कर है, जिन लोगों के पास पैसा है, वे एक का चार बनाने का रास्ता निकाल रहे हैं. डूबना तो इसे गरीबों के लिए है, बेसहारा लोगों के लिये है, उन लोगों के लिए है, जिन्हें जलती आग में हाथ सेंकना नहीं आता. जो सब-कुछ गंवा बैठने के भय से आंतकित हैं.’चैतू
…चैतू सोच में डूब जाता है,
(पृष्ठ, 9-10)
टिहरी बांध बनने के बाद
‘उसका, उसके परिवार और उनका क्या होगा?’ यह चिंता केवल चैतू की नहीं है, उसके जैसे हजारों स्थानीय लोगों की भी है.चैतू
‘डूबता शहर’
उपन्यास में जमनू, चैतू, कठणू, रूपा, रघु, पद्मा, सुमन, मगन, ननकू, शेरू, मंगत, बीणा, मंगणू आदि पात्र इन्हीं लोगों के प्रतीक हैं. बचपन से ही अपने पैतृक परिवेश से बेदखल होने की नित्य आशंका में बड़े हुए उनके मन-मस्तिष्क में जीवन की निराशा और उदासी ने स्थाई भाव ला दिया है. तभी तो उत्साह, उमंग और आनंद उनके जीवन के हिस्से कभी रहे ही नहीं.चैतू
उनके पास न जमीन
है, न मकान. शिल्पकारी का पैतृक हुनर विरासत में जो मिला था, वो भी बांध की बलि चढ़ गया. शिल्पकार से मजदूर बने वो भी विस्थापित लोगों की पहचान लिए. उनका जीवनीय दर्द उनके पास ही छटपटाता है.चैतू
बड़े बांध
से होने वाले पर्यावरण की चिन्ता है…..समस्या न हिमालय की सुलझी, न गंगा की, न पर्यावरण की, न टिहरी शहर की, न बांध में डूबने हेतु प्रतीक्षारत गांवों की, न चैतू की, न कठणू की, न टिहरी गढ़वाल की उस एक चौथाई आबादी की जो इस बांध से प्रभावित हो चुकी है और हो रही है
चैतू
वे बांध सर्मथक
और बांध विरोधी आन्दोलनों के पुरोधाओं के चिन्तन और चिन्ता का सक्रिय हिस्सा नहीं बन पाये. बनते कैसे? वे जिस सामाजिक पृष्ठभूमि से हैं उनके हितों की रक्षा करने की विकास अथवा विनाश का शोर मचाने वालों के लिए कोई अहमियत ही नहीं है.चैतू
‘‘….वह मन की टीस को दबाये चैतू को समझाता है-चैतू बांध विरोधी और समर्थक नेताओं की बात पर यकीन मत कर. ये लोग अपनी नेतागिरी चमकाने की बात करते हैं. तुम्हें बहका रहे हैं कि ‘कोई नहीं हटेगा, कोई नहीं उठेगा.’ और अपना परिवार उन्होने दो साल
पुर्नवास उनका विषय नहीं है. उन्हें तो गंगा की चिन्ता है. हिमालय की चिन्ता है. बड़े बांध से होने वाले पर्यावरण की चिन्ता है…..समस्या न हिमालय की सुलझी, न गंगा की, न पर्यावरण की, न टिहरी शहर की, न बांध में डूबने हेतु प्रतीक्षारत गांवों की, न चैतू की, न कठणू की, न टिहरी गढ़वाल की उस एक चौथाई आबादी की जो इस बांध से प्रभावित हो चुकी है और हो रही है.’’ (पृष्ठ, 85-89)
चैतू
चैतू
टिहरी नगर और
निकटवर्ती क्षेत्र के डूबने की कथा और व्यथा पर केन्द्रित उपन्यास ‘डूबता शहर’ टिहरी बांध बनने की मार्मिक शब्द यात्रा है. टिहरी बांध ने जमीन के एक हिस्से के साथ वहां के मानवीय समाज को भी अपने में विलीन किया था. आज नई पीढ़ी इस क्षेत्र को एक चकाचौंध वाले पर्यटक केन्द्र के रूप में देख रही है. परन्तु उन्हें यह भी महसूस होना चाहिए कि इस झील के अन्दर अतीत के एक समाज की सम्पूर्ण विरासत समाई हुई है. अपनी मातृभूमि से विस्थापन का दर्द लिए वह समाज आज भी अनेक नगरों-महानगरों में छितरा कर अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ रहा है.चैतू
शहर तो अभी
नहीं डूबा है पर चैतू का भाग्य डूब चुका है. रूपा बेचारी सैंतालीस की उम्र में ही चल बसी, गरीबी की मार ने उसे किशोरावस्था से सीधे बुढ़ापे में धकेल दिया था…..बिमारियां भी तो अब टिहरी वासियों की नियति बन गई हैं. सुबह-शाम चारों ओर बारूदी विस्फोट, मिट्टी, धूल उड़ाते ट्रक, रात-दिन भारी मशीनों की गड़गड़ाहट….शहर की गंदगी देखने की किसी को कोई फुरसत नहीं..
