मुआवजा

  • एम. जोशी हिमानी

भादों के पन्द्रह दिन बीत गये हैं बारिश है कि रूकने का नाम ही नहीं ले रही है, जयंती अपने छज्जे से चारों तरफ देखने की असफल कोशिश करती है। उसके घर की तीनों तरफ की पहाड़ियां घने सफेद कोहरे से पूरी तरह से ढकी हैं, समझ में नहीं आ रहा कहां तक कोहरा जा रहा है कहां से बादलों की सीमा रेखा शुरू हो रही है, धरती आसमान सब एक से लग रहे हैं।

जयंती एक अनजाने भय से रात भर सो नहीं पाती उसे लगता है इतनी ही बारिश यदि होती रही तो यह भी हो सकता है कि उसके घर के पीछे की पहाड़ी किसी दिन नीचे खिसक आये और वह यह धुंधली कोहरे भरी सुबह भी न देख पाये। पहाड़ों से भगवान भी इधर कई वर्षों से बुरी तरह नाराज चल रहे हैं इसीलिए तो वे हर बरसात में जिस तरह से बरसते हैं लगता है कि वे पूरे पहाड़ों को ढहाकर नीचे मैदानों के साथ मिला देंगे। पिछली बरसात की अमावस की रात जयंती को अभी भी बुरी तरह से खौफजदा कर देती है पल्ली तरफ के उसके एकमात्र उपजाऊ खेतों को ऊपर की कच्ची पहाड़ी से भयानक रूप से खिसक आई चट्टानों, मलबे ने पूरी तरह से दाब कर रख दिया था। उस रात घनघोर बारिश के बीच जो प्रलयकालीन घड़घड़ाहट का शोर हुआ था, उसे लगा था कि सब कुछ उसके मकान के ऊपर आ रहा है चंद मिनटों में उसका पूरा परिवार उसके नीचे जिंदा दफन हो जायेगा वह उस काली रात में अपनी बेटी ओर नशे में बेसुध पति को लेकर बाहर भागने की स्थिति में भी नहीं थी। किधर को भागती चारों तरफ प्रकृति का ताडंव, यदि खुद बच भी जाती तो गोष्ठ में पले जानवरों को कहां ले जाती, उस अंधियारी काली रात में, जो पशु उसके जीवन का आधार थे, इसलिए वह चुपचाप मौत का इंतजार करती रही थी।

सांकेतिक तस्वीर। फोटो गूगल से साभार

सुबह जब थोड़ी बारिश हल्की हुई और उसे लगा कि मौत उसके पास तक नहीं पहुंच पाई है, उसने धुंधलके में बाहर निकलकर टोह लेने की कोशिश की कि आखिर रात में ब्रजपात सी घड़घड़ाहट कहां हुई थी।

जयंती को आधी मौत उसी समय आ गई थी जब उसे दूर से अपने धान के लहलहाते खेतों का नामोनिशान नजर नहीं आया था। कीचड़, मलबे, बड़ी-बड़ी शिलाओं, विशाल टूटे वृक्षों के अलावा वहां कुछ नजर नहीं आ रहा था। जयंती पल भर में समझ गई थी कि कल रात क्या हुआ था। भगवान ने भले ही उसका घर बचा दिया था परन्तु उसके जिंदा रहने का जरिया खत्म कर दिया था एक झटके में।

‘‘कितनी बार कहा है तुझसे इस जंगल में इस अकेले घर में मैं अपने छोटे-छोटे बच्चों के साथ नहीं रह सकती, कहीं और ठिकाना बना हमारे लिए। मैं रोड में मजदूरी कर भी अपने बच्चों का पेट भर लूंगी लेकिन रहूंगी किसी इंसानी बस्ती के पास, मेरे दोनों बच्चे इस जंगल में वनमानुष जैसे बनते जा रहे हैं।’’

वह दहाड़ मारकर चीख पड़ी थी जैसे कोई अपना अचानक खत्म हो गया हो। उसका पति खड़क सिंह जयंती की चीख सुनकर कच्चे ठर्रा की खुमारी तोड़कर उठ बैठा था- ‘‘क्यों फुक्का फाड़ रही है सुबह-सुबह कौन मर गया तेरा….’’

