हंगरी से उत्तराखंड की विहंगम यात्रा

पीटर शागि
सहायक व्याख्याता, ऐल्ते विश्वविद्यालय, बुदापैश्त, हंगरी एवं ठेठ घुमक्कड़

पहाड़ है ही अलग. मेरे हंगरी से फिर तो निश्चित ही. दुना-डेन्यूब के किनारे बसे मेरे बुदापेश्त से हम लोग कुछ ऐसी ललचाई आँखों से उनकी ओर देखते हैं, जैसे दिल्ली शहर. इतने साल पहले भारत में because जब पहला लंबा समय बिताया था, मैदान के कई शहरों के अजूबों को देखने के बाद हिमालय की ओर देखा. हिमाचल और उत्तराखंड मेरे नसीबों में रहा, सचमुच यह सोचने पर देवभूमि पधारने और ऊपर वाले की बरकत मिलने की अनुभूति होती है. जब भी याद करूँ.

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यूँ तो हंगरी के इर्द-गिर्द कारपैथ के पहाड़ हैं, ट्रांसिलवानिया (आज रोमानिया) का माहौल बहुत कुछ कुमाऊँ जैसा है और स्लोवाकिया की तात्रा शृंखला भी आपको गढ़वाल का आभास करवाएगी. because आज भी कहीं-कहीं गडरिये अपने भेड़ों के झुंड बुग्याल ले जाते हुए दिखते हैं. ऊँची-ऊँची, काली-काली, काई, खाई, चीड़ों के बीच बसे घरों से लकड़ी जलने की भीनी खुशबू उठती है. लेकिन मुनस्यारी के खलिया टॉप, भरमौर के भरमाणी माता मंदिर या औली के घुरसों बुग्याल की तरह वे धौली चोटियाँ नहीं दिखेंगी, जिनका अक्स पाकर मनुष्य के होंठों से निकले, आह! यही ईश्वर का दरबार!

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पुरानी दिल्ली स्टेशन. भर्राए पंखे, चिपचिप. ट्रेन के फर्श पर रात. तड़के डींग-डांग-डोंग रुद्रपुर, रुद्रपुर. चौंकता हूँ… अपने बाईस साल के हंगेरियन मस्तिष्क में वेदकाल, वज्र!

नैनीताल, हल्द्वानी से थोड़ा ही ऊपर, इतना कि मार्च-फरवरी में, अप्रैल-मार्च में बदल जाए, तबीयत बाग-बाग हो जाय. इधर नेशनल दूरबीन में खगोल और आला स्कूल, उधर नैना देवी की आँखों में चमकते ‘तुंग शृंग’. और नीचे नौका-विहार, मल्लीताल, तल्लीताल, बुढ़िया के गुलाबी बाल, दोने में पीली रस्पेरियाँ- यहाँ का हिसालू. because डॉर्म के प्राचीन गद्दे से फुर्र, मेरी बस चली सुबह-सुबह अल्मोड़ा की ओर. गीतों का अल्मोड़ा बाजार… कई घर लकड़ी की नक्काशियों में ढले सौंदर्य-बोध से जीवित, कुछ कंक्रीट में पथराए-से लगते. ऊपर टीले पर, देवदार की अगल-बगल शाम की धूप में नहाता एक गिरजाघर. गर्मी का महीना है, वादियों को अब जंगल की आग का धुआँ भर दे रहा है और खेतों की सीढ़ियाँ भी ऊबी-ऊँघी-सी नजर आती हैं. ऐसा ही छत्ता-आकार मंदिर जागेश्वर धाम के कभी पेड़ों तले सोते हैं, कभी जजमानों के आने पर जाग उठते हैं. वापस अल्मोड़ा, लदी-फँदी जीप, कुटिल सड़क, सर-गले में सर्पीली मितली.