चैतू
बिडम्बना यह भी है कि उस
मानवीय समाज के सबसे कमजोर वर्ग की त्रासदी की चर्चा बहुत कम सामने आयी है. साहित्यकार बचन सिंह नेगी ने ‘डूबता शहर’ उपन्यास में इसी स्थानीय शिल्पकार वर्ग के टिहरी बांध बनने से उपजे जीवन संघर्षों को रेखांकित किया है.चैतू
‘‘शहर तो अभी नहीं डूबा है पर चैतू का भाग्य डूब चुका है. रूपा बेचारी सैंतालीस की उम्र में ही चल बसी, गरीबी की मार ने उसे किशोरावस्था से सीधे बुढ़ापे में धकेल दिया था…..बिमारियां भी तो अब टिहरी वासियों की नियति बन गई हैं.
सुबह-शाम चारों ओर बारूदी विस्फोट, मिट्टी, धूल उड़ाते ट्रक, रात-दिन भारी मशीनों की गड़गड़ाहट….शहर की गंदगी देखने की किसी को कोई फुरसत नहीं….ऐसे में इस अभागे शहर के गरीब अकाल मृत्यु न मरते तो यही आर्श्चय की बात होती, चैतू, ननकू, मंगणू, बीणा सब असहाय हो गये हैं. लिनको कंपनी ने काफर डाम का काम पूरा कर दिया है इसलिए ननकू का रोजगार फिर से छूट गया है. यह एक और आघात है. चैतू जर्जर हो गया है. कुली गिरी के लिए शारीरिक शक्ति चाहिए. थके-टूटे चैतू के पास वह कहां से आये? अब नई टिहरी में भी काम बहुत कम हो गये हैं.’’ पृष्ठ-99चैतू
टिहरी (गढ़वाल) के
तल्ली बागी गांव में 4 नवम्बर, 1932 को जन्में बचन सिंह नेगी का रचित साहित्य उन्हें अग्रणी लेखकों में शुमार करता है. ये अलग बात है कि उनका साहित्य अधिसंख्यक पाठकों तक नहीं पहुंचा है, परन्तु इन अर्थों में उसकी सार्थकता कम नहीं होती है. हिन्दी साहित्य में ‘प्रभा’ (खण्ड काव्य), ‘आशा किरण’ (कविता संग्रह), ‘भाव मंजूषा’(संकलित आलेख), ‘गंगा का मायका’(इतिहास लेखन), ‘डूबता शहर’(उपन्यास) तथा ‘मेरी कहानी’ (आत्मकथा) उनकी रचनायें हैं. गढ़वाली समाज एवं भाषा के लिए बचन सिंह नेगी का योगदान एक अमूल्य निधि के रूप में है. बचन सिंह नेगी ने रामचरित मानस, बाल्मिकी रामायण, वेद संहिता, महाभारत ग्रंथसार, श्रीमद्भगवत गीता, ब्रह्मसूत्र आदि महान रचनाओं का गढ़वाली भाषा में भावानुवाद किया है.चैतू
निःसंदेह यह कार्य दुनिया के प्रपंचों एवं प्रचार-प्रसार से दूर रहकर ही किया जा सकता था. एक तपस्वी की एकाग्रता को चित्त में आत्मसात करते हुए उनके द्वारा अनुवादित घर्म ग्रन्थ वर्षों के अथक श्रम-साध्य कार्य का ही परिणाम है.