खड़क सिंह अपनी प्यारी नींद में आये खलल से चिल्ला उठा था।

‘‘सब मरेंगे एक दिन, जिंदा केवल तू ही रहेगा। तू तो ठरी पीकर जी जायेगा, मेरे जीने के लिए कुछ नहीं बचा अब….’’

जयंती दहाड़ मारकर रोने लगी थी, ‘‘कितनी बार कहा है तुझसे इस जंगल में इस अकेले घर में मैं अपने छोटे-छोटे बच्चों के साथ नहीं रह सकती, कहीं और ठिकाना बना हमारे लिए। मैं रोड में मजदूरी कर भी अपने बच्चों का पेट भर लूंगी लेकिन रहूंगी किसी इंसानी बस्ती के पास, मेरे दोनों बच्चे इस जंगल में वनमानुष जैसे बनते जा रहे हैं।’’

मैदान, नदियां, समुंदर, हवाई जहाज क्या नहीं देखा था उसने किताबों में। किताबों में देखी, पढ़ी वह दुनियां सपनों सी को वह अपनी इस एकांत, कठोर दुनिया में कहां भुला पाई थी, अपनी नन्हीं आशा को वह किताबों में देखी गुड़िया जैसी बनाने का सपना देखा करती थी।

जयंती जी भरकर पति को कोसने लगती है, जयंती ने आज उनतीस साल की उम्र तक भले ही तीस मील दूर अपने मैके बांस बगड़ से लेकर जंगल में बसी बाराबीसी की अपनी ससुराल के बाहर की दुनियां नहीं देखी है तो क्या, सातवीं तक की अपनी कक्षा की किताबों में उसने बहुत बड़ी दुनियां देखी थी, अजगर की तरह रेंगती रेलगाड़ी के दर्शन उसे किताबों में ही हुये थे। छोटे-छोटे बालों वाली सुंदर फ्राक पहने हाथ में अपनी जैसी गुड़िया लिये कितनी ही लड़कियों को उसने किताबों में ही देखा था। मैदान, नदियां, समुंदर, हवाई जहाज क्या नहीं देखा था उसने किताबों में। किताबों में देखी, पढ़ी वह दुनियां सपनों सी को वह अपनी इस एकांत, कठोर दुनिया में कहां भुला पाई थी, अपनी नन्हीं आशा को वह किताबों में देखी गुड़िया जैसी बनाने का सपना देखा करती थी।

‘‘हां अपने पुरखों की जायदाद छोड़कर शहर में महल बनाता हूं अपनी महारानी के लिए, यहां तो बनवास भोग रही हैं ना हमारी रानी….’’

खड़क सिंह लड़खड़ाती जबान में जयंती पर तंज की लाठी पीटता है।

जयंती रोज की तरह आज भी अपने भाग को कोसती है, विधाता ने कैसा करम लिखा उसका। वह अपने मां-बाप को कोसने लगती है उन्होंने विवाह के लिए न खुद आकर लड़का देखा न जहां बेटी दे रहे हैं वह जगह देखी, किसी रिश्तेदार की बातों पर पूरा विश्वास कर जयंती को इस ठर्रेबाज के साथ ब्याह दिया।

जयंती ब्याहकर आई थी तो रिश्तेदार की कही बातों में से चालीस प्रतिशत तो लगभग सही ही निकली थीं परन्तु वह बड़े से गांव में सहेलियों, भाभियों, चाचियों, ताइयों के बीच पली लड़की इस जंगल के बीच में बसे अकेले घर में सहमकर रह गई थी

उस रिश्तेदार ने तारीफों की झड़ी लगा दी थी जयंती के मां-बाप के आगे लड़का तो जानो सोने की खान है। रूप ऐसा कि सर्ग के देवता भी शरमा जायें। चारों तरफ लहलहाते धान के भण्डार भरते खेत, नारंगी, माल्टा, अखरोट, नाशपाती, आडू के बड़े-बड़े बागान, घर के ऊपर तेजधार मारता झरना।