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बागेश्वर में भी शरबती बुरांश देखे खिलते हुए और, जो बुदापेश्त में इतना नहीं देखना होता, नदी किनारे चिता की तैयारी. दो सड़कें जहाँ मिलती हैं, ढाबे में पराठे, पकौड़े-पकौड़ियाँ, वे छोटे वाले प्याज के कड़क, चाय. इस रास्ते से आया, अगली बस इयुँग-इयूँग उधर से जाएगी. हिन्दी अखबार पढ़ने की कोशिशें. बस में गाने की धुन, because ‘नेरोलेक पेन्ट जैसी चमचमानी तेरी मुखड़ीॱॱॱ नजर न लगती घनी रेॱॱॱ काजल को टिक्क लगे लेॱॱॱ काजल को टिक्क लगे लेॱॱॱ‘. नहीं, यह बाद में कभी सुना होगा, अभी ग्वालदम में बसेरा. कौसानी आना ही था, गाँधी जी के कदमों में चलना ही था. आश्रम के सुंदर बगीचे में लाल ग्लैडियोलस के फूल, गंभीर चर्मरोग से बचने की चेतावनी देता इश्तहार. ठहर गया. चीड़ की खुशबू. शान्ति. अनासक्ति. अगले रोज एक कच्चे रास्ते पर निकल गया लीसा टीपान कैसा होता है, देखने. कुछ लड़के-लड़कियों ने घर का बना कुछ चखाया था लेकिन अब भूल चुका हूँ, क्या था वह. शाम को हवा चली, बारिश हुई, इतने भ्रमण से उस वक़्त के खाने में बड़ा स्वाद आया.

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पिंडारी नदी, अयाग-प्रयाग, श्रीनगर, दिन भर बस का सफर. टिहरी, डैम! पत्थरों से चिना असंभव फिसलना. पहले समझ में नहीं आता, गंगा के रास्ते में कैसे कोई विघ्न डाल सकता है, पर इतना बड़ा काम तो आम कहाँ, देवों का इसमें जरूर योग होगा. पीछे झील और ऊपर झूला. अँधेरा घिर आया था चम्बा पहुँचते-पहुँचते. इधर वाले because श्रीनगर के बाद इधर वाले चम्बा. अँधेरे में दूर-दूर तक कितने घरों की बत्तियाँ टिमटिमाती हैं. आगे आती है उत्तरकाशी. शाम को बड़ी मनोहर, सहलाती हवा. एक सरकारी क्वार्टर के अहाते में, उफनती-भागती नदी को थोड़ा ऊपर से झाँकती कुछ चीड़ों की सुइयों के कहीं पीछे, साफ नीले आसमान पर चढ़ते हुए पकड़ लिया चाँद को. अपने कैमरे में. झुकपुके में आरती की मसली हुई ध्वनियाँ. लहराती साड़ियाँ. पानी पर दीये तैरे चले जा रहे हैं.

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ये रातें, यह मौसम, नदी का किनारा! अब मेरी गंगोत्री-यात्रा का एक दशक से ऊपर हो चला है. करमों की, कथाओं की सरिता गंगा को जन्म देते गोमुख को देखने की इच्छा मन में तीव्र थी. अप्रैल में लोग होटल-ओटल ठीक कर दिया करते हैं, यात्री और पर्यटक आते हैं बाद में. मेरे जैसे कुछ अपवाद. अपना बैग एक बंद पड़े गेस्ट because हाउस के चौकीदार की सुपुर्द कर पीटर चला ट्रैक पर. ग्यारह बजे कौन निकलता है इतनी लंबी सैर पर? लेकिन भागीरथी पर्वत का जादू होगा कि जहाँ कई लोग एक रात का पड़ाव जरूरी समझकर तंबू लगा लेंगे, वहाँ मैं केवल एक इजराइली जोड़ी को पीछे छोड़, शाम के पाँच बजे तक अपने गंतव्य जा पहुँचा. उन्हीं दिनों अखबार में आया कि कुछ विदेशी ग्लेशियर में धँस बेमौत मरे, इसपर एक बोर्ड भी लग गया, आगे जाना वर्जित है. इधर-उधर देखा. चुप्पी. मैं अकेला. गंगा जी से इस मौन मुलाकात की सुरसुरी तो अपने शरीर में आज भी महसूस होती है. सब नि:शब्द. सब नि:स्तब्ध.

