- नरेश नौटियाल
मन की बात भाग-1
15 जूलाई, 2002 से शुरू हुआ सफर आज भी जारी है। मै सन् 2002 मे बड़कोट डिग्री कालेज बी० ए० द्वितीय वर्ष की पढ़ाई रेगुलर कर रहा था। कालेज के दिनों की बात ही निराली होती है, दोस्तों के साथ खूब मौज—मस्ती, हंसी—मजाक, कालेज के दिनों के चुनावों मे जोश, रणनीति, कमरे—कमरे में वोट मागने जाना और पौंटी गांव का वो दस दिन का NSS का कैम्प। कैम्प के दौरान आपसी तालमेल से रात और दिन का खाना भी डिग्री कालेज के लड़के व लड़कियां मिलजुलकर बनाती थी। सांस्कृतिक प्रोग्राम मे भाग लेना और सहपाठियों के साथ ढेरसारी बातें करना बहुत अच्छा लगता था।
देहरादून में नौकरी के साथ—साथ घूमना—फिरना भी मिल जाएगा और खूब ऐश करूंगा। पढ़ाई भी साथ—साथ होती रहेगी। लेकिन जब काम करना शुरू किया तो मौजमस्ती तो दूर, अपने सोचने के लिए भी टाइम नहीं मिल पाता था। एक काम खत्म नहीं हुआ, दूसरा शुरू
एक दिन अचानक देहरादून के एक NGO से एक नौकरी का आफर आया वो भी किसी की सिफारिश से! नौकरी भी चाय बनाने की। काफी सोच—विचार किया। फिर सोचा देहरादून में घूमना—फिरना मिल जाएगा और खूब ऐश करूंगा। पढ़ाई भी साथ—साथ होती रहेगी। लेकिन जब काम करना शुरू किया तो मौजमस्ती तो दूर, अपने सोचने के लिए भी टाइम नहीं मिल पाता था। एक काम खत्म नहीं हुआ, दूसरा शुरू करना होता था। एक महिने के बाद मुझे सेल्समैन (मार्केटिंग) का नया विभाग मिला, जो अपनी योग्यता से मेल भी नहीं खाता था फिर तो मैंने भी पीछे मुड़कर नहीं देखा। जो काम सबसे मुश्किल होता था, उसे मैं अपने हाथ मे ले लेता था। इसी योग्यता के कारण अन्य सीनियर साथियों की कई बार नौकरी भी बचाई (जिनके पास MBA का डिप्लोमा भी था फराटेदार अग्रेजी बोलना या लिखना उनके बाएं हाथ का खेल था, लेकिन फिल्ड का अनुभव शून्य था और तनख्वाह के नाम पर वो डिप्लोमाधारी मुझ से कोसों आगे थे)। जो कर्ताधर्ता थे उनको ये दिखता नहीं था कि काम आखिर किया किसने है।
खैर मैंने भी मन में ठान लिया कि चाहे कुछ हो जाय कुछ करके ही दम लूंगा।
शेष जारी…