नदी द्वीप- माजुली और मलाई कोठानी

मंजू दिल से… भाग-23

  • मंजू काला

एकांत कभी-कभी सबसेअच्छा समयहोता है. जान मिल्टन, इन पैराडाइज़ लास्ट

मिल्टन की उपरोक्त पंक्तियों को परिभाषित करती हैं जाड़ों की बोझिल और ठिठुररती शामें. इन ठिठुररती शामों के  दौरान मै बैठे-ठाले ही यात्राएँ करने लगती हूँ. असल में कुछ यात्राएँ हम रेल मार्ग से करते हैं, because कुछ सड़क मार्ग से, कुछ हवाई मार्ग से और कुछ स्मृति मार्ग से.  स्मृति के माध्यम से की जाने वाली यात्राओं का फायदा यह है कि इसके लिए कुछ खर्च नहीं करना पड़ता. सहुलियत रहती है, बस जब भी, और जहाँ भी एकांत उपलब्ध हो जाये वहीं से यात्राएँ शुरू हो सकती है. आज जब सांझ की बेला,  हाड़ कंपाती ठंडी में दांत बजाते हुए अपनी चादर समेटने की तैयारी कर रही थी कि तभी क्षितिज में डूबते  मटियाले और धुंधलाते सूरज दा ने प्यार से अपनी गर्माहट का लिहाफ मुझे ओढाया और ढकेल दिया   स्मृति की ट्रेन में. “कोर्निकल्स आफ नार्निया” (यह हालीवुड फिल्म एक उपन्यास पर आधारित है जिसे सी.एस. लेविस ने लिखा है.)  फिल्म की तरह.

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मेरा मानना है कि because स्मृतियाँ भी हमको यात्राएं कराती हैं.  मेरी जब सारी यात्राओं की समाप्ति हो जाती है, और  घर वापसी  होती है, तो यही  स्मृतियां ही मुझे गतिशील  बनाये रखती हैं… सच में.  इन्हीं के माध्यम से  मैं पूर्व में की गई यात्राओं को दोहराती हूँ.  इस बार भी एक यात्रा मैने दोहरायी, कैसे..?, तो आईये न.

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“कोर्निकल्स आफ नार्निया” because फिल्म की ही तरह स्मृति की ट्रेन ने मुझे-“जाओ.. मधूलिका.” कहकर एक अनोखे से जल द्वीप पर उतार दिया. मैने  अपनी दृष्टि घुमाई तो पाया कि इस द्वीप पर तो मेरे पहाड़ की ही तर्ज पर, हरे-भरे खेतों में हरियाली का उत्सव हो रहा हो  था. (उत्तराखण्ड में हरियाली का उत्सव हरेला  होता है) यहाँ सब कुछ हरियल था. हरे-भरे बांस, हरियल तोते, हरी-हरी  बेलें, यहाँ तक की नदी भी हरी थी. बड़ा चौड़ा पाट था उसका.

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आउनीआटी सत्र.

नदी की छाती को चीरती नावें भी हरे रंग के पाल का श्रंगार करे हुए इठला रही थीं. इस जल द्वीप  पर मुझे काजी और रंगा भी नजर आये. यहाँ मुझे  हरी चूनर ओढ़े गाँव भी नजर आ रहे थे. हरी चूनर इसलिए  क्योंकि  यहाँ  घरों की छतें भी खूबसूरत हरी बेलों से मढी हुई थीं, जिन पर लाल रंग के फूल मोती से टंके हुए थे. लोगों ने because झोपड़ियों के इर्द-गिर्द सुंदर क्यारियाँ भी बनी  रखी थी, जिनके चारों ओर बांस की लकड़ी से बंद बनाए गए थे. क्यारियों में सब्ज़ियाँ और फ़ूल बोए गए थे. टोकरियों में शाक-पात लेकर गृहस्वामी… बाजार हाट जा रहे थे और कुछ बच्चे छोटी-छोटी मछलियों को पकड़ कर हर्ष से किलकारियां मार रहे थे.

