लधु कथा
- डॉ. कुसुम जोशी
सवि ने धीरे से कराहते हुये आंखें खोली, चारों और नजरें घुमाई तो अपने को अस्पताल में पाया.
“मैं यहां..कैसे..! ” सोचती रही सावि… धीरे-धीरे सब कुछ याद आ रहा था उसे, उसका और जगन का प्रेम राज नहीं रहा, घर में तूफान उठान में आ चुका था.
जगन
सावि ने ठान लिया था कि मौका मिलते ही जगन से साफ-साफ बात करेगी.
उसे घर में अकेला जान, हमेशा की तरह उस दिन जगन आया, अपने प्रेम की कसमें खाता रहा.
“जगन या तो तू मुझे यहां से ले चल, नहीं तो मेरा पीछा करना छोड़ दे”, सावि ने दो टूक अपना फैसला सुना दिया.
जगन
सवि की बात सुन जगन दबाव महसूस कर रहा था. बोला, ‘ऐसी क्या आफत हो गई कि तू आज ऐसी बात कर रही है.
घर में सब पता चल चुका है, चार दिन से में रोज ही पिट रही हूं, मुझे ब्राह्मण कुल की कंलकिनी कहा जा रहा है. बाबू कह रहे है कि “जात और जान दोनों से जायेगी. क्योंकि तू बीबी बच्चेदार है”. सच्ची बात बता मुझे.
जगन
झूठ बोल रहे है तेरे बाबू, भगवान कसम कोई घर बार नही मेरा… हां तेरी जात का नही हूं, पर दिल से चाहता हूं तुझे.
तो फिर मुझे अभी इसी समय ले चल अपने साथ.
जगन
लम्बे पहाड़ी रास्ते से निकलते एक सूनसान जगह पर गाड़ी रोक जगन ने हाथ पकड़ उसे पिलर में बिठाया था, और भविष्य की कुछ मीठी बातें की. सवि हंस रही थी, अचानक उसे लगा कि ” पूरी ताकत से खाई की और किसी ने उसे धकेल दिया”. बस वो चीख रही थी जगन… जगन…
जगन
तू होश में है! ऐसे अचानक कोई निर्णय लेता है क्या? कहां ले के जाऊंगा ऐसे अचानक?
तू लाया है ना अपने साहब की गाड़ी… ले चल कही भी… चले जायेगें हम.
अरे कैसी बात करती है… ड्राइवर हूं, कोई मालिक नहीं हूं मैं.
जगन
“फिर जहर ले आ… हम दोनों खा के आज मर ही जायं तो अच्छा”.
जगन सावि की आँखों में भय, डर और नफरत साथ देख घबरा रहा था.
ठीक है बैठ गाड़ी में, कुछ पैसे हैं तो रख लेना… अभी कुछ है नही मेरे पास, बाकी फिर देख लेंगे.
तू चिन्ता मत कर जगन… मैं मां के गहने और कुछ पैसे रखती हूं.
लम्बे पहाड़ी रास्ते से निकलते एक सूनसान जगह पर गाड़ी रोक जगन ने हाथ पकड़ उसे पिलर में बिठाया था, और भविष्य की कुछ मीठी बातें की. सवि हंस रही थी, अचानक उसे लगा कि ” पूरी ताकत से खाई की और किसी ने उसे धकेल दिया”. बस वो चीख रही थी जगन… जगन…
(लेखिका साहित्यकार हैं एवं छ: लघुकथा संकलन और एक लघुकथा संग्रह
(उसके हिस्से का चांद) प्रकाशित. अनेक पत्र-पत्रिकाओं में सक्रिय लेखन.)