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सुरेग्वेल नौले में वराह और नृसिंह अवतार की दुर्लभ मूर्तियां

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सुरेग्वेल नौले में वराह और नृसिंह अवतार की दुर्लभ मूर्तियां

सुरेग्वेल क्षेत्र के पुरातात्त्विक सर्वेक्षण की नवीनतम खोज

  • डॉ. मोहन चंद तिवारी

15, अक्टूबर 2019 को सुरेग्वेल से ऊपर लगभग एक कि.मी. की दूरी पर स्थित ग्राम सूरे के एक अति प्राचीन नौले के पुरातत्त्वीय सर्वेक्षण के दौरान मुझे वहां नवनिर्मित मन्दिर में ऐसी दो प्राचीन मूर्तियां मिली हैं, जो भगवान विष्णु के दो अवतारों- वराह अवतार और नृसिंह अवतार से सम्बंधित पुरातात्त्विक महत्त्व की अत्यंत दुर्लभ मूर्तियां हैं. becauseइनमें से एक विष्णु की खड़ी प्रतिमा है जिसके दाईं ओर सिंह तथा बाईं ओर वराह की मुखाकृति उकेरी गई है. मूर्तिकार ने विष्णुमूर्ति के दाईं ओर नरसिंह, बाईं ओर वराहावतार की मुद्रा को दर्शाने का प्रयास किया है. इस विष्णुमूर्ति का शिल्प और अलंकरण वैष्णव परम्परा की मूर्तिकला जैसा ही है. मन्दिर के दूसरे कोने में प्राचीन प्रस्तर खंड में एक साथ बैठी हुई मुद्रा में तीन देव प्रतिमाएं भी उकेरी गई हैं, सबसे पहले दाईं ओर वराहावतार विष्णु, बीच में स्त्रीदेवी और उसके बाईं ओर एक अन्य देवप्रतिमा अंकित है.

स्थानीय

स्थानीय लोगों के अनुसार इन तीन मूर्तियों में बाएं भाग वाली दो प्रतिमाओं को शिव-पार्वती की मूर्ति होने का अनुमान है, जो युक्तिसंगत प्रतीत नहीं होता. क्योंकि मातृदेवी because की प्रतिमा के बाईं ओर शिव और दाईं ओर वराह विष्णु का होना मूर्तिविज्ञान की दृष्टि से अनुचित है. वराह अवतार के साथ शिव पार्वती का होना भी तर्कसंगत नहीं. विभांडेश्वर और दुनागिरी मन्दिर में शिव और पार्वती की युगल मूर्ति में शिव के बाईं ओर ही पार्वती की मूर्ति अंकित है. ऐसा प्रतीत होता है कि इन तीन देवमूर्तियों के बीच में विराजमान स्त्रीदेवी वराहावतार के पौराणिक कथा से सम्बंधित भूदेवी और बगल में ब्रह्मा या अन्य किसी देव की प्रतिमा उकेरी गई हो. भारतीय मूर्तिकला के अध्येता और पुरातत्त्वविद इन वराहावतार मूर्तियों की शैली से आज तक अनभिज्ञ ही रहे हैं. उत्तराखंड की मन्दिर स्थापत्य कला के विद्वानों ने इस अद्भुत मूर्तिकला का कभी कोई संज्ञान नहीं लिया.

प्रतिमा

हिरण्याक्ष के वध के बाद becauseभगवान विष्णु ने नृसिंह अवतार लेकर हिरण्याक्ष के भाई हिरण्यकश्यप का वध किया था. सुरेग्वेल के नौले से मिलने वाली इन दो पौराणिक शैली की मूर्तियों की इसी पौराणिक मान्यता के सन्दर्भ में व्याख्या की जा सकती है.

प्रतिमा

सूरे ग्रामवासियों का दृढ़ विश्वास है कि इन प्राचीन देवमूर्तियों की कृपा से ही सूरे ग्राम का यह नौला कभी नहीं सूखता और यहां पानी का स्रोत निरंतर रूप से प्रवाहित होता रहता है. इसलिए वे नौले की इन प्राचीन मूर्तियों की पूजा-अर्चना बहुत आस्थाभाव से करते हैं. because मैंने इस नौले की वास्तुभूमि का निरीक्षण किया तो सूरे ग्राम के इस नौले में पानी का बहाव आज भी इतना तेज है कि गांव के नीचे तीन चार नौलों में इसी से पानी मिलता है. इसके साथ ही इस नौले के बहते जल को स्टोर करने के लिए गांव वालों द्वारा नीचे एक डिग्गी का निर्माण भी किया गया है. इस नौले आस पास अनेक ऐसे वृक्ष और वनस्पतियां विद्यमान हैं जिनकी वजह से इस नौले में सदा भूमिगत जल रिचार्ज होता रहता है.