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ऐसा लग रहा था जैसे मैं अज्ञेय के “नदी द्वीप” को पार कराने वाली फैरी में बैठकर किसी दूसरी दुनिया में  आ गयी हूँ, जबकि मैं तो स्मृति की ट्रेन से आई थी… न.  यहाँ मुझे भारत के किसी ग्रामीण जीवन की एक अद्भुत झाँकी दिखाई दे रही थी. “कोमल शाउल धान” के खेतों में पेंपा की धुन भी सुनाई दे रही थी, शायद because कोई राहगीर अपनी प्रेयसी को छोड़कर वापस लौट रहा था. तालाबों में एक ओर तैरते हुए बतखों का झुंड था और दूसरी ओर तीस-पैंतीस आदिवासी महिलाओं का समूह, जो बांस की खपच्चियों से बनाए गए पारम्परिक जाल की मदद से मछलियाँ पकड़ रही थी… वो पानी में घुटनों तक डूबी हुई थी और उनकी परछाइयाँ पानी में तैर रही थी.  कृष्ण लीला भी कहीं रास नृत्य के द्वारा.. रचाई जा रही थी. कुछ लोग जेटी से फेरा लगा रहे थे. वैष्णव कीर्तन भी गाँव में हो रहा था.

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क़रीब-क़रीब हर झोपड़ी के बाहर कताई-बुनाई करने के लिए जातर रखा हुआ था. जिनमें धागे लगे हुए थे. कुछ जातर ऐसे थे जो बुनकरों का इंतज़ार कर रहे थे.  एक बूढ़ी महिला because बांस के बने स्टूल पर बैठी हाथ की इस महीन कारीगरी में संलग्न थी. स्पष्ट था का यह परिवेश अपने हस्तशिल्प के लिए भी जाना जाता होगा.  पर मैं कहाँ आ गयी थी…ओ, “कोमल शाउल” याद आ गया ये तो चावल है जो की माजुली में ही उगाया जाता है. खाया था मैंने. माजुली है ये तो. स्मृति की रेल ने मुझे माजुली पहुंचा दिया.  कुछ साल पहले मैं असम.. गयी थी न तभी.. स्मृति की रेल ने  माजुली पहूँचा दिया. सुखद है ये यात्रा तो.

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क्या आप जानते हैं?

माजुली स्थित एक गाँव. सभी फोटो विकिपीडिया से साभार 

ब्रह्मपुत्र ने अपने प्रवाह मार्ग में अनेक छोटे-बडे द्वीपों का निर्माण किया है. इन्ही द्वीपों में से एक द्वीप है– माजुली. यदि हम कानों में हाथ रख कर जोर से धाद देकर चिल्लाएं- माजुली, because तो लगेगा माजुली ‘मझले’ के काफी करीब है. ‘मझले’ का मतलब है, कोई भी वह चीज़ जो बीच की हो या किन्ही दो चीज़ों के बीच में हो. जैसे कि ‘माजुली’, ब्रह्मपुत्र नदी के बीच में एक टापू है. माजुली भारत का सबसे बड़ा नदी-टापू है. इसका अपना नाम ही इसकी  भौगोलिक स्थिति को  बयां करता है.

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यदि आप असम के नक्शे  का निरक्षण करेंगे तो, माजुली द्वीप के दक्षिण में आपको ब्रह्मपुत्र नदी और उत्तर में खेरकुटिया खूटी नाम की धारा दिखेगी. खेरकुटिया खूटी ब्रह्मपुत्र नदी से because निकलती है और आगे चलकर फिर उसी में मिल जाती है. इसी तरह एक और सहायक नदी लोहित भी है. माजुली के बनने के पीछे इन्हीं का हाथ है – इन नदियों के दिशा बदलने से मिट्टी ब्रह्मपुत्र के बीच में जमा हो गई और धीरे-धीरे टीले ने टापू की शक्ल ले ली. नदियों के बहाव में होने वाले परिवर्तन की वजह से माजुली का चेहरा मानचित्र पर हमेशा ही बदलता रहा है. ब्रह्मपुत्र नदी यहाँ जीवन के अस्तित्व का कारण है, परन्तु माजुली को सबसे ज्यादा नुकसान भी यही पहुँचाती है. इसलिए, माजुली और यहाँ का जीवन बहुत मायनों में भिन्न और कल्पना से परे है.