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बर्फ से ढकी चोटियों के परे सूरज छिपते ही ठंडा-सा लगने लगा. चीड़वासा और भोजवासा के तंबुओं में रात्रि भर हवा खाना मुझे गवारा नहीं था. जरूरत भी क्या थी? जल्द से जल्द गंगोत्री उतर गया. साफ वातावरण में यात्री के रहनुमा, लगभग पूरे चाँद के शीतल अंशुओं से पगडंडी पर मेरा साया पड़ता चला. टप-टप सन्नाटे में मेरे कदम because पड़ते चले. चाँद-सितारों ने काले अंबर को कुछ ऐसे भर दिया था ज्यों वे किसी विश्रान्त ताल के आईने की परछाइयाँ हों. पेड़ों की सुगंध फिर अलग! ग्यारह बजे होंगे जब मैंने अपना स्लीपिंग बैग खाली लग रहे गेस्ट हाउस के बरामदे में बिछा दिया. ठंड थी. बहुत ज्यादा. रात आँखों में काट दी. कितना भी कम सो पाया मगर नदी की गुड़गुड़ बानी ने अस‘ को स‘ बना दिया. हाँ, कभी चाय का उतना मजा नहीं मिला जो इस पहाड़ी लड़के की चाय में था, जिसने किसी फ्रेंच पर्यटकिन के लिए नाश्ता बनाने की आवाजों से मुझे जगाया. तब तक गुनगुनी धूप निकल आई थी.

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नीचे देहरादून में राम राय दरबार भी देखा और फॉरेस्ट इंस्टीट्यूट देखा, जहाँ जाने कितने प्रकार की पहाड़ी वनस्पति का खजाना है (बस ऊपर पहाड़ की हरियाली कटने से बच पाए). इसके शाही अहाते में तब भी वॉक की, जब बहुत because साल बाद पीएचडी की समाप्ति मसूरी में एक मनोरम पैनोरमा युक्त कमरा लेकर मनाई. हिल स्टेशन के नीचे फैले वन संस्थान की प्रदर्शनी में ‘अनुप्रस्थ काट’ जैसी जरूरी शब्दावली सीखी थी. साथ टहलती जोड़ियों को फिर-फिर आँख भर देखा.

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मसूरी बेशक सुंदर बना ही इसलिए था. दिसंबर में मौसम जस्ट परफेक्ट रहता है. घाटी में पहाड़ों की एक के बाद एक सिलवटों पार हिम के आलय के नजारों से खुशनसीब दृष्टाओं का मन because प्रफुल्लित हो उठता है. कस्बे के साथ जुड़े लंढौर गाँव वाली ‘ऊँट-की-पीठ’ सड़क कितनी-कितनी खुशनुमा. पहुँचकर लाल टिब्बे से, सूर्यास्त के समय हाथ में अदरकी नींबू चाय का एक मग थामे चारों धामों और नन्दा देवी के दर्शन कर सकते हैं. पुरानी चाल के ढाबों के साथ कुछ डिजाइन वाली ईटेरियाँ भी खुली हैं जहाँ बाजार की चहल-पहल कुछ देर रुक जाती है.

