दीपावली पर विशेष
डॉ. विभा खरे
जी-9, सूर्यपुरम्, नन्दनपुरा, झाँसी-284003
दीपावली का उत्सव कब से मनाया जाता है? इस प्रश्न का कोई निश्चित उत्तर पौराणिक और ऐतिहासिक ग्रंथों में नहीं मिलता हैं, लेकिन अनादि काल से भारत में कार्तिक दीपावली के उत्सव को मनाने की परम्परा हैं. कई पुरा-कथाएँ, जो नीचे उल्लिखित हैं, इस उत्सव को मनाने की पुरातन परम्परा पर प्रकाश डालती हैं, जिनसे विदित होता हैं कि सत्य-युग से इस उत्सव को मनाने का प्रचलन रहा हैं.
मास की अमावस्या के दिनभगवान विष्णु द्वारा बलि पर विजय
दैत्यों को पराजित करने के उद्देश्य से वामन रूपधारी भगवान विष्णु ने जब दैत्यराज बलि से सम्पूर्ण धरती लेकर उसे पाताल लोक जाने को विवश किया तथा उसे वर माँगने के लिये कहा, तब दैत्यराज बलि ने भगवान विष्णु से वर माँगा कि प्रतिवर्ष धरती पर उसका राज्य तीन दिनों तक रहे तथा देवी लक्ष्मी उसके साथ हो, जिसे
भगवान विष्णु ने स्वीकार किया. दैत्यराज बलि को समर्पित ये तीन दिन हैं – कार्तिक कृष्ण चतुर्दशी, अमावस्या एवं शुक्ल प्रतिपदा. इन तीन दिनों पर प्रति वर्ष दैत्यराज बलि देवी लक्ष्मी के साथ पृथ्वी पर आते हैं. जो व्यक्ति इन तीन दिनों में अपने घरों में दीप जलाकर प्रकाश करते हैं, देवी लक्ष्मी सदैव उनके यहाँ निवास करती हैं. – (स्कंदपुराण, विष्णु खण्ड)भगवान राम द्वारा रावण पर विजय
रामायण में वर्णित कथा के अनुसार लंका नरेश रावण पर विजय प्राप्त कर भगवान राम लक्ष्मणएवं सीता सहित जब अयोध्या लौटे, तब जन-समुदाय ने उनके स्वागतार्थ दीप जलाकर
आनंदोत्सव मनाया तथा सरयू नदी में असंख्य दिये जलाकर उन्हें पानी पर तिराया तथा अमावस्या के दिन पूर्णिमा का प्रकाश फैल गया. तभी से रावण पर राम या असद् पर सद् की विजय के स्मृति-दिवस के रूप में प्रतिवर्ष दीपावली का पर्व मनाया जाता हैं.भगवान श्रीकृष्ण द्वारा नरकासुर पर विजय
महाभारत में उल्लिखित कथा के अनुसार भगवान
श्रीकृष्ण ने नरकासुर नामक अत्याचारी राजा का वध करके, उसके कारागार से सहस्रों राजकुल की स्त्रियों और राजाओं को मुक्ति दिलाई. इस मुक्ति के उपलक्ष्य में उन्होंनें दीपों से अपने-अपने नगरों को प्रकाशित कर मुक्ति दिवस मनाया.भगवती महाकाली द्वारा असुरों पर विजय
जब तीनों लोकों में क्रूर असुरों के अत्याचारों से त्राहि-त्राहि मच गई, तब सभी देवी-देवताओं ने अपनी-अपनी शक्ति का थोड़ा-थोड़ा अंश देकर भगवाती महाकाली के रौद्र स्वरूप की संरचना असुरों के संहारार्थ कर, माँ जगदम्बा को प्रसन्न करने के लिए जन-जन ने उनकी आराधना में दीप जलाये, तोरण बाँधे, रंगोली रची एवं स्तुति-गान किया
जथा इस प्रकार माँ जगदम्बा की उपासना में नौ दिन व्रूतीत हो गये. इन्हीं नौ दिन की स्मृति मे नवरात्रि के उत्सव को मनाने की परम्परा प्रचलित हुई. विजय-दशमी के दिन माँ जगदम्बा ने युद्ध का प्रारम्भ किया तथा दिवाली के दिन विजय प्राप्त की. महामाया की कृपा से उपकृत देवों और मानवों ने भगवती के अभिनंदनार्थ असंख्य दीप जलाये.उपरोक्त पुरा-कथाओं के अतिरिक्त
निम्नांकित ऐतिहासिक प्रसंग तथा उल्लेख दीपावली मनाने की परम्परा की पुरातनता प्रदर्शित करते हैं –भगवान महावीर का निर्वाण दिवस
ई. सन् के 600 वर्ष पूर्व जैन धर्म के प्रवर्तक तीर्थंकर महावीर ने बिहार के पावापुरी में कार्तिक अमावस्या को निर्वाण प्राप्त किया था. निर्वाण के समय में अपने शिष्यों को उपदेश देते हुए,
उन्होंने कहा थाा कि जीवन और मृत्यु एक ही चक्र के दो बिन्दु हैं. अतः आज मेरे निर्वाण के दीन दीप प्रज्ज्वलित कर प्रार्थना करो. यह पुण्य दिन दीपावली का था, अतः जैन धर्मवलम्बी भी दीपावली का उत्सव उत्साहपूर्वक मनाते हैं.राजा विक्रमादित्य की विजय की स्मृति में विक्रम संवत का प्रचलन