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दुनिया का सबसे बड़ा नदी-द्वीप

दुनिया का सबसे बड़ा नदी-द्वीप माजुली अपने आप में गागर में सागर समेटे है. द्वीप के 23 गांवों में कोई 1.68 लाख लोग रहते हैं. यह 15वीं सदी से ही वैष्णव सत्रों या पूजास्थलों का प्रमुख केंद्र रहा है. अब भी यहां 30 ऐसे सत्र हैं.. यह सत्र सांस्कृतिक गतिविधियों का केंद्र तो हैं ही, छोटे-मोटे विवादों के निपटारे में भी because अहम भूमिका निभाते हैं. द्वीप के तमाम गांव अपने-अपने इलाकों में स्थित सत्रों से जुड़े हैं और वहां तमाम धार्मिक और सांस्कृतिक आयोजन होते हैं. माजुली रास उत्सव, टेराकोटा और नदी पर्यटन के लिए भी मशहूर है, लेकिन अपनी सांस्कृतक व जैविक विविधताओं वाला यह द्वीप मौसम के लगातार बदलते मिजाज की वजह से अपने वजूद की लड़ाई आज भी लड़ रहा है.

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पढ़ें— क्या है रेशम मार्ग?

माजुली द्वीप असमिया सभ्यता का मूल स्थान और पांच सदी से असम की सांस्कृतिक राजधानी रहा है. यह द्वीप अपने त्यौहारों, पक्षी पर्यटन, कमल धान, नौका विहार, हथकरघा, मेखला चादर, because ढेकी व पर्यटन के लिए दुनिया भर में प्रसिद्ध है. प्राचीन काल की तरह यहां गुरुकुल परंपरा अभी भी जारी है. माजुली को सत्रों की भूमि कहा जाता है जो कि यहां की प्रसाशनिक व्यवस्था को बरकरार रखने में बड़ी भूमिका निभाते हैं. शुद्ध वातावरण इसे फूलों और वनस्पतियों के अनुकूल बनाता है. खेती और मछली पकड़ना लोगों की आजीविका का प्रमुख जरिया है. मुखौटे बनाना कभी यहां का प्रमुख व्यवसाय था, जो धीरे-धीरे खत्म होता जा रहा है.

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माजुली के संबंध में कहा जाता है कि यहां जितनी नावें हैं, उतनी इटली के वेनिस में भी नहीं होंगी. यहाँ हर घर में नावें होती हैं. असम सरकार की चिंता में इस नदी द्वीप का सिकुड़ना एवं because एक विविधतापूर्ण संस्कृति का खत्म हो जाना सर्वोपरी है. माजुली के सिकुड़ने कारण प्राकृतिक हैं. ब्रह्मपुत्र की बाढ़ हर साल माजुली का एक टुकड़ा बहा ले जाती है. कुछ सर्वेक्षण बताते हैं कि यह द्वीप 15-20 सालों में पूरी तरह खत्म हो जाएगा, तो कुछ का दावा एकदम विपरीत है.

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विश्व धरोहरों की सूची में शामिल!

फिलहाल माजुली को बचाया जा सके, इसके लिए यूनेस्को ने इस नदी-द्वीप को विश्व धरोहरों की सूची में  शामिल कर लिया है. जब कभी आप माजुली  जायें तो घूमने के साथ because यहां के लोगों, यहां के जीवन और यहां की सांस्कृतिक बहुलता को समझने का प्रयास अवश्य करियेगा, आपको अच्छा लगेगा. आपको अहसास होगा कि माजुली जैसी खूबसूरत जग इस धरती पर और नहीं है.  हम अपने देश  की खूबसूरत सैरगाहों को तवज्जो नहीं देते हैं और भागते है विदेशों की ओर. मेरा दावा है कि माजुली आपको वेनिस से ज्यादा खूबसूरत लगेगा.

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जोरहाट शहर से मात्र 20 किलोमीटर because की दूरी पर स्थित माजुली द्वीप पर जब आप पहुंचेंगे तो, शांत व स्निग्ध माजुली अपनी प्राकृतिक और सांस्कृतिक विरासत को समेटे हुए आपका स्वागत करती नजर आएगी. तब, माजुली को काला टीका लगाने का जी चाहेगा… आपका. जी हाँ माजुली है ही इतनी सुंदर…

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कमलाबारी सत्र

माजुली के वैष्णव सत्र, राज्य की सामाजिक-सांस्कृतिक सिद्धांतों के प्रचार-प्रसार के लिए एक बहुत अच्छा माध्यम रहें हैं. यहाँ 16वीं शताब्दी के बाद से बने अनेक सत्र देखे जा सकते है.because पर्यटक इन सत्रों में प्राचीन असमीया कलाकृतियों, अस्त्र-शस्त्र, बर्तनों, वस्त्र, आभूषण और हस्तशिल्प के व्यापक संकलन को देख सकते हैं और असम की विरासत को महसूस कर सकते हैं.