प्रतिमा

जहां तक इन पौराणिक मूर्तियों के प्राचीन इतिहास की बात है हिन्दू धर्म ग्रंथों के अनुसार विष्णु के दस अवतारों में वराह और नृसिंह अवतार क्रमशः दूसरे और तीसरे अवतार हैं. पुराणों में कथा because आती है कि दिति के गर्भ से उत्पन्न दो राक्षसों हिरण्याक्ष और हिरण्यकशिपु ने अपने आतंक से तीनों लोकों को कम्पायमान कर रखा था. इन दोनों दैत्यों ने ब्रह्मा जी को तप द्वारा प्रसन्न करके अजेयता और अमरता का वरदान प्राप्त कर लिया था. हिरण्याक्ष दैत्य भू देवी को सागर के भीतर ले जा कर उसे अपना तकिया बनाकर सो गया था. उसने अपने चारों ओर विष्ठा का घेरा बना रखा था ताकि देवता उस तक पहुंच नहीं सकें. तब ब्रह्मा ने भगवान विष्णु का ध्यान किया और अपने नासिका से वाराह नारायण को जन्म दिया. वाराह भगवान समुद्र में उतरे और उन्होंने हिरण्याक्ष का संहार कर उसके चंगुल से भू देवी को मुक्त किया.

प्रतिमा

हिरण्याक्ष के वध के बाद भगवान विष्णु ने नृसिंह because अवतार लेकर हिरण्याक्ष के भाई हिरण्यकश्यप का वध किया था. सुरेग्वेल के नौले से मिलने वाली इन दो पौराणिक शैली की मूर्तियों की इसी पौराणिक मान्यता के सन्दर्भ में व्याख्या की जा सकती है.

प्रतिमा

सूरेग्वेल के अलावा भगवान विष्णु के दो because पौराणिक अवतारों को दर्शाती ऐसी विष्णुमूर्ति भारत के किसी अन्य स्थान में देखने में नहीं आई है. किन्तु आश्चर्य पूर्ण लगता है कि स्थानीय लोगों और इस क्षेत्र के पुरातत्त्वविदों को इन मूर्तियों के सम्बन्ध में कोई जानकारी नहीं है. यहां के लोग इसे आज भी प्राचीन शिव मंदिर मानते हैं. पुराने बुजुर्ग लोगों के अनुसार यहां से खुदाई में शिवलिंग भी मिले हैं.

प्रतिमा

जोयूं ग्राम के निवासी व पूर्व because प्रधानाध्यापक दयाकृष्ण तिवारी के अनुसार ये प्राचीन मूर्तियां नीचे सुरेग्वेल के मंदिर से लाई गई मूर्तियां हो सकती हैं. क्योंकि सुरेग्वेल प्राचीन काल में अपने धार्मिक और सांस्कृतिक महत्त्व के लिए प्रसिद्ध रहा था. कत्यूरी काल के राजाओं ने यहां अनेक मन्याओं का भी निर्माण किया.

प्रतिमा

सूरे ग्राम के निवासी परमानन्द पांडे ने because बताया कि तीन वर्ष पूर्व इस नौले का जीर्णोद्धार करते हुए ग्रामवासियों ने यहां शिवजी के मंदिर का निर्माण किया और राधेश्याम तिवारी के पुत्र महेश चंद द्वारा यहां शिव और पार्वती की मूर्ति स्थापित की गई थी. उसी दौरान यहां नौले के निकट विद्यमान दो प्राचीन मूर्तियों को भी मुख्य शिव और पार्वती के अगल बगल में स्थापित कर दिया गया था. जोयूं ग्राम के निवासी व पूर्व प्रधानाध्यापक दयाकृष्ण तिवारी के अनुसार ये प्राचीन मूर्तियां नीचे सुरेग्वेल के मंदिर से लाई गई मूर्तियां हो सकती हैं. क्योंकि सुरेग्वेल प्राचीन काल में अपने धार्मिक और सांस्कृतिक महत्त्व के लिए प्रसिद्ध रहा था. कत्यूरी काल के राजाओं ने यहां अनेक मन्याओं का भी निर्माण किया.

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उल्लेखनीय है कि मन्दिर स्थापत्य और मूर्तिकला के क्षेत्र में कुमांऊँ अंचल के पाली पछाऊं क्षेत्र का योगदान अद्वितीय रहा है. यहां घाट-घाट पर बने शिवालयों गांव गांव में विद्यमान नौलों तथा because पर्वत शिखरों पर सुशोभित देवालयों और जलाशयों में उकेरी गई मूर्तिकला के प्राचीन अवशेष आज भी पौराणिक हिन्दूधर्म से साक्षात संवाद करते हैं. द्वाराहाट क्षेत्र के प्राचीन शिवालयों, शक्तिपीठों और विष्णुमन्दिरों के गर्भगृहों में जो मूर्तियां और भित्तिचित्र मिलते हैं उनका सम्बन्ध उस पौराणिक काल की धार्मिक मान्यताओं से है जब पौराणिक वैष्णव धर्म अपने उन्नत शिखर पर था तथा ब्रह्मा,विष्णु और महेश के रूप में वैष्णव,शाक्त और शैव परम्पराओं के मध्य एकीकरण और समन्वय पर भी विशेष जोर दिया जाने लगा था.