राजा विक्रमादित्य ने आक्रमणकारी हूणों को पराजित कर, उन्हें हिमालय के दूसरी ओर खदेड़ दिया था. इस महान विजय को भारतवासियों ने शानदार ढंग से दीपमालाएँ सजाकर
मनाया था तथा राजा विक्रमादित्य की स्मृति में विक्रम संवत का शुभ श्रीगणेश किया. विक्रम संवत को मनाने वाले कार्तिक कृष्ण अमावस्या को वर्ष का अंतिम दिन और कार्तिक शुक्ल प्रतिपदा को नये वर्ष का प्रथम दिवस मानते हैं. दीपोत्सव पर्व ने विक्रम संवत की बिदाई के समारोह का रूप धारण कर लिया हैं तथा कार्तिक शुक्ल प्रतिपदा को नव वर्ष का प्रथम दिन मान उस दिन परस्पर शुभ-कामनाओं का आदान-प्रदान होता हैं.सिखों के गुरू हरगोविंद सिंह का मुक्ति दिवस
मुगल सम्राट जहाँगीर ने सिखों के छठे गुरू हरगोविंद सिंह एवं उनके बावन समर्थकों को कैद किया था. इन सबको दीपावली के शुभ दिन कारागृह से मुक्त किया गया, अतः इस मुक्ति दिवस को अमृतसर के स्वर्ण मंदिर को दीपों से प्रकाशित किया गया था. तब से सिख धर्मावलम्बी प्रतिवर्ष दीपावली के दिन ही यह मुक्ति दिवस दीपमालाएँ सजाकर मनाते हैं.
स्वामी दयानंद सरस्वती का समाधि-दिवस
आर्य समाज के प्रणेता स्वामी दयानंद
सरस्वती ने सन् 1883 के 30 अक्टूबर को दीपावली के दिन अपने शिष्यों द्वारा दिये जलाकर गायत्री-मंत्र जपते-जपते अनंत समाधि ली थी.रामायण एवं महाभारत के अतिरिक्त अनेक
प्राचीन ग्रथों तथा यात्रियों के भारत-यात्रा वृत्तंतों में दीपावली मनाने का उल्लेख मिलता हैं.राजमार्तण्ड
सम्राट हर्षवर्द्धन (7वीं शताब्दी) ने
अपने द्वारा रचित ग्रंथ “राजमार्तण्ड” में दीपावली की रात्रि को “सुख रात्रि” कहकर प्रशंसा की हैं. सम्राट हर्षवर्द्धन दीपावली का उत्सव बड़े ठाट-बाट से मनाते थे और नव-विवाहितों को सोने-चाँदी के उपहार देते थे.अल बरूनी का यात्रा-वृत्तांत
महमूद गजनी (ई. सन् 977-1030) के
शाही इतिहासकार अलबरूनी ने दीपावली का वर्णन किया हैं . उसने लिखा हैं कि जब सूर्य तुला राशि में प्रवेश करता हैं, तब हिन्दू यह उत्सव मनाते हैं. उसने बलि प्रतिपदा का जिक्र करते हुए लिखा हैं कि हिन्दुओं की मान्यता हैं कि इस शुभ दिन बलि राजा पाताल लोक से पृथ्वी पर आकर उदारतापूर्वक दान करते हैं. रात में रोशनी करते हैं और लक्ष्मी की पूजा भी करते हैं.संत ज्ञानेश्वर रचित “ज्ञानेश्वरी”
संत ज्ञानेश्वर द्वारा ई. सन् 1290 में
रचित गं्रथराज “ज्ञानेश्वरी” में दीपावली के उत्सव का उल्लेख किया गया हैं.गोस्वामी तुलसीदास रचित “गीतावली”
गोस्वामी तुलसीदास ने दीपमालिकाओं से शोभित अयोध्या का वर्णन इस प्रकार किया हैं –
सांझ समय रघुवीर पुरी की
सोभा आज बनी ललति दीपमालिका बिलोकहिं हित करि अवध धनी फटिक-भीत-सिखरन पर राजति कंचन-दीप-अनी जनु अहिनाथ मिलन आयो मनि-सोभित सहसफनी.(भावार्थ: आज सायंकाल में
रघुनाथजी की राजधानी की खूब शोभा हो रही हैं. अयोध्यानाथ रामचंद्रजी प्रीतिपूर्वक मनोहर दीपमालिका देख रहे हैं. स्फटिक मणि की भीतों के ऊपर सुवर्णमय दीपकों की पंक्ति ऐसी शोभायमान है मानो रघुनाथजी से मिलने के लिये मणि भूषित सहस्र फणधारी शेषजी आये हों- गीतावली, उत्तरकांड, पद 20)आईने-अकबरी
सम्राट अकबरी के नव-रत्नों में से एक थे अबुल फजल. इनके द्वारा लिखित ग्रंथ– “आइने-अकबरी” (ई, सन् 1590) में दीपावली उत्सव का वर्णन हैं. अबुल फजल ने लिखा हैं कि
“दीवाली विष्णु का पर्व हैं और मुसलमान भी इसमें सम्मिलित होते हैं”. उनके लिखे अनुसार सम्राट अकबर भी उत्साह से इस उत्सव में शामिल होते थे तथा इस दिन अकबर के दौलतखाने पर 40 गज का दीप-स्तम्भ बनाया जाता था और इसके शीर्ष पर विशाल दीपक जलाया जाता था, जिसे आकाश-दीप कहा जाता था.भारतेन्दु ग्रंथावलि
हिंदी के युगपुरूष साहित्कार बाबू भारतेन्दु हरिश्चन्द्र (ई. सन् 1850-85) ने अपने एक पद में दिव्य ज्योति की अवली का वर्णन निम्नवत किया हैं-
दीपति दिव्य
मनु तम नाश करन को प्रगटी कश्यप सुत वंशावली..