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बड़ी-बड़ी फीलिंग्स फील करते, इतने बड़े चक्कर पर आपको भूख कितनी लगेगी, आप मुख्य चौराहे पर सवाई होटल सवॉय के नीचे आकर जानें. यूँ तो ठहरा मैं कहीं और ही था, because यहीं मेरे मन में एक नटखट डिनर प्लान बन आया. क्यों नहीं एक शाम यूरोपीय परिपाटी से बिताई जाय? कुछ ऐसी यूरोपीय पद्धति से जिससे यूरोप में भी कितने लोग परिचित होंगे ! क्यों नहीं आज सवॉय में रात की रोटी खायी जाए? नाम तो काफी सुना-सुना-सा लगा, इस नामकरण का एक होटल बुदापेश्त में भी था शायद, दूसरे विश्वयुद्ध से पहले. बीच में उत्तरी इटली का ऐसा एक जरूरी रजवाड़ा कभी रहा था, अधिकांश भूल चुके होंगे.

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क्रिसमस की सजावट, आमोद-प्रमोद, दिलकशी. कट-रॉक मिठाइयाँ और मीठी-सी एक सामान्य समृद्धि. अपने जैसे कुछ कई-भाषा-भाषी विश्वविद्यालय छात्र-छात्राएँ सेवक अवतार में मेन्यू लाकर जीवन का कुछ मतलब बनाने में तत्काल मेरी मदद कर रहे थे. इस सबसे साँस कुछ ऐसे रुकी कि तय किया अब नाश्ता भी यहीं करूँगा. अपने जीवन का सबसे यादगार नाश्ता. अहाते की उस ओर प्रभात की आभा से मंडित हिमालय की छवियाँ आँखों में लिए. पर इस बार वह नहीं हुआ जिसकी प्रतीक्षा थी. मेरा आर्डर मिसप्लेस हो गया. युवाओं ने शिकायत करने पर सही थाल सामने रखा और दिलासा दिया कि पहले वाला ऑन -द-हाउस हुआ, होटल के हवाले से.

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संतुष्ट महसूस हुआ और हाल के ऐतिहासिक वातावरण से अचंभित भी. बिल बनने में समय-सा लग रहा था और पल भर यूँ प्रतीत हुआ कि मैं निष्प्रयोजन वेट कर रहा हूँ. जब तक कि because मुझे सूचना दी गई : बिल है ही नहीं. सभी वेटर एकसाथ मिलने आए और समवेत कहा, पिछली रात में यह पहली बार हुआ कि किसी ने सलाह वाला पर्चा उनकी भाषा में भरा, और इसी लिए उन्होंने मिलकर मुझे अपना मेहमान बनाने का फैसला लिया है. आबाद रहें आप सब, यही हमारी तमन्ना है.

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दीवाली को दो धाम, और सावन में हेमकुंड भी श्रद्धा लेकर पहुँचा था. लेकिन पहले हरिद्वार-ऋषिकेश आता है. संस्कृत की राह पर पहले-पहले वाक्यों में यह पढ़ा था, ‘गमिष्यामि हरिद्वारं तत्र च गंगाया उद्गमं हिमाचलं च द्रक्ष्यामि’, हरिद्वार जाऊँगा और वहाँ (से) गंगा का स्रोत तथा हिमाचल (भी) देखूँगा. ऐसा भी कोई वाक्यांश था कि ‘हे पुत्र मुझे हरिद्वार ले चलो’. भारत हो या यूरोप, आज भी मैं उन because लोगों के लिए खुश होता हूँ जो मटक-मटक के आस-पास दिल में कुछ प्रतिशत श्रवणकुमार पाल लेते हैं और जो गोलगप्पे में कभी मीठा भी थोड़ा माँग लेते हैं. वैसे सुना है हरिद्वार के पंडों के पास बड़े-बड़े पोथों में कुटुंबों का लंबा-चौड़ा इतिहास रोमांचकारी है. तड़के, जब सौ साल पहले के नगरसेठों की दानवीर मनोवृत्ति से बने मंदिरों, धर्मशालाओं और हवेलियों के सामने से खाली सड़क पर एक रिक्शा गुजरता है तो बनारस याद आ सकता है, हालांकि यहाँ मैदान को देखने के लिए मनसा देवी का मंदिर भी है.