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इन सत्रों में विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं- कमलाबारी सत्र, उत्तर कमलाबारी सत्र, सामागुरी सत्र, गरमूढ़ सत्र, आउनीआटी सत्र, बेंगेनाआटी सत्र, दक्षिणपाट सत्र इत्यादि. because नवम्बर महीने में यहाँ ३ दिवसीय रास उत्सव होता है जिसे देखने दूर दूर से लोग आते हैं. साल भर यहाँ रंग बिरंगे सांस्कृतिक कार्यक्रम आयोजित होते रहते हैं जो पर्यटकों को बहुत भाते हैं.

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यहाँ विभिन्न जनजाति के लोग रहते हैं. उनके गाँवो में समय बिताकर उन्हें और उनकी संस्कृति को जाना जा सकता है. उनके खा-पान, मुश्किल हालात में जीने की because कला आदि को समझा जा सकता है. अली-आए-लिगांग मिसिंग जनजाति द्वारा वसंत ऋतु (फ़रवरी- मार्च) में मनाया जाने वाला एक त्योहार है. पर्यटक इस त्यौहार का भी काफी लुत्फ़ उठाते हैं. इस के अलावा, यहाँ मुखौटे, मिट्टी के बर्तन, मूगा रेशम की बुनाई जैसे हस्तशिल्प और हथकरघा उत्पादों को देखा या ख़रीदा जा सकता है.

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माजुली में रासलीला का एक दृश्य

यहाँ की प्राकृतिक सुन्दरता और जैव विविधता को देखने और अध्ययन के लिए विश्व भर से लोग आते हैं. यहाँ अनेक प्रजातियों के दुर्लभ और लुप्तप्राय प्रवासी पक्षियों का आवागमन because चलता रहता है. इनमे हवासील (पेलिकान), साइबेरियन क्रेन और ग्रेटर एडजुटेंट सारस जैसे प्रवासी पक्षी शामिल हैं.. और यह सब हुआ मेरी कहानी के नायक  मलाई कोठानी के प्रयास से.

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मेरी कहानी का नायक जादव पायेंग एक जीता-जागता किरदार है और उसकी कहानी सौ फीसदी सच… एल्जियर बूफिये की तरह उसे भी पेड़ों से प्यार है. अगाध प्रेम, because जिसे आप जुनून का नाम भी दे सकते हैं. और जुनून ऐसा कि उसने अकेले बूते लगभग 1400 एकड़ का जंगल बसा दिया है. वह भी एक ऐसे इलाके में, जो रेत का दरिया था. जहां रेत की नदी बहती थी.

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पढ़ें— हंगरी से उत्तराखंड की विहंगम यात्रा

रेतीले माजुली द्वीप पर स्थित जंगल because आज ढेरों वन्य प्राणियों का बसेरा बन चूका है. साथ ही सैकड़ों किस्म की वनस्पतियों का खज़ाना भी. किसी एक आदमी द्वारा बनाया-बसाया यह दुनिया का सबसे बड़ा जंगल भी है. ‘मोलाई कोठानी’ जंगल. मोलाई कोठानी यानी मोलाई की लकड़ी. मोलाई उपनाम है जादव पायेंग का, और उनके सम्मान में स्थानीय लोग इस जंगल को ‘मोलाई कोठानी’ कहते हैं. यह अलग बात है कि दुनिया के लिए यह ‘मिशिंग फॉरेस्ट’ है और पायेंग ‘फॉरेस्ट मैन ऑफ़ इंडिया’. लेकिन  मेरे लिए जादव पायेंग ‘वन-पुरुष’ हैं… और पूजनीय हैं.

