Tag: Kumaon Festival

नेपाल और कुमाऊँ की साझी विरासत – लोक पर्व ‘सातूं-आठूं’

नेपाल और कुमाऊँ की साझी विरासत – लोक पर्व ‘सातूं-आठूं’

लोक पर्व-त्योहार
चंद्रशेखर तिवारी रिसर्च एसोसिएट, दून पुस्तकालय एवं शोध केंद्र, देहरादून ‘शिखर धुरा ठंडो पाणी मैंसर उपज्यो / गंगा टालू बड़ बोट लौलि उपजी’ यानी उच्च शिखर में ठंडी जगह पर मैसर (महेश्वर) का जन्म हुआ और गंगा तट पर वट वृक्ष की छाया में लौलि (गौरा पार्वती) पैदा हुईं. पूर्वी कुमाऊँ व पश्मिी नेपाल के इलाकों में जब लोक उत्सव सातूं-आठूं की धूम मची रहती है तब स्थानीय लोग इस गीत को बड़े ही उल्लास के साथ गाते हैं. सातूं-आठूं जो गमरा-मैसर अथवा गमरा उत्सव के नाम से भी जाना जाता है, दरअसल नेपाल और भारत की साझी संस्कृति का प्रतीक पर्व है. हिमालयी परम्परा में रचा-बसा यह पर्व सीमावर्ती काली नदी के आर-पार बसे गाँवों में समान रुप से मनाया जाता है. संस्कृति के जानकार लोगों के अनुसार सातूं-आठूं का मूल उद्गम क्षेत्र पश्चिमी नेपाल है, जहाँ दार्चुला, बैतड़ी, डडेल धुरा व डोटी अंचल में यह पर्व सदियों से मनाया जाता र...
सामूहिक और सांस्कृतिक चेतना का मेला- स्याल्दे बिखौती

सामूहिक और सांस्कृतिक चेतना का मेला- स्याल्दे बिखौती

इतिहास, उत्तराखंड हलचल, संस्मरण, हिमालयी राज्य
चारु तिवारी । सुप्रसिद्ध स्याल्दे-बिखौती मेला विशेष । सत्तर का दशक। 1974-75 का समय। हम बहुत छोटे थे। द्वाराहाट को जानते ही कितना थे। इतना सा कि यहां मिशन इंटर कॉलेज के मैदान में डिस्ट्रिक रैली होती थी। हमें लगता था ओलंपिंक में आ गये। विशाल मैदान में फहराते कई रंग के झंडे। चूने से लाइन की हुई ट्रैक। कुछ लोगों के नाम जेहन में आज भी हैं। एक चौखुटिया ढौन गांव के अर्जुन सिंह जो बाद तक हमारे साथ वालीबाल खेलते रहे। उनकी असमय मौत हो गई थी। दूसरे थे महेश नेगी जो वर्तमान में द्वाराहाट के विधायक हैं। ये हमारे सीनियर थे। एक थे बागेशर के टम्टा। अभी नाम याद नहीं आ रहा। उनकी बहन भी थी। ये सब लोग शाॅर्ट रेस वाले थे। अर्जुन को छोड़कर। वे भाला फेंक, चक्का फेंक जैसे खेलों में थे। महेश नेगी जी का रेस में स्टार्ट हमें बहुत पसंद था। वे स्पोर्टस कालेज चले गये। बाद में राष्ट्रीय प्रतियोगिताओं में भी जीते।...
पहाड़ की अनूठी परंपरा है ‘भिटौली’

पहाड़ की अनूठी परंपरा है ‘भिटौली’

उत्तराखंड हलचल, संस्मरण, साहित्‍य-संस्कृति
दीपशिखा गुसाईं मायके से विशेष रूप से आए उपहारों को ही ‘भिटौली’ कहते हैं। जिसमें नए कपड़े, मां के हाथों  से बने कई तरह के पकवान आदि  शामिल हैं। जिन्हें लेकर भाई अपनी बहिन के घर ले जाकर उसकी कुशल क्षेम पूछता है। एक तरफ से यह त्यौहार भाई और बहिन के असीम प्यार का द्योतक भी है। पहाड़ की अनूठी परंपरा ‘भिटौली’ ‘अब ऋतु रमणी ऐ गे ओ चेत क मेहना,  भटोई की आस लगे आज सोरास बेना...’ यह गीत सुन शायद सभी पहाड़ी बहिनों को अपने मायके की याद स्वतः ही आने लगती है, ‘भिटौली’ मतलब भेंट... कुछ जगह इसे ‘आल्यु’ भी कहते हैं। चैत माह हर एक विवाहिता स्त्री के लिए विशेष होता है। अपने मायके से भाई का इंतजार करती, उससे मिलने की ख़ुशी में बार—बार रास्ते को निहारना... हर दिन अलसुबह उठकर घर की साफ—सफाई कर अपने मायके वालों के इंतजार में गोधूलि तक किसी भी आहट पर बरबस ही उठखड़े होना शायद कोई आया हो। मायके से विशे...
अब न वो घुघुती रही और न आसमान में कौवे

अब न वो घुघुती रही और न आसमान में कौवे

लोक पर्व-त्योहार, संस्मरण
हम लोग बचपन में जिस त्योहार का बेसब्री से इंतजार करते थे वह दिवाली या होली नहीं बल्कि ‘घुघुतिया’ था। प्रकाश चंद्र भारत की विविधता के कई आयाम हैं इसमें बोली से लेकर रीति-रिवाज़, त्योहार, खान-पान, पहनावा और इन सबसे मिलकर बनने वाली जीवन पद्धति। इस जीवन पद्धति में लोककथाओं व लोक आस्था का बड़ा महत्व है। हर प्रदेश की अपनी लोक कथाएं हैं जिनका अपना एक संदर्भ है। इन लोक कथाओं और उनसे संबंधित त्योहारों के कारण ही आज भी ग्रामीण समाज में सामूहिकता का बोध बचा हुआ है। उसके उलट महानगरों में लगभग सामूहिकता का लोप हो चुका है। इस कारण से ही महानगरों में पलने और पढ़ने वाली पीढ़ी के लिए त्योहारों का महत्व धीरे-धीरे कम होता जा रहा है। त्योहार अब उत्सव से ज्यादा ‘इवेंट’ में तब्दील हो रहे हैं। ऐसे समय उन त्योहारों को फिर से याद करना समय के चक्र के साथ बचपन में लौटने जैसा है। हम लोग बचपन में जिस त्योहार क...