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नवम्बर के महीने में हिन्दी संस्थान से ऋषिकेश हम एक आश्रम देखने गए थे. जिस साल हम गए, राह का बड़ा भाग निमार्णाधीन था. मेरे कुर्ते की जेब कुर्सी के हत्थे में फँस गई और एक धक्के से वह फट गया. because कानों में हैडफोन लगा लिया, आतिफ अस्लम की आवाज, ‘कैसे बताएँ, क्यूँ तुझको चाहें, यारा बता ना पाएँ’. आश्रम में चैन मिला, उस दिन लक्ष्मण झूले तक की सैर की, किश्ती से नदी पार कर ली, जिसमें ताजिक लड़कियों से चार शब्द फारसी में बोलने की कोशिश की, और दुनिया के कोने-कोने से, करीब पच्चीस देशों से आए अपने अन्य साथियों के संग इस घाट पर आरती देखी, जहाँ शिवजी की मूर्ति 2013 की भीषण बाढ़ में एकदम बह गई थी.

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सुबह गंगा स्नान करने गया. मन में हमेशा सोचता हूँ कि कोई भी करम विधि से ज्यादा आस्था से करो तो जादू चालू. विधि हो न हो, आस्था गायब तो जादू गायब. लेकिन यह नहीं कि फल हर because बार तुरंत मिले. स्नान के लिए मैं सुबह-सुबह कच्छे में निकल गया था, और कमरे लौटने तक मेरे साथी ने ताला जड़ दिया. ठिठुरते हुए, भीगे-से भागे-से लंगरनुमा हाल में चाबी मिली जहाँ सब नाश्ता करने उतर आए थे. वैसे ऋषिकेश जब अगली बार आया, तो भी बाजू वाले आश्रम में रुका.

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उस दिन काफी मुश्किल से बस मिली, पर सड़क पर खड़ा रहा, तो आ ही गई. सोनप्रयाग चढ़ने में पूरा दिन लग गया, पुलिस चौकी से केदारनाथ का पास बनाते समय धूप ढल रही थी. because बाढ़ के बाद गौरीकुंड तक अब पैदल चलना पड़ता है और ऊपर का नक्शा भी बदल गया. शेष लोग कहीं पीछे छूट गए और उतरते अँधेरे में, पेड़ों की छाया में अकेले चल रहा था. तभी एक मोड़ पर केदारनाथ का सफेद पहाड़ प्रकट हुआ, गुलाबी से बैंगनी होते आकाश के नीचे. आह…! जो मिला, वह कमरा ले लिया और दरवाजा खोला तो दीप दीप दीप, दीपावली. दुकान में चूल्हे के पास भोजन करके सोने चला.

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तिपहर में नीतू अम्बानी का हेलीकॉप्टर जब तक मेरे सिर के ऊपर से बिलकुल गुजर गया, मैं दर्शनों के पश्चात् वापसी में था. केदारनाथ के देवालय में शिवजी हैं और शक्ति भी. because अनावृत पत्थरों की गोद में सदियों से वह मौसमों से टकराता है और उन्हें ठुकराता है. पिछले प्रलय में भी यह बना रहा, जबकि नीचे तमाम हट्टी आज थी, कल नहीं रही. मंदिर परिसर में चढ़ती धूप में भभूत और आसन लगाए तपस्वी. यहाँ आने के लिए तैयारी, कम से कम मन की तैयारी आवश्यक है. और आने पर सोचते हैं, हम कहाँ से आ गए कि यहाँ सब कितना साफ, कितना स्पष्ट दिखता है.