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रेतीली पट्टी को हरियाली की चादर में तब्दील कर देने की जादव पायेंग की कहानी तो बेमिसाल है. 55 वर्षीय जादव पायेंग असम के एक ऐसे इलाके में पैदा हुए थे, बाढ़ जिसकी नियति थी. because गुवाहाटी से करीबन 350 किलोमीटर दूर और जोरहाट ज़िला स्थित माजुली द्वीप क्षेत्र के गांव अरुणा सपोरी में. ब्रह्मपुत्र नदी की बाढ़ ने यहां तबाही की कई कहानियां लिखी थीं. वैसे भी ब्रह्मपुत्र को ‘पूर्वोत्तर का अभिशाप’ कहा जाता है. उन्हीं कहानियों ने पायेंग के भीतर उस दृढ़ इच्छाशक्ति को जन्म दिया, जिसने उनसे वो काम कराया जिससे वे आज सारी दुनिया में मशहूर हो चुके हैं. उनके कामों की गूंज ब्रह्मपुत्र की लहरों में बहते, सोंधी जंगली हवाओं में महकते, घने पेड़ों की सरसराहट से गुज़रते अब हज़ारों-हज़ार किमी दूर तक पहुंच चुकी है. देश की सरहदों को लांघते हुए फ्रांस और दूसरे मुल्कों तक भी.

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दक्षिणपाट सत्र में पूजा

दरअसल, पायेंग जिस गांव में रहते थे, उसके पास से विशाल ब्रह्मपुत्र नदी बहती थी. ब्रह्मपुत्र जब यहां पहुंचती तो अपने साथ लम्बी दूरी से बहा कर लायी हुई मिट्टी, रेत और पथरीले अवशेष मलबे के रूप में लाती थी. इस कारण उसकी गहराई यहां अपेक्षाकृत कम हो जाया करती थी. मानसून में इसके चौड़े पाट हर साल पेड़-पौधों, फसलों और गांवों को अपने संग बहा ले जाते थे, जिससे इसके किनारे स्थित गांव खासे प्रभावित होते थे. चूंकि यह सिलसिला अरसे से चलता आ रहा था, लिहाजा वह हरियाली रहित बंजर रेतीला तट लगभग रेगीस्तान जैसा हो चुका था.

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यह रेत लगातार वहां के वन्य प्राणियों की मौत का कारण बन रही थी. प्रकृति प्रेमी पायेंग इससे दु:खी भी थे और निराश भी. पशु-पक्षियों की घटती संख्या ने उन्हें अंदर तक व्यथित कर दिया था.  because व्यथित होने के कारण ही  जादव पायेंग ने ब्रह्मपुत्र नदी के द्विपीय इलाके अरुना सपोरी में वृक्षारोपण करना शुरु किया. साल 1979 से शुरुआत कर जादव अब तक 1300 एकड़ से भी ज्यादा क्षेत्र में वृक्षारोपण कर पूरा एक जंगल खड़ा कर चुके हैं.

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पढ़ें— शंहशाह: लक्ष्मी पूजन कर गंगा-जमुनी तहजीब की अनूठी मिसाल पेश करते थे!

आज उनकी उम्र 50 साल से भी ऊपर है because और उनके द्वारा रोपा गया जंगल आज 5 रॉयल बंगाल टाइगर, 100 से भी ज्यादा हिरणों, भालू, गिद्धों और कई प्रजाति के पक्षियों का घर है. बेशक कई सांप भी इस जंगल के निवासी हैं, जिनके कारण ही शायद इस कहानी की शुरुआत हुई थी. भारत सरकार के द्वारा जादव पेयांग को पद्श्री से नवाजा गया है.. और दुनिया उनको फारेस्ट मैन आफ इंडिया के नाम से जानती है. माजुली के जंगल इन्हीं की देन है. संसार के उत्कृष्ट फोटाग्राफर यहाँ के घमंडी गैंडे और प्यारी साइबेरियन क्रेन को फोटो ग्राफ करने आते हैं.

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इन पक्षियों को देखने के लिए नवंबर because से मार्च के बीच का समय सबसे उत्तम होता हैं. यहाँ तीन ऐसे स्पॉट्स हैं जहाँ से इन पक्षियों को देखा जा सकता है- माजुली द्वीप के दक्षिण पूर्व इलाका, ‘माजुली द्वीप के दक्षिण पश्चिम इलाका और माजुली द्वीप के उत्तरी भाग.

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माजुली में साल के किसी भी वक़्त because भ्रमण किया जा सकता है. वर्षा ऋतु के दौरान इस द्वीप के 50-70% भाग में पानी भर जाता है, लेकिन विडंबना यह है कि साल के इस समय यहाँ नाव से यात्रा आसान हो जाती है. प्राकृतिक सुन्दरता भी इसी समय अपने चरम पर होती है.

