Tag: पर्यावरण

पर्यावरण आंदोलन और पहाड़ी महिलाएं

पर्यावरण आंदोलन और पहाड़ी महिलाएं

आधी आबादी
भावना मसीवाल पहाड़ का जीवन देखने में हमें जितना शांत और खूबसूरत लगता है, अपने भीतर वह बहुत सी हलचलों और दबावों को समेटे है. यह दबाव एक ओर प्रकृति का प्रकोप है जो भूकंप और बाढ़ के रूप में देखा जाता है तो दूसरी ओर पहाड़ पर बढ़ता मानवीय हस्तक्षेप है जो केदारनाथ, बद्रीनाथ और रूद्रप्रयाग के विध्वंस का जीवंत उदाहरण है. पहाड़ के जीवन को जिसने न केवल प्रभावित किया बल्कि पहाड़ को मैदानों और शहरो की तरफ पलायन को मजबूर किया. यह पलायन केवल एक व्यक्ति का नहीं बल्कि पूरे पहाड़ी समाज का रहा. पहाड़ी समाज पूर्णतः प्रकृति पर आश्रित है मगर भूमंडलीकरण के बढ़ते प्रभाव ने प्रकृति प्रदत्त उनकी यह जीविका छीन ली है. आज पलायन बढ़ रहा है. कारण आर्थिक बेरोजगारी है जिसका परिणाम सबसे अधिक महिलाओं के जीवन पर रहा. उत्तराखंड में आज भी महिलाएं अकेली पहाड़ पर रहने को मजबूर हैं और पुरुष शहर जाकर कमाने को. पहाड़ के बारे में कहा जाता ह...
अमर शहीद श्रीदेव सुमन के बलिदान दिवस पर उन्हें नमन करते हुए

अमर शहीद श्रीदेव सुमन के बलिदान दिवस पर उन्हें नमन करते हुए

स्मृति-शेष
टिहरी बांध बनने में शिल्पकार समाज के जीवन संघर्षों का रेखांकन, साहित्यकार ‘बचन सिंह नेगी’ का मार्मिक उपन्यास 'डूबता शहर’ डॉ.  अरुण कुकसाल "...शेरू भाई! यदि इस टिहरी को डूबना है तो ये लोग मकान क्यों बनाये जा रहे हैं. शेरू हंसा ‘चैतू! यही तो निन्यानवे का चक्कर है, जिन लोगों के पास पैसा है, वे एक का चार बनाने का रास्ता निकाल रहे हैं. डूबना तो इसे गरीबों के लिए है, बेसहारा लोगों के लिये है, उन लोगों के लिए है जिन्हें जलती आग में हाथ सेंकना नहीं आता. जो सब-कुछ गंवा बैठने के भय से आंतकित हैं.....चैतू सोच में डूब जाता है, उनका क्या होगा? आज तक रोजी-रोटी ही अनिश्चित थी, अब रहने का ठिकाना भी अनिश्चित हो रहा है.’’  (पृष्ठ, 9-10) टिहरी बांध बनने के बाद ‘उनका क्या होगा?’ यह चिंता केवल चैतू की नहीं है उसके जैसे हजारों स्थानीय लोगों की भी है. ‘डूबता शहर’ उपन्यास में जमनू, चैतू, कठणू, रूपा, रघु,...
पर्यावरण को समर्पित उत्तराखंड का लोकपर्व हरेला

पर्यावरण को समर्पित उत्तराखंड का लोकपर्व हरेला

साहित्‍य-संस्कृति
अशोक जोशी देवभूमि, तपोभूमि, हिमवंत, जैसे कई  पौराणिक नामों से विख्यात हमारा उत्तराखंड जहां अपनी खूबसूरती, लोक संस्कृति, लोक परंपराओं धार्मिक तीर्थ स्थलों के कारण विश्व भर में प्रसिद्ध है,  तो वहीं यहां के लोक पर्व भी पीछे नहीं, जो इसे ऐतिहासिक दर्जा प्रदान करने में अपनी एक अहम भूमिका रखते हैं. हिमालयी, धार्मिक व सांस्कृतिक राज्य होने के साथ-साथ देवभूमि उत्तराखंड को सर्वाधिक लोकपर्वों वाले राज्य के रूप में भी देखा जाता है. विश्व भर में कोई त्यौहार जहां वर्ष में सिर्फ एक बार आते हैं तो वही हरेला जैसे कुछ लोक पर्व देवभूमि में वर्ष में तीन बार मनाए जाते हैं. हरेला लोक पर्व उत्तराखंड में मनाया जाने वाला एक हिंदू पर्व है, जो विशेषकर राज्य के कुमाऊं क्षेत्र में अधिक प्रचलित है. कुछ लोगों के द्वारा चैत्र मास के प्रथम दिन  इसे बोया जाता है, तथा नवमी के दिन काटा जाता है. तो कुछ जनों के द्वारा साव...
सनातन संस्कृति के मूल में है पर्यावरण की रक्षा

सनातन संस्कृति के मूल में है पर्यावरण की रक्षा

पर्यावरण
भुवन चन्द्र पन्त दुनिया के पर्यावरण विज्ञानी भले आज पर्यावरण संरक्षण की ओर लोगों को चेता रहे हों, लेकिन हमारे मनीषियों को तो हजारों-हजार साल पहले आभास था कि पर्यावरण के साथ खिलवाड़ के क्या भयावह परिणाम हो सकते हैं? भारत की सनातन संस्कृति जो वेदों से विकसित हुई, उन वैदिक ऋचाओं का मूल कथ्य ही प्रकृति के साथ सन्तुलन से जुड़ा है. जिसने वेदों का जरा भी अध्ययन न किया, वे वेदों को हिन्दुओं के धार्मिक ग्रन्थ मात्र समझने की भूल करते हैं, जब कि वैदिक ज्ञान, किसी धर्म अथवा सम्प्रदाय से परे वह जीवन शैली है, जो सम्पूर्ण मानव जाति के कल्याण का रास्ता दिखाती है. हकीकत तो ये है कि वेदों में पंच महाभूतों को ही देवतुल्य स्थान दिया गया है और इन्हीं को सन्तुलित करना चराचर जगत के लिए कल्याणकारी बताया गया है. वैदिक ऋचाओं में इन्द्र, अग्नि व वरूण आदि का ही उल्लेख मिलता है. ईश्वर के साकार रूप से परे वेदों में पृ...