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केदारनाथ और बद्रीनाथ का रिश्ता आज वही है, जो पैदल यात्रा और गाड़ी यात्रा का हो सकता है. नीचे जोशीमठ वापस आकर जाम में जीप से उतर गया, सीधे उड़न खटोला स्टेशन पर. because इंतजार करते समय सेब के अचार के मर्तबान निहारे, फिर चार किलोमीटर खटोला उड़ा. कंडक्टर के जल्दी लौटने के परामर्श पर उड़ते में ही बोल दिया था कि मैं एक चाय पीने और दो तालियाँ बजाने के लिए इतनी महँगी टिकेट नहीं लेता, मुझे आखिरी राउंड में वापस आना है. इस लगन को देखकर उन्होंने बुग्याल का एक चक्कर लगाने की सलाह दी.

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औली स्टेशन से बाईं ओर मुड़ते पहाड़ की कमान के साथ-साथ यदि ऊपर की तरफ जाएँ, तो पौन-एक घंटे की आरामदेह चढ़ाई के बाद एक बहुत लंबे, खुले मैदान पहुँचेंगे, जो इस पहाड़ because की रीढ़ पर खूब आगे तक चलता है. लेकिन इस घुरसों बुग्याल से पहले मैंने नन्दा देवी के ठीक सामने बैठकर और कहानी पढ़कर देर कर दी. या कहना चाहिए, कर बैठा. फिर गहरे हरे देवदारों के इस जंगल में भी आहिस्ता-आहिस्ता चला. बीच में कहीं नेटवर्क भी था तो एकदम से माँ का फोन आया. उन्हें समझाया, बिलकुल खयाल रखता हूँ, यह भी तो एक जंगल ही है.

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ऊपर के मंजर से बोलती बंद. देवदारों की एक रेखा के पीछे गढ़वाल के चाकू जितने तीखे, पत्थर-पत्थर परबत और दूर, दाहिने हाथ को इन सबसे उठकर नन्दा देवी. शाम की because सुनहली धूप आगे-आगे दौड़ती घास पर. बालों में हवा उँगलियाँ फेर रहीं, मैं भी बाँहें फैलाए दौड़ रहा हूं, मेरा कुर्त्ता लहलहा रहा है, दिल नहीं भरता. आज अपनी बैठक की दीवार पर एक लंबी-सी पैनोरमा तस्वीर इसी अविचल एहसास की.

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देर कैसे हुई इतनी? अब रोपवे मिलेगी? या सत्रह किलोमीटर की वॉक? और भई, ये मैदान किनारे पीछे-पीछे पेड़ों के बीच पगडंडी थी कहाँ? हाय-हाय. अरे बाप रे, अरे वह लाल पत्तियों वाली झाड़ी, यहीं से रास्ता! भागते-भागते साँस फूल गई. जहाँ असली ढलान शुरू हो जाती है, वहाँ रुकना पड़ा. कोई पंछी चीखा. फिर सन्नाटा. सन्नाटे में रगों में दबदब करते लहू को मानो सुन पा रहा था. कितना अच्छा है, कोई नीचे से आ रहा है. कौन है? अकेला कोई. नहीं-नहीं, गुरिल्ला चल रहा है.because हिमालय में गुरिल्ले? भालू. भालू !! गला रुँध गया. लगभग दो सौ गज दूर, नीचे से ऊपर की ओर हौले-हौले एक भालू जा रहा था. घास में वह भेड़ का जबड़ा अकारण न दिखा था. अब क्या? उँगलियों में फोन तक काँप रहा है. नेटवर्क गुल. दूसरी तरफ जा रहा वह. त्रास खाये हुए इतना सब सोचने के बीच महादेव को भी सोचने लगा. कुछ नहीं होगा, पहुँच जाओगे. बिना पीछे मुड़े उड़ा और बीस मिनट में चाय भी मिल गई. लेकिन, यह भी एक कारण कि तस्वीर के सामने बैठक के इस कोने में नटराज की मूर्ति.