टिहरी बांध निर्माण पर
अनेकों लेख, रिपोर्ट और पुस्तकें प्रकाशित हैं. परन्तु संपूर्ण टिहरी बांध निर्माण प्रक्रिया को विषय-वस्तु बना कर उस पर केन्द्रित उपन्यास की रचना करके साहित्यकार बचन सिंह नेगी ने विशिष्ट कार्य किया है.चलो, ‘डूबता शहर’ उपन्यास
के बहाने टिहरी नगर के नामकरण की बात करते हैं. तीन नदियों भागीरथी, भिलंगना और घृतनदी के संगम स्थल पर बसा टिहरी (त्रिहरी) को देखकर कभी कवि गुमानी (सन् 1790-1846) ने गुनगुनाया था-चैतू
‘‘सुरगंगतटी, रसखानमहि, धनकोशभरी, यहु नाम रह्यो.
पद तीन बनाय, रच्यो बहु विस्तर, वेग नहीं जब जात कह्यो..
इन तीन पदों के बसान बस्यो, अक्षर एक ही एक लह्यो.
जनराज सुदर्शन पुरी, ‘टिहिरी’ इस कारण नाम रह्यो..’’
(सुरगंगतटि- गंगा के किनारे बसा हुआ,
रसखानमहि- आनंदमई स्थल,
धनकोशभरी- धन-दौलत से सम्पन्न.
इस प्रकार प्रारंभ में उक्त तीन वाक्याशों को मिलाकर नगर का नाम (सुरगंगतटि, रसखानमहि, धनकोशभरी) रखा गया. परन्तु उच्चारण में यह नाम कठिन था.
चैतू
इसको ध्यान में रखते हुए
हर वाक्याशं के आखिरी अक्षर (क्रमशः ‘टि‘, ‘हि‘, ‘री’) को लेकर राजा सुर्दशन साह की राजधानी का नया नामकरण ‘टिहिरी’ किया गया. संदर्भ-Says Gumani- Charu Chandra Pande, PAHAR, Nainital, 1994)कवि गुमानी की उक्त कविता को
टिहरी नगर पर लिखी पहली कविता माना जाता है. ‘डूबता शहर’ उपन्यास की शुरूआती पक्तियां भी यही कविता है.चैतू
‘‘मंगत लाल खबर लाये हैं कि
प्लाट सरेन्डर कर देने पर एक लाख रुपये देने को तैयार है, सो चैतू पर जोर पड़ता है, वह एक लाख रुपये का मोह नहीं त्याग सकता और प्लाट सरेन्डर कर देता है. प्लाट सरेन्डर कर देने के साथ ही भविष्य की सारी योजनायें भी जैसे अब तिरोहित हो गई हैं. विस्थापन से पहले ही खानाबदोश होने की तैयारी.’’
चैतू
उपन्यास का मुख्य पात्र ‘चैतू’ because टिहरी नगर के हाथीखान मौहल्ले का है. चैतू के परदादा ख्यातिप्राप्त शिल्पी थे. लोहे की तलवार बनाने में उन्हें महारथ हासिल थी. शस्त्र बनाने का काम कम हुआ तो कृषि और घरेलू उपयोग की वस्तुयें उसके परिवार में बनाई जाने लगी. परन्तु आधुनिक बाजार के दबाब के कारण पैतृक अणसाल (कार्यशाला) की धौकनी की लौ उसके पिता जमनू के जमाने में ही मंद होकर टल्ले-टांके तक ही रह गई थी. लुहारी का छुट-पुट काम भी धीरे-धीरे जाने लगा. टिहरी बांध बनने की शुरुआती में ही चैतू पुश्तैनी कारीगर से मजदूर बन गया.