विगत भाई सब रैन कालिमा, सोभा लागत हैं भली.
“हरिचंद्र” मनु रतनरासिकी, उज्जवल ज्योति की अवली..
दीपावली भारतीयों का एक सर्वमान्य प्रमुखतम उत्सव
उपरोक्त पुरा-कथाओं और ऐतिहासिक सन्दर्भों एवं साक्ष्यों के आधार पर यह निश्चयपूर्वक कहा जा सकता हैं कि ज्योति पर्व दीपावली भारतीयों का एक सर्वमान्य प्रमुखतम उत्सव शताब्दियों से चला आ रहा हैं. वस्तुतः दीपावली का त्यौहार पाँच उत्सवों का समुच्चय हैं. कार्तिक कृष्ण त्रयोदशी से कार्तिक शुक्ल द्वितीया तक क्रमशः धनतेरस, नरक चतुर्दशी, लक्ष्मी-पूजन, बलि प्रतिपदा और विक्रम संवत, जो कार्तिक शुक्ल प्रतिपदा से कार्तिक कृष्ण अमावस्या तक एक वर्ष मनाते हैं, का नव वर्ष का प्रथम दिवस एवं भैया दूज के नाम से मनाये जाते हैं. प्रत्येक दिन की अपनी विशिष्ट महत्त हैं तथा हैं प्रतीकात्मक विशेषता.
धनतेरस आयुर्वेद के प्रवर्तक धन्वन्तरि की जयन्ती
धनतेरस आयुर्वेद के प्रवर्तक धन्वन्तरि की जयन्ती के रूप में मनाई जाती हैं. नरकासुर का संहार भगवान श्रीकृष्ण द्वारा सहस्रों राजकुल की स्त्रियों और राजाओं को कार्तिक कृष्ण चतुर्दशी को मुक्त किया था तथा उसे मुक्ति दिवस की स्मृति में “नरक चतुर्दशी” का पर्व मनाया जाता हैं, जिसे छोटी दीवाली भी कहते हैं.
कार्तिक कृष्ण अमावस्या लक्ष्मी-पूजन तथा दीपमालाएँ सजाने का प्रकाश को समर्पित मुख्य पर्व हैं.कार्तिक शुक्ल प्रतिपदा को बलि प्रतिपदा भी कहते हैं तथा यह दिन दानवीर दैत्यराज बलि की पूजा का दिन माना जाता हैं. जो लोग विक्रम संवत का प्रारम्भ कार्तिक शुक्ल प्रतिपदा से मानते हैं, वे इसे नव वर्ष के प्रथम दिवस के रूप में मनाते हैं. वैष्णव सम्प्रदाय के मंदिरों में इस दिन अत्रकूट का उत्सव मनाया जाता हैं तथा गोवर्धन-पूजा की जाती हैं. कार्तिक शुक्ल द्वितीया भैयादूज के नाम से मनायी जाती हैं तथा यह दिन भाई-बहन के स्नेह-प्रदर्शन का दिवस माना जाता हैं. इस दिन को यम द्वितीया भी कहते हैं.
प्रतीकात्मक हैं दीपावली का ज्योति पर्व
दीपावली का पर्व सम्मुचय आनंद-उल्लसास का पर्व हैं.
घर-आँगन को स्वच्छ कर उसमें दिये प्रज्ज्वलित कर, उन्हें सजाया जाता हैं. अमावस्या की घोर अंधेरी रात को दीपमलाओं से जगमग कर उसे पूर्णिमा कर दिया जाता हैं. दीपावली का यह ज्योति पर्व प्रतीकात्मक हैं, जो हमें यह संदेश देता हैं कि सद् विचारों के प्रकाश से अंतर के तिमिर को दूर करना चाहिये एवं परस्पर मैत्री एवं बंधुत्व भाव से हिलमिल कर आनन्दपूर्वक रहना चाहिये.