Tag: बरसात

झोला भर बचपन

झोला भर बचपन

संस्मरण
हम याद करते हैं पहाड़ को… या हमारे भीतर बसा पहाड़ हमें पुकारता है बार-बार? नराई दोनों को लगती है न! तो मुझे भी जब तब ‘समझता’ है पहाड़ … बाटुइ लगाता है…. और फिर अनेक असम्बद्ध से दृश्य-बिम्ब उभरने लगते हैं आँखों में… उन्हीं बिम्बों में बचपन को खोजती मैं फिर-फिर पहुँच जाती हूँ अपने पहाड़… रेखा उप्रेती दिल्ली विश्वविद्यालय, इन्द्रप्रस्थ कॉलेज के हिंदी विभाग में बतौर एसोसिएट प्रोफेसर के पद पर कार्यरत हैं. हम यहां पर अपने पाठकों के लिए रेखा उप्रेती द्वारा लिखित ‘बाटुइ’ लगाता है पहाड़ नाम की पूरी सीरिज प्रकाशित कर रहे हैं… आज प्रस्तुत है उनकी 15वीं किस्त ... ‘बाटुइ’ लगाता है पहाड़, भाग—15 रेखा उप्रेती अभाव किसे कहते हैं हम नहीं जानते थे. जो था उसी को जानते और उसके होने से भरा-पूरा था अपना बचपन. भौतिक संसाधनों से शून्य, सुविधाओं की दृष्टि से महा विपन्न लेकिन प्रकृति की अनमोल नेमतों और प...
सौण कम न भादौ

सौण कम न भादौ

संस्मरण
मेरे हिस्से और पहाड़ के किस्से भाग—24 प्रकाश उप्रेती आज बात- बरसात, रात, सूखा, 'गोल्देराणी' पूजना और पहाड़ की. पहाड़ में बरसात के दिन किसी आफ़त से और रातें आपदा से कम नहीं होती थीं. चौमास में 'झड़' (कई दिनों तक लगातार बारिश का होना) पड़ जाते थे तो वहीं बे-मौसम बारिश सबकुछ बहा ले जाती थी. ईजा कहती थीं कि- "सौण कम न भादौ". बारिश होना, न होना दोनों पहाड़ की नियति में है और दोनों के अपने उपाय भी... ईजा बारिश के दिनों में परेशान हो जाती थीं. एक तो 'गुठ्यार में कच्यार' (गाय-भैंस को बांधने वाली जगह में कीचड़) और दूसरा 'भ्योव' (जंगल) 'खसखस' (फिसलन भरे) हो जाते थे. दिनभर घर पर बैठना भी ईजा को ठीक नहीं लगता था. हम सब तो अंगीठी में 'मुन' (पेड़ों की जड़) लगाकर आग 'तापते' रहते थे. आग से फुर्सत मिलते ही रजाई ओढ़ के बैठ जाते और कुछ न कुछ खेलना या अम्मा से किस्से सुनते रहते थे. ईजा कभी भैंस, कभी पानी, कभी ...
मुआवजा

मुआवजा

किस्से-कहानियां
एम. जोशी हिमानी भादों के पन्द्रह दिन बीत गये हैं बारिश है कि रूकने का नाम ही नहीं ले रही है, जयंती अपने छज्जे से चारों तरफ देखने की असफल कोशिश करती है। उसके घर की तीनों तरफ की पहाड़ियां घने सफेद कोहरे से पूरी तरह से ढकी हैं, समझ में नहीं आ रहा कहां तक कोहरा जा रहा है कहां से बादलों की सीमा रेखा शुरू हो रही है, धरती आसमान सब एक से लग रहे हैं। जयंती एक अनजाने भय से रात भर सो नहीं पाती उसे लगता है इतनी ही बारिश यदि होती रही तो यह भी हो सकता है कि उसके घर के पीछे की पहाड़ी किसी दिन नीचे खिसक आये और वह यह धुंधली कोहरे भरी सुबह भी न देख पाये। पहाड़ों से भगवान भी इधर कई वर्षों से बुरी तरह नाराज चल रहे हैं इसीलिए तो वे हर बरसात में जिस तरह से बरसते हैं लगता है कि वे पूरे पहाड़ों को ढहाकर नीचे मैदानों के साथ मिला देंगे। पिछली बरसात की अमावस की रात जयंती को अभी भी बुरी तरह से खौफजदा कर देती है प...