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रानीखेत में एक दोस्त, पूरन जोशी की मेहमान-नवाजी का आनंद मिला. फाउंडेशन स्कूल, गोल्फ कोर्स से लेकर चर्च और झूला देवी मंदिर भी देखा. तब की बात है यह जब बरसात शुरू होते-होते हेमकुंड जाना चाहा. गुरु नानक जहाँ जाते थे, because वहाँ हम अमर जोत को खोजने की सीख नित ले सकते हैं. उन्होंने जोशीमठ-औली से बद्रीनाथ की ओर एक पड़ाव गोविंदघाट पर, दाएँ ऊपर को जाती एक घाटी में, उस्तरे जैसे भयंकर पहाड़ों के बीच रास्ता खोज निकाला एक हेम कुंड का, जो अक्सर बादलों के कंबल ओढ़े, बफीर्ली चोटियों की गोद में सोता है, निगाहों के लिए दुर्लभ.

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डेरे में कुछ समय सोकर, अँधेरे से सुबह तक चढ़ाई चढ़कर बीच में मिले दो हमउम्र पंजाबी यात्रियों के साथ मुश्किल से आधे घंटे तक ताल की सुंदरता देख पाए, उसके बाद दृश्य मेघ में because ओझल हो चला. मैगी से बुरा हाल कुछ सुधरा, लेकिन स्नान करनेवालों को देख हौसला डगमगा गया. घोड़ों को साइड देने के लिए रास्ते के किनारे जमी इतनी बर्फ से ही काँपने लगा. कुछ लोग टट्टुओं के सहारे आ रहे थे, लेकिन अच्छा लगा उन बुजुर्गों को देख, जो इस पवित्र पर्वत की भीषण चढ़ाई पग-पग खुद ही चढ़ते हैं. काश यहाँ से मैं भी जीने के लिए यही ताकत अपने साथ ले चलूँ जो बुढ़ापे तक अंगों में बनी रहे.

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घंगारिया दोराहे से घाटी के उस हिस्से को फूलों की घाटी कहा जाता है. आज यह एक यूनेस्को तमगा प्राप्त सैरगाह है जहाँ अगस्त के महीने में सैकड़ों की तादाद में अलग-अलग because रंगीन फूल खिलते दिखेंगे. इस वक़्त इनकी संख्या कम थी, लेकिन लोकेशन के गढ़ाव और ताजगी से दिल नाचने लगा. जो कि पहले से इस बात पर हुलारे दिए जा रहा था कि पार्क के भोले चौकीदार ने मेरी एंट्री स्लिप दो बार पीटर बोलने पर भी प्रीतम नाम से भरा था.

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नेपाल का मध्य भाग देखा था, लेकिन पश्चिम अभी जाना है. हालांकि उत्तराखंड के पूर्वोत्तर में, भारत और नेपाल की सीमा पर चलते उस रास्ते से नजदीक, जिधर से मानसरोवर के because पिपासु जाते हैं, मुनस्यारी तो हो आया हूँ. राज्य के इस कोने में अपेक्षाकृत कम पर्यटक दिलचस्पी रखते हैं, जबकि पिथौरागढ़ की तरफ से आनेवाला रास्ता उतना ही हसीन है. पिथौरागढ़ शान्त-सा शहर है और डेढ़-दो घंटे के सपाटे से चंडाक व्यूपॉइंट घुमक्कड़ के सामने पूरे इलाके का हरा नक्शा खोल देता है.

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सवारियों का लक अच्छा था कि जीप हमें रामगंगा की घाटी की जगह अस्कोट और बॉडर की ओर से, गोरीगंगा के किनारे ले गई. उधर बहुत कम गाड़ियाँ मिलीं.. बाजू खिड़की में because डाले रफ्तार का लुत्फ लेने की आजादी थी. मुनस्यारी में फिर एक गेस्ट हाउस ढूँढ निकाला जहाँ ऑल  राउंडर रसोइया पन्त जी के सिवा कोई भी नहीं था. सुबह उन्होंने खलिया बुग्याल मेरे साथ चलने में दिलचस्पी दिखाई. कुछ किलोमीटर एक जीप के पीछे लटक लिए, तो वहाँ से चार घंटे की चढ़ाई शुरू.

