पर्यावरण को समर्पित उत्तराखंड का लोकपर्व हरेला

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  • अशोक जोशी

देवभूमि, तपोभूमि, हिमवंत, जैसे कई  पौराणिक नामों से विख्यात हमारा उत्तराखंड जहां अपनी खूबसूरती, लोक संस्कृति, लोक परंपराओं धार्मिक तीर्थ स्थलों के कारण विश्व भर में प्रसिद्ध है,  तो वहीं यहां के लोक पर्व भी पीछे नहीं, जो इसे ऐतिहासिक दर्जा प्रदान करने में अपनी एक अहम भूमिका रखते हैं. हिमालयी, धार्मिक व सांस्कृतिक राज्य होने के साथ-साथ देवभूमि उत्तराखंड को सर्वाधिक लोकपर्वों वाले राज्य के रूप में भी देखा जाता है. विश्व भर में कोई त्यौहार जहां वर्ष में सिर्फ एक बार आते हैं तो वही हरेला जैसे कुछ लोक पर्व देवभूमि में वर्ष में तीन बार मनाए जाते हैं. हरेला लोक पर्व उत्तराखंड में मनाया जाने वाला एक हिंदू पर्व है, जो विशेषकर राज्य के कुमाऊं क्षेत्र में अधिक प्रचलित है. कुछ लोगों के द्वारा चैत्र मास के प्रथम दिन  इसे बोया जाता है, तथा नवमी के दिन काटा जाता है. तो कुछ जनों के द्वारा सावन माह से नौ दिन पहले आषाढ़ माह में हरेला बोया जाता है और दसवें दिन अर्थात श्रावण मास के प्रथम दिन इसे काटा जाता है. देवभूमि से जुड़े कुछ लोग अश्विन मास की नवरात्र के प्रथम दिन भी इसे बोते हैं तथा दशहरे की दिन काटते हैं. किंतु ऐतिहासिक व धार्मिक दृष्टि से श्रावण मास में मनाए जाने वाले हरेला पर्व को ही विशेष महत्व व स्थान दिया गया है. श्रावण मास से नौ दिन पूर्व आषाढ़ माह में हरेला बोने के लिए एक थालीनुमा या कटोरेनुमा पात्र लिया जाता है जिसमें उपजाऊ मिट्टी डालकर पांच सात प्रकार के बीजों जैसे- जौ, धान, गहत, गेहूँ, भट्ट, सरसों व उड़द आदि को बो दिया जाता है, जिसमें हर रोज नौ दिनों तक सुबह शुद्ध ताजा पानी डाला जाता है. बुवाई के दसवें दिन व श्रावण मास के प्रथम दिन इन पौधों को काटा जाता है, लगभग 5-6 इंच लंबे यह पौधे ही हरेला कहलाते हैं.

कुछ लोग हरेला पौधों की लंबाई को भी धार्मिक आस्था से जोड़ते हैं, हरेला पौधों को परिवार के सभी सदस्य बड़े सम्मान के साथ अपने शीश पर रखते हैं. घर परिवार की सुख समृद्धि व शांति के प्रतीक के रूप में यह प्राकृतिक लोक पर्व बड़ी आस्था व विश्वास के साथ संपूर्ण उत्तराखंड में मनाया जाता है. पर्यावरण को समर्पित हरियाली का यह पर्व ऋतु परिवर्तन के प्रतीक के रूप में भी देखा जाता है या यूं कहें कि हरेला पर्व श्रावण मास के आने का संकेत है तो शायद इसमें कोई हर्ज न होगा. जन मान्यताओं के अनुसार इस दिन गांव के हर व्यक्ति को एक पौधा अवश्य लगाना होता है. जब हरेला पौधों को किसी के शीश पर रखा जाता है तो इस दौरान  एक सुंदर से आशीर्वचन के रूप में कुमाऊनी बोली की कुछ निम्न पंक्तियां कही जाती है—

“जी रये जाग रये, स्याव जस बुद्धि हैजो,
सूर्ज जस तरान हैजो,
आकाश बराबर उच्च है जैए धरती बराबर चकाव है जै,
दूब जस फलिये,
हिमाल में ह्यूं छन तकए गंग च्यू में पानी छन तक,
सिल पिसि भात खायेए जाठि टेकि झाड़ जाये”

अर्थात् – जीते और जागते रहना, लोमड़ी के जैसे चतुर और सूर्य की तरह तेज होना, आसमान के बराबर ऊचां और धरती के समान चौड़ा हो जाना, जमीन की दूब (घास) के समान मजबूत पकड़ हो, हिमालय में जब तक बर्फ है और गंगा जी में जब तक जल है तब तक जीवित रहना, बुढ़ापे में सिलबट्टे में पिसा हुआ चावल खाने तक जीवित रहना..

हरेला पर्व के अवसर पर छाई हुई प्राकृतिक हरियाली मानव मन की प्रवृत्ति में भी सुख शांति व खुशहाली भर-भर कर लाती है. आस्था के इस पावन पर्व की अपनी एक पृथक गरिमा एवं महिमा है हरेला पर्व हमें अपनी संस्कृति के साथ साथ पर्यावरण से भी जोड़ता है.

किंतु हमारे हिस्से के पहाड़ में काफी कुछ बदल चुका है आज  पहाड़ों के अधिकांश गांवों में पलायन का ताला लगा हुआ है जीवित संस्कृति की मिसाल के रूप में हरेला जैसे लोक पर्व आज भी पुरातन मान्यताओं के अनुसार अवश्य मनाए जाते हैं किंतु जिन पर्वों को गत कुछ वर्षों पहले गांव क्षेत्र एवं समाज पूरा एक होकर मनाता था आज मात्र वह एक व्यक्ति व उसके परिवार तक ही सीमित रह गए हैं.

(लेखक गुरुकुल कांगड़ी विश्वविद्यालय हरिद्वार के छात्र हैं)

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