सांकेतिक तस्वीर। फोटो गूगल से साभार

जयंती ब्याहकर आई थी तो रिश्तेदार की कही बातों में से चालीस प्रतिशत तो लगभग सही ही निकली थीं परन्तु वह बड़े से गांव में सहेलियों, भाभियों, चाचियों, ताइयों के बीच पली लड़की इस जंगल के बीच में बसे अकेले घर में सहमकर रह गई थी। मात्र बूढ़े सास-ससुर उसके साथ थे। चारों ननदें अपने-अपने घर की हो गई थीं, एक जेठ जेठानी दूर दिल्ली में जाकर छोटी-मोटी नौकरी कर वहीं बस गये थे।

जयंती समझदार थी, वह सही वक्त का इंतजार करने लगी थी, खड़क सिंह भी नौकरी करने लगेगा तो वह भी कौन इस जंगल में रहेगी। कुछ साल किसी तरह काट लेगी फिर वह भी किसी अच्छी जगह रहने लगेगी और अपने राजकुमार अजय व राजकुमारी आशा को इस जंगल से बहुत दूर किसी शहर में ले जायेगी, उनको पढ़ा-लिखकर बड़ा आदमी बनायेगी।

खेत दब जाने के कुछ दिनों बाद खड़क सिंह नशे में झूमता खुशी से उछलता घर पहुंचा था-‘‘जैन्ती ओ जैन्ती! एक खुशी की बात बताता हूं तुझे…..

जयन्ती अनसुना कर चुपचाप मंदिर में धूप बत्ती करने लगी थी, एक गोलज्यू ही तो उसका सहारा हैं इसलिए वह महीने के तेईस-चैबीस दिन नियम से घर के भीतर एक कोने में पुरखों के जमाने से थापे गये गोलज्यू की चैकी में दिया जलाकर प्रार्थना करती है-‘‘हे गोलज्यू मेरे इन नन्हें छौनों और मेरे सुहाग की रक्षा करना। इस जंगल के अलावा हमारा कोई ठिकाना नहीं। तुम्हीं हमारा आसरा हो….’’

गोलज्यू ने हमेशा उसकी पुकार सुनी थी वरना शाम ढलते ही गुलदार, चीता, बाघ जैसे जानवर घर के बिल्कुल नजदीक पहुंच जाते थे उसकी देहरी पर बंधे कितने ही कुत्तों को वे अपना निवाला बना चुके थे।

‘‘मैं जानता हूं जैन्ती तू मुझसे खुश नहीं रहती है पर कौन साला सुख में पीता है मैं अपना गम भुलाने को पीता हूं। दस तक तो मैं भी पढ़ा था पर क्या करूं जिंनगी में कुछ कर ही नहीं पाया। एक चक्कर लखनऊ, कानपुर, बनारस कहां कहां लगा आया, स्साला जूठे बर्तन धोने के अलावा नौकरी का कोई जुगाड़ ही नहीं बैठा, मैं बर्तन धोने के लिए तो पैदा नहीं हुआ हूं इसलिए अपना बिजनेस कर चार पैसा कमा रहा हूं…..’’

जयंती अपने बच्चों के लिए हमेशा डरी रहती थी, शाम के बाद वह उनको बाहर नहीं निकलने देती थी, न खुद जाती थी, जानवरों का क्या भरोसा। कितनी बार सुनने में आता था घर के बाहर अंधेरे में पेशाब करने गये लोगों को बाघ ने जानवर समझ मार दिया था। खड़क सिंह जब तक झूमता लहराता घर न पहंुच जाता वह उसके लिए भी डरी रहती थी। एक बड़े से लोहे के पुराने तसले में राख, भूसी डालकर वह कमरे के एक कोने में रखी रहती थी, रात के लिए वही सबके बाथरूम का काम करता था।

खड़क सिंह उसको खुश करने को बेताब था-‘‘अरी मेरे बच्चों की अम्मा, कभी खुश भी हो जाया कर। कितनी खुशी की खबर देने के लिए तेरा इंतजार कर रहा हूं और तू है कि मुझे मंुह ही नहीं लगा रही…………….’’