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दक्षिणपाट सत्र

माजुली में पर्यटन के लिए बुनियादी सुविधाओं का विकास नहीं किया गया है. यह कोई भी बड़ा नगर (टाउन) नहीं है, न ही यहाँ कोई अच्छे होटल हैं. यहाँ के सबसे बड़े नगर कमलाबारी और गरमूढ़ है. because यहाँ कुछ मध्य निम्न स्तर के होटल जरुर हैं. यहाँ असम सरकार के कुछ अतिथि भवन जैसे “सर्किट हाउस”, “इंस्पेक्शन बंगले” जरूर हैं पर वे सीमित संख्या में हैं और आम पर्यटक की पहुँच से दूर हैं. यहाँ असम पर्यटन विभाग का “प्रशांति टूरिस्ट लॉज” भी है, परन्तु यह भी सीमित संख्या में ही टूरिस्टों को रख सकता है.

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कुछ ‘’सत्र’’ पर्यटकों के लिए कमरे because उपलब्ध कराते है. इसके लिए पहले से ही सत्र परिचालक से संपर्क करना आवश्यक है. नतुन कमलाबारी, उत्तर कमलाबारी,  आउनीआटी, भोगपुर और दक्षिणपाट सत्र में ऐसे कमरे उपलब्ध  रहते हैं.

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माजुली अपने उत्सवों के लिए भी पर्यटकों का ध्यान आकर्षित करता है. फ़रवरी में यहां अलि आये लिंगंग नाम का एक त्यौहार यहां मनाया जाता है. पांच दिन तकि चलने वाले इस because त्यौहार में स्थानीय राइस बियर जिसे अपोंग कहा जाता है और पुरंग अपिन नाम का खास पकवान परोसा जाता है. इसके अलावा नवम्बर के महीने में यहां जोरशोर से रासलीला उत्सव मनाया जाता है. इसमें गीत, संगीत और नृत्य का शानदार नज़ारा देखने के लिए हज़ारों लोग यहाँ आते हैं. बर्ड वाचिंग के शौकीनों के लिए भी माजुली विशेष आकर्षण है.

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वैसे मै तो यहाँ  बरसते  मौसम में  गयी थी. उस समय माजुली का पर्यटन अपने चरम पर  था. ठंडी फुहारों ने तन और मन  दोनों को भिगो दिया था. मेरे साथ चलने वाले गाइड ने बताया कि गरमियों में सैलानी यहाँ कम ही  आते हैं. क्योंकि गर्मियों में यहाँ उमस बहुत होती है और मच्छर भी. लेकिन बरसात में जलभराव because और बाढ़ की वजह से यहाँ आने-जाने में दिक्कत होती है. चूंकि मै सुविधा से आई थी, तो मेरा आग्रह है कि सर्दियों का मौसम यानी अक्टूबर से फ़रवरी  के मध्य आप यहाँ घूमने का प्लान बनायें. इस वक्त का मौसम यहां आने के लिए सर्वथा उपयुक्त है. ऐसा मेरा मानना है. बाकी तो मन के तंबू जब और जहाँ चाहें  आप  गाड़ सकते हैं. दिल को मनाही कौन कर सकता है.

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(मंजू काला मूलतः उत्तराखंड के पौड़ी गढ़वाल से ताल्लुक रखती हैं. इनका बचपन प्रकृति के आंगन में गुजरा. पिता और पति दोनों महकमा-ए-जंगलात से जुड़े होने के कारण,  पेड़—पौधों, पशु—पक्षियों में आपकी गहन रूची है. आप हिंदी एवं अंग्रेजी दोनों भाषाओं में लेखन करती हैं. आप ओडिसी की नृतयांगना होने के साथ रेडियो-टेलीविजन because की वार्ताकार भी हैं. लोकगंगा पत्रिका की संयुक्त संपादक होने के साथ—साथ आप फूड ब्लागर, बर्ड लोरर, टी-टेलर, बच्चों की स्टोरी टेलर, ट्रेकर भी हैं. नेचर फोटोग्राफी में आपकी खासी दिलचस्‍पी और उस दायित्व को बखूबी निभा रही हैं. आपका लेखन मुख्‍यत: भारत की संस्कृति, कला, खान-पान, लोकगाथाओं, रिति-रिवाजों पर केंद्रित है.)

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