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कत्यूरी राजाओं के because काल में आठवीं से तेरहवीं शताब्दी में निर्मित मन्दिर और उनके गर्भगृह की भित्तियों में अंकित पौराणिक चित्र इस तथ्य के प्रमाण हैं कि जहां एक ओर भगवान विष्णु के दशावतार चित्रों को मंदिर वास्तु और देवालयों में महत्त्व दिया गया है तो दूसरी ओर शिव, शक्ति और विष्णु की मूर्तियों को एक साथ उकेर कर उनमें समन्वय स्थापित करने का भी विशेष प्रयास कत्यूरी राजाओं के काल में ही हुआ था.

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हालांकि द्वाराहाट के मंदिरों के गर्भगृह because की मूर्तियां आज धार्मिक विप्लव के कारण नष्ट हो गईं हैं किंतु इनके ध्वंशावशेष यह बताते हैं कि सांस्कृतिक नगरी द्वाराहाट का जब राजधानी नगर के रूप में विकास हो रहा था तो यहां के मंदिरों में न केवल हिन्दू आस्था से जुड़े देवालयों का निर्माण हुआ बल्कि जैन और बौद्ध धर्म के स्थापत्य और मूर्तिकला को भी कत्यूरी शासकों ने विशेष रूप से प्रोत्साहित किया. कत्यूरी राजाओं ने पौराणिक धर्म से जुड़े अनेक ऐसे मन्दिर बनाए जहां शैव,शाक्त और वैष्णव धर्म की आस्था से जुड़ी पौराणिक मूर्तियों और विष्णु के दशावतार की मान्यताओं को मंदिर स्थापत्य के साथ जोड़ने और उनमें धार्मिक समन्वय स्थापित करने का भी विशेष प्रयास किया गया.

प्रतिमा

मैंने सन् 2015 में सुरेग्वेल के पुरातात्त्विक सर्वेक्षण के दौरान इसके प्राचीन ऐतिहासिक अवशेषों की पहचान कत्यूरीकाल के मंदिरों और उसकी स्थापत्य शैली से की है.आज भले ही सुरेग्वेल because के इस अति भव्य प्राचीन मंदिर का अस्तित्व नहीं रहा किन्तु इस स्थान पर विद्यमान नागरी शैली के मन्दिर स्थापत्य के खंडित अवशेष बताते हैं कि यहां पुराकाल में कत्यूरी शैली के देवालयों और मन्याओं (यात्री धर्मशालाओं) का निर्माण किया गया था. सुरेग्वेल मंदिर में विद्यमान वे खंडित अवशेष कत्यूरी राजाओं के काल में पौराणिक काल की धर्म और संस्कृति का अत्यंत वैभव शाली इतिहास संजोए हुए हैं.

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पौराणिक स्थापत्य और मूर्तिशिल्प की एक समृद्ध परम्परा का यहां विकास हुआ था जिसके प्रमाण यहां सुरेग्वेल के नौले में विराजमान ये वाराह और नृसिंह अवतार की ये दो अत्यंत दुर्लभ because पौराणिक मूर्तियां भी हैं. ये मूर्तियां सुरेग्वेल से लाई गई मूर्तियां ही हैं, जिनकी यहां के ग्रामवासी पूजा-अर्चना करते थे. हमें सुरेग्वेल के ग्रामवासियों का आभारी होना चाहिए कि उन्होंने इन पुरातात्त्विक महत्त्व की मूर्तियों की पूजा-प्रतिष्ठा द्वारा प्राचीन धरोहरों को संरक्षित करने का महान् कार्य किया है.

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(लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय के रामजस कॉलेज से एसोसिएट प्रोफेसर के पद से सेवानिवृत्त हैं. एवं विभिन्न पुरस्कार व सम्मानों से सम्मानित हैं. जिनमें 1994 में संस्कृत शिक्षक पुरस्कार’, 1986 में विद्या रत्न सम्मान’ और 1989 में उपराष्ट्रपति डा. शंकर दयाल शर्मा द्वारा आचार्यरत्न देशभूषण सम्मान’ से अलंकृत. साथ ही विभिन्न सामाजिक संगठनों से जुड़े हुए हैं और देश के तमाम पत्रपत्रिकाओं में दर्जनों लेख प्रकाशित.)

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