चैतू
अखबारों में छपता कि ‘‘23
गांव पूर्ण और 72 गांव आशिंक जलमग्न होंगे, इसके अलावा 10 गांव बांध के निर्माणाधीन कामों, नई टिहरी नगर और बांध के कर्मचारियों को बसाने के लिए विस्थापित होंगे. कुल 105 गांव प्रभावित होंगे.’’ चैतू अखबारों की इन खबरों से परेशान हो जाता था.चैतू
परन्तु ये उन दिनों की बात है
जब वह कारीगर से नया-नया मजदूर बना था. अब तो वह इन खबरों का अभ्यस्त हो गया है. सरकार, कम्पनी और नेताओं की चालाकी वह समझने लगा है. वह भी पैंतरा बदलना जान गया है. भले ही आखिर में हर बार उसको नुकसान उठाना पड़ता है. परन्तु सामने खड़ी पारिवारिक परेशानियों से तुरंत निजा़त पाने का उसके पास कोई दूसरा विकल्प भी तो नहीं है.चैतू
‘‘चैतू को क्या मालूम था कि
पुराना मकान बता कर उसने अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मारी है. कट-कटाकर मकान का मुवाअजा बना ग्यारह हजार रुपया. साहब ने एहसान जताया अरे, हम तुम्हें और दिलवा देंगे, जाओ कुछ व्यवस्था करो. अब चैतू का रोज का काम, बांध दफ्तर के चक्कर काटने का रह गया.’’ पृष्ठ-42चैतू
‘‘मंगत लाल खबर लाये हैं कि
प्लाट सरेन्डर कर देने पर एक लाख रुपये देने को तैयार है, सो चैतू पर जोर पड़ता है, वह एक लाख रुपये का मोह नहीं त्याग सकता और प्लाट सरेन्डर कर देता है. प्लाट सरेन्डर कर देने के साथ ही भविष्य की सारी योजनायें भी जैसे अब तिरोहित हो गई हैं. विस्थापन से पहले ही खानाबदोश होने की तैयारी.’’ पृष्ठ-108चैतू
चैतू रोज भागीरथी पुल से
मजदूरी के लिए आता-जाता है. पुल के एक किनारे के पास ‘‘टिहरी बांध सम्पूर्ण विनाश का प्रतीक है’’ वाला बैनर देखकर उसके मन-मस्तिष्क में हर बार आता है कि वह इस नारे का सबसे ज्वलंत जीता-जागता उदाहरण है. फिर वही क्या उसके समाज के साथ-साथ डूब क्षेत्र टिहरी का हर गरीब आदमी इस नारे का ‘प्रत्यक्षं किम प्रमाणम’ ही तो हैं.‘‘ननकू, मंगणू
की सोच बदल गयी है. उन्हें दुनिया से गिला है, समाज से गिला है, और सबसे अधिक गिला है अपने बाप से,….उन्हें अपने पिता चैतू से कोई सहानुभूति नहीं. वह आज न होता तो ननकू और मंगणू अलग-अलग परिवार गिने जाते, वे अलग-अलग प्लाट की मांग करते, अलग-अलग प्रतिकर की मांग करते.’’