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धरती के स्तन जैसा एक गोल टीला रूई सरीखे बादलों के ऊपर. लंबी मुलायम घास, पंख मारते कदम. जरा ढलान के नीचे कहीं, झबरे बादलों और जमीन के दरमियाँ, भेड़ों का एक because छितरा-सा झुंड. एक नुकीली चट्टान पर उड़ता हुआ-सा एक गडरिया. ढलने से पहले की मखमली धूप. और एक तलैया में उलट पड़ीं सामने वाली पाँच धारदार चोटियाँ पंचचूली की. जहाँ स्वर्ग पहुँचने से पहले पांडवों ने अपनी चूल्हियाँ जलाई थीं. आह-आह, यहीं से खुलता है जन्नत का द्वार.

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पहाड़ से कई धाराएँ मेरे जीवन के साथ जुड़ीं. मेरी प्राध्यापिका, हिन्दू कॉलेज की प्रो. विजया सती जी सर्वप्रथम और उनके प्रियवर. जिन्होंने घर से दूर मुझे हमेशा-हमेशा घर जैसा महसूस करवाया और जिन्होंने भारतीय संस्कार सुंदरतम because रूपों में मुझे दिखा दिए, अनुभव करवाए. जिन्होंने क्लासरूम में और चौके में भी मुझे सिखाया. जो किसी में संभावनाएँ सबसे पहले देखती हैं, और फिर हरेक को उसकी संभावनाओं के पास लाने की कोशिश से नहीं चुकतीं. जो नि:स्वार्थ राह की पहचान करवाती हैं और जो दुख में दवा देती हैं. जो हिन्दी भाषा और हिन्दी भाषियों की गरिमा हैं.

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वर्धा से मेरा शोधार्थी दोस्त, प्रकाश, डॉ. प्रकाश उप्रेती, जो सबसे पहले मेरे हॉस्टल के कमरे में मुझसे मिलने आया. जिज्ञासा जिसकी उस दिन भी, बाद में भी विदेशी को जितना, because उतना विदेश को जानने में रही, और बीच में देशी मानने से कतराया नहीं. जिसने भिकियासैंण-चौखुटिया मुख्य मार्ग से खूब ऊपर, टूरिस्ट नजरों से छुपा अपना गाँव दिखाकर बचपन के उन दिनों की याद ताजा कर दी जब मैं अपने दादा-दादी के साथ खेतों में बसे उनके घर जाया करता था. और जो इस कहावत को साकार करता है कि ‘पढ़ते (और पढ़ाते) हैं स्कूल के लिए नहीं, बल्कि जीने के लिए’.

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इसी अपनेपन से शादियों में नाचा, अमराई की सैर की, सिर पर सजाए पगडंडियों से सिलेंडर ढोया, कॉर्बेट की शान देखी, भैंसों को चराने गया साथ. पानी किस नहौ से भरा करते हैं, जाना, झुरमुट में चोरी-चोरी नींबू तोड़े, चूल्हे की रोटियाँ खाईं, यहाँ वाला रायता भी, भाँग के दानों वाला ‘सना’ नींबू-दही और पहाड़ी मशरूम because घनगूड़ की सब्जी. भीमताल, नौकुचियाताल और महादेवी कुटी रामगढ़ का साहित्यिक महत्त्व समझा. और जब तक पुराने जेवर नई डोरियों में गुँथते रहे, चाय की चुस्कियाँ लेते-लेते पंथ-ओ-पॉलिटिक्स, पहाड़ और मैदान, पहाड़ियों की पुश्तैनी जीवनशैली की घटती-बढ़ती संभावनाओं पर, पढ़ाई और लिखाई पर गपशप की.

चोपता, यमुनोत्री, कितनी
जगहें और बुला रही हैं.
उत्तराखंड का उत्तर नहीं!
पर अभी के लिए विदा.  

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