छज्जे पर बैठा, ठर्रे की बास छोड़ता खड़क सिंह बोला था।

‘‘तुमको इस रूप में देखकर मैं हर शाम खुशी के मारे झूमने लगती हूं, आज खुश क्यों न हूंगी, आज क्या न्यारी बात हो गई…..

जयंती तंज में बोली थी।

‘‘मैं जानता हूं जैन्ती तू मुझसे खुश नहीं रहती है पर कौन साला सुख में पीता है मैं अपना गम भुलाने को पीता हूं। दस तक तो मैं भी पढ़ा था पर क्या करूं जिंनगी में कुछ कर ही नहीं पाया। एक चक्कर लखनऊ, कानपुर, बनारस कहां कहां लगा आया, स्साला जूठे बर्तन धोने के अलावा नौकरी का कोई जुगाड़ ही नहीं बैठा, मैं बर्तन धोने के लिए तो पैदा नहीं हुआ हूं इसलिए अपना बिजनेस कर चार पैसा कमा रहा हूं…..’’

‘‘थू तेरे इस पैसे को। जब तक तू बेकार था कम से कम तेरा यह हाल तो नहीं था, मेरे साथ खेतों में काम करता था अब तो तू किसी काम का नहीं रहा। दिन पर दिन नामर्द बनता जा रहा है……’’

बरसात के दिनों में पहाड़ में कुछ तरह सड़कें अवरुद्ध हो जाती हैं. फोटो गूगल से साभार

दोनों पति-पत्नी में भयंकर वाकयुद्ध शुरू हो गया था।

जयंती अपने पति के बिजनेस को अच्छी तरह जानती है, मड़ुवे को सड़ाकर उससे कच्ची शराब बनाकर बेचने लगा था वह। उसके साथ उसके जैसे नीचे के गांवों के कई लफाड़े जुड़ गये थे।

वह कच्ची शराब बनाने बेचने के साथ खुद भी उसका बुरी तरह आदी हो गया था। इस कच्ची शराब बनाने के बिजनेस ने जयंती के सपनों के द्वार पर ताला जड़ दिया था।

‘‘पगली तू नाहक ही चिंता करती है, मलबे में दबे खेतों की चिंता में खुद को घुलाये जा रही है, मैंने पटवारी जी से बात कर ली है वे बता रहे थे पूरी बरसात खत्म हो जाने के बाद सरकार द्वारा पूरे पहाड़ी जिलों की नाप जोख की जायेगी कि कहां कहां कितना नुकसान बरसात ने किया है। हमारे दबे खेतों का सरकार लाखों में मुआवजा देगी। अच्छा हुआ खेत दब गये। लाखों उस खेत से हम जिंनगी भर न कमा पाते…….’’

रोज अंधेरा होते ही बेसुध नींद में खर्राटे मारने वाला खड़क सिंह खुशी के मारे सो नहीं पा रहा था, जैसे ही बच्चों को सुलाकर जयन्ती बिस्तर में पसरी थी खड़क सिंह ने उसे अपनी बाहों में समेट लिया था। जयंती सारा गुस्सा थूककर उसके सीने से लगकर सिसकने लगी थी, खड़क सिंह कितने महीनों बाद उसको हौले-हौले सहला रहा था। कमरे में फैले घुप्प अंधेरे में सिर से पैर तक टटोल-टटोल कर उसने चुंबनों की बौछार कर दी थी, उस समय जयंती को ठर्रे की भभक भी बहुत बुरी नहीं लग रही थी।

सारा आवेग शांत हो जाने के बाद वह जयंती के कान में फुसफुसाया था-‘‘पगली तू नाहक ही चिंता करती है, मलबे में दबे खेतों की चिंता में खुद को घुलाये जा रही है, मैंने पटवारी जी से बात कर ली है वे बता रहे थे पूरी बरसात खत्म हो जाने के बाद सरकार द्वारा पूरे पहाड़ी जिलों की नाप जोख की जायेगी कि कहां कहां कितना नुकसान बरसात ने किया है। हमारे दबे खेतों का सरकार लाखों में मुआवजा देगी। अच्छा हुआ खेत दब गये। लाखों उस खेत से हम जिंनगी भर न कमा पाते…….’’