चैतू
‘‘भागीरथी पुल के
पास भक्तों ने भगवान बजरंगबली की मूर्ति को स्थापित किया है. शुरू-शुरू में बांध विरोधी जत्थों ने यहां पर धरना भी दिया था, एक मैला-फटा पुराना कपड़े का सूचना-पट आज भी वहां पर फरफरता है, जिस पर लिखा है ‘‘टिहरी बांध सम्पूर्ण विनाश का प्रतीक है’’ धरना देने वाले अब नहीं दिखाई देते, किन्तु आस्था के प्रतीक बजरंगबली की मूर्ति पर यदा-कदा कोई भक्त सिंदूर चढ़ाता या फूल अर्पित करता हुआ आज भी दृष्टि गोचर हो जाता है’’ पृष्ठ, 4-5चैतू भलि-भांति जानता है
कि उसके लड़के ननकू और मंगणू बिना तकनीकी हुनर हासिल किए डाम की दैनिक मजदूरी करके अपना भविष्य बरबाद कर रहे हैं. बीमार चैतू ये भी बखूबी जानता है कि उसका अब तक जिन्दा रहना ही उसके लड़कों को अखर रहा है. बेटों को पिता के जीवत रहते अलग-अलग बड़ा प्लाट न मिल पाने का दुःख है. मानवीय संवेदनाओं की इतिश्री इससे ज्यादा क्या होगी? अपनी जीवनलीला के अंतिम समय में वह निरा अकेला और असहाय है. अपने बेटों से अपमानित चैतू को उसकी विवाहित बेटी बीणा अन्तिम समय में सहारा देती है.चैतू
‘‘ननकू, मंगणू की
सोच बदल गयी है. उन्हें दुनिया से गिला है, समाज से गिला है, और सबसे अधिक गिला है अपने बाप से,….उन्हें अपने पिता चैतू से कोई सहानुभूति नहीं. वह आज न होता तो ननकू और मंगणू अलग-अलग परिवार गिने जाते, वे अलग-अलग प्लाट की मांग करते, अलग-अलग प्रतिकर की मांग करते.’’ पृष्ठ-100‘डूबता शहर’
उपन्यास वंचित वर्ग के पात्रों के माध्यम से टिहरी बांध निर्माण के लगभग 35 साल की यात्रा का आंखों-देखा हाल है. इस दौर में सरकार, कम्पनी और नेताओं के आन्तरिक गठजोड़ों के किस्से इस उपन्यास में हैं. इन किस्सों को जानकर टिहरी बांध के विरोध और समर्थन के नारों के अंदर छिपे सत्य और झूठ के दर्शन हो जाते हैं.‘‘….और 29 जुलाई, 2004 को 189 साल पुराने टिहरी शहर ने जल समाधि ले ली, जब टिहरी शहर के बीचों-बीच पहुंचा बांध की झील का
पानी भिलंगना नदी से जा मिला. इस प्रकार एक ऐतिहासिक शहर काल के गाल में समा गया, लगभग 188 साल 7 माह का इतिहास अपने शरीर पर लपेटे हुए.’’
‘‘इस बीच व्यावर्तन सुरंग टी-4 के पैनल न. 6 पर चार इंच का एक पाइप छोड़ दिया गया है, ताकि प्रतीक रूप में भागीरथी का जल सतत बहता रहे.
शायद विश्व हिंदू परिषद का अहम इससे संतुष्ट हो गया हो. क्योंकि इस बीच उनकी ओर से कोई हलचल नहीं. इस प्रकार प्रतीकों के सहारे फलने-फूलने वाले आंदोलन तथा उसके नेता जनता की कितनी सेवा करते हैं अथवा उनके आंदोलन का क्या निष्कर्ष निकलता है, इससे जनता को सबक लेना चाहिए.’’ पृष्ठ, 118-119चैतू
30 जुलाई, 2004 को
साहित्यकार बचन सिंह नेगी ‘डूबता शहर’ उपन्यास को इस प्रकार विराम देते हैं कि-‘‘….और 29 जुलाई,
2004 को 189 साल पुराने टिहरी शहर ने जल समाधि ले ली, जब टिहरी शहर के बीचों-बीच पहुंचा बांध की झील का पानी भिलंगना नदी से जा मिला. इस प्रकार एक ऐतिहासिक शहर काल के गाल में समा गया, लगभग 188 साल 7 माह का इतिहास अपने शरीर पर लपेटे हुए.’’चैतू
‘डूबता शहर’ उपन्यास
पढ़ते हुए हर पन्ने पर चर्चित लेखक और सामाजिक चिन्तक ‘थेयर स्कडर’ के कथन का यह भाव पीछा करता रहा कि ‘‘अपनी मातृभूमि से इच्छा के विरुद्ध बलात विस्थापित कर दिए जाने से अपनी सामाजिक शिथिलता का जो बोध और मजबूरी का जो अहसास होता है, उससे अधिक दर्दनाक घटना जीवन में दूसरी नहीं हो सकती.”(लेखक एवं प्रशिक्षक)