जयंती खुशी के मारे दोबारा खड़क की बाहों में सिमट गई थी।

उस रात के बाद महीनों उन दोनों के बीच कोई झगड़ा नहीं हुआ था जयंती ने भी भविष्य की चिंता करना छोड़ दिया था। वह सपने देखने लगी थी लाख रूपया भी यदि सरकार ने दे दिया तो नजदीक के शहर में रहने चली जायेगी। खड़क को भी इस बुरे बिजनेस से दूर करेगी, वहां वह कोई भी छोटा मोटा काम कर लेगा। उसकी जेठानी ने कभी उससे कहा था–‘‘जयंती तेरे हाथ में गजब का स्वाद है तू केवल नून मिर्च डालकर भी कितना स्वादिष्ट खाना बनाती है….’’

सांकेतिक तस्वीर। फोटो गूगल से साभार

जेठानी ने बताया था शहर की औरतें बहुत आलसी होती हैं वे रोज का खाना बनाने के लिए भी नौकर रखती हैं।

वह सोचती वह शहर में जाकर चुपचाप घरों में खाना बनाने का काम करने लगेगी। कौन देखने आयेगा वहां मैं क्या कर रही हूं।

पूरा जाड़ा उन्होंने आसा-आसा में काटा था कि जल्द ही जमीन की पैमाइश होगी और उनको मुआवजा मिलेगा। उनकी गरीबी दूर करने के लिए ही शायद उस रात पीछे का पहाड़ थर्राया था।

उस रात खड़क सिंह लुटा-पिटा सा थर्राता हुआ बिना ठर्रा पिये घर आया था और अपने पुरखों को कोस रहा था-‘‘सब स्साले झूठ बोलते रहे यह जमीन हमारी है, आज पटवारी जी ने सारी खसरा खतौनी निकालकर दिखा दी मुझे कि दबी हुई जमीन पर दाखिल खारिज में हमारे बाप-दादा, परदादा किसी का नाम ही नहीं है, जमीन जंगलात विभाग की थी, जिस पर हमारे पुरखे केवल खेती कर रहे थे उनका मालिकाना थोड़ी था उस पर।

सुबह दोनों पति-पत्नी गठरियां तैयार कर रहे थे मैदान की तरफ पलायन करने के लिए। आज एक और घर पर ताला लग रहा था। आज एक और गांव अपनी तन्हाई पर रोने के लिए विवश हो गया था।

स्साले सबके सब इतने चूतिया थे कि किसी ने उसे अपने नाम पर कराया ही नहीं, पटवारी जी कह रहे थे उस जमाने में खेल खेल में उनके नाम पर हो जाती वह जमीन। अब कुछ नहीं हो सकता, अब तो जंगलात की जमीन पर कब्जा करने पर जेल भी हो सकती है…..’’

सुबह दोनों पति-पत्नी गठरियां तैयार कर रहे थे मैदान की तरफ पलायन करने के लिए। आज एक और घर पर ताला लग रहा था। आज एक और गांव अपनी तन्हाई पर रोने के लिए विवश हो गया था।

 (लेखिका पूर्व संपादक/पूर्व सहायक निदेशक— सूचना एवं जन संपर्क विभाग, उ.प्र., लखनऊ. देश की विभिन्न नामचीन पत्र/पत्रिकाओं में समय-समय पर अनेक कहानियाँ/कवितायें प्रकाशित. कहानी संग्रह-‘पिनड्राप साइलेंस’ व ‘ट्यूलिप के फूल’, उपन्यास-‘हंसा आएगी जरूर’, कविता संग्रह-‘कसक’ प्रकाशित)

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