(उत्तराखण्ड के विशेष संदर्भ में)
- डॉ. अमिता प्रकाश
काफी समय से यह मुद्दा और इससे संबधित कई विचार मेरे दिमाग में निरतंर उमड़-घुमड़ रहे थे, कई बार लिखने को उद्यत भी हुई, लेकिन फिर अनगिनत कारणों की वजह से इस विषय पर लेखन टलता रहा. लेकिन आज सुबह जब केरल की एक छात्रा द्वारा इंटरनेट की सुविधा के अभाव में ऑनलाइन शिक्षण से वंचित रहने के फ्रस्टेशन में आत्महत्या की खबर पढ़ी तो विचार स्वयं ही साक्षात् रूप में कागज पर उतरते चले गए. इन दो ढाई महीनों ने, अर्थात् जब से कोरोना संक्रमण की दहशत से मनुष्य अपने घरों में रहने को विवश हुआ है, और सरकार को स्वयं को ‘कल्याणकारी सरकार’ के दिखावे के दबाव में लॉकडाउन घोषित करना पड़ा, जीवन में परिस्थितियों ने कई परिवर्तनों को जन्म दिया. अब लगभग ढाई माह बाद जब अनलॉक 1 की शुरुआत हो चुकी है तब भी एक आम मध्यमवर्गीय इंसान, जिसके सामने रोजी-रोटी का बहुत बड़ा संकट नहीं है, बाहर निकलने से बच रहा है.
विद्यालयों में अध्ययनरत वे बच्चे जिनकी सारी दुनिया खेल-खिलौने तथा स्कूल के सहपाठी ही होते हैं, उनके लिए शुरुआती मौजमस्ती के बाद घर के अंदर रहना किसी सजा से कम नहीं हो रहा था. दीवारों के अंदर बंद इस असीमित ऊर्जा को नियन्त्रित करना शुरुआती चरण में एक संघर्षात्मक कदम सभी के लिए रहा.
इन परिस्थितियों से सामंजस्य बिठाने में सबसे अधिक परेशानी बच्चों को उठानी पड़ी. विद्यालयों में अध्ययनरत वे बच्चे जिनकी सारी दुनिया खेल-खिलौने तथा स्कूल के सहपाठी ही होते हैं, उनके लिए शुरुआती मौजमस्ती के बाद घर के अंदर रहना किसी सजा से कम नहीं हो रहा था. दीवारों के अंदर बंद इस असीमित ऊर्जा को नियन्त्रित करना शुरुआती चरण में एक संघर्षात्मक कदम सभी के लिए रहा. धीरे-धीरे सरकार या जैसा कि राइट टू एजुकेशन फोरम का कहना है कि कुछ निजि कंपनियों द्वारा सरकार पर बनाए दबाव के चलते या संभवतः हो सकता है कि शिक्षक को सर्वदा नकारा व अनुत्पादक मानने वाली सरकार एवं समाज की मानसिकता के दबाव में ऑनलाइन शिक्षण का फरमान जारी हुआ. जिसे लगभग सभी शिक्षक साथियों ने हाथों हाथ भी लिया. ऑनलाइन शिक्षण का कन्सेप्ट बिलकुल नया तो नहीं है किन्तु उत्तराखण्ड राज्य के सरकारी स्कूलों व सुदूर गाँवों के विद्यार्थियों के लिए यह नया सा ही है. ऑनलाइन शिक्षण की माॅनिटरिंग भी हो रही है और शिक्षकों से साप्ताहिक शिक्षण आख्याएं भी माँगी जा रही है. शिक्षण निस्संदेह हो भी रहा है. किन्तु इस संपूर्ण प्रक्रिया को शिक्षण कहना संभवतः अतिशयाक्ति जैसा ही होगा. हाँ इसे सूचनाओं या पाठ्य सामग्री का एकतरफा संप्रेषण जरूर कहा जा सकता है. जूम, गूगल मीट माइक्रोसाॅफ्ट टीम जैसे ऐप्स की मदद से शिक्षण को प्रभावी और संपूर्ण बनाने के प्रयास शिक्षकों ने निश्चित रूप से किए. और वह विद्यार्थियों के लिए काफी कुछ फायदेमंद होंगे ऐसी उम्मीद है.
ऑनलाइन शिक्षण ने वास्तव में कई शिक्षकों को अपडेट भी किया है. वीडियो मेकिंग से लेकर उसे फेसबुक या यू-ट्यूब पर डालने की प्रक्रिया में शिक्षकों ने महारत हासिल की. वस्तुतः आपातकालीन इन स्थितियों में फौरी तौर पर तकनीकी का यह प्रयोग निस्संदेह कई रूपों में फायदेमंद रहा और अभी जैसा कि संभावनाएं व्यक्त की जा रही हैं कि जुलाई-अगस्त में संक्रमण का भयावह दौर आ सकता है, इस हिसाब से निकट भविष्य में भी फायदेमंद रहने वाला है. मानसिक और मनोवैज्ञानिक स्तर की कई के निदान इससे स्वतः ही हो गए. ‘कुछ न करने या न कर पाने’ की विवशता से जो लाचारी, बोरियत निराशा घुटन ऊब धीरे-धीरे हावी होती उससे कई हद तक स्वतः ही छुटकारा मिल गया. चूँकि पढ़ाया जा रहा कंटैंट सार्वजनिक हो रहा है तथा उसमें अभिभावकों व समाज की सीधी घुसपैठ और तीखी नजर है तो शिक्षक अतिरिक्त परिश्रम भी कर रहा है, इसमें कोई दो राय नहीं. कक्षा शिक्षण की रटी-रटायी शिक्षण पद्धति में भी परिवर्तन हुआ और यह परिवर्तन कई तरीके से भविष्य में भी लाभदायक रहेगा ऐसी उम्मीद की जानी चाहिए. बच्चों के लिए खालीपन, बैठे-बैठे टी.वी. देखने, वीडियो गेम खेलकर या ऑनलाइन गेम खेलकर आँखें खराब करने से बचने में भी इस ऑनलाइन शिक्षण ने मदद पहुॅंचायी.
हमारे देश में जहाँ आज भी सम्पूर्ण आबादी के 35 प्रतिशत लोगों तक इंटरनेट की सुविधा सुलभ नहीं है, वहाँ केरल जैसी दुर्घटनाओं की पुनरावृत्ति का अंदेशा निर्बाध रूप से बना ही हुआ है.
इस प्रकार अभिभावकों के बी.पी. को नियन्त्रित रखने और बच्चों को ऊब से उभारने में यह शिक्षण निस्संदेह रूप से सहायक रहा और रहेगा यह तस्वीर का उज्ज्वल व सुखद पक्ष है. इसी तस्वीर का एक पक्ष और भी है जो इतना उज्जवल व सुखद नहीं है तथा उसके एक पहलू की ओर मैं लेख के आरम्भ में ही संकेत कर चुकी हूँ. हमारे देश में जहाँ आज भी सम्पूर्ण आबादी के 35 प्रतिशत लोगों तक इंटरनेट की सुविधा सुलभ नहीं है, वहाँ केरल जैसी दुर्घटनाओं की पुनरावृत्ति का अंदेशा निर्बाध रूप से बना ही हुआ है. लॉकडाउन के कारण वैसे ही लोगों की रोजी-रोटी छिन गई है. ऐसे में वे लोग किस तरह एन्ड्रॉयड फोन लेंगे यह विचारणीय प्रश्न है और किसी प्रकार एन्ड्रॉयड फोन की व्यवस्था उन्होंने कर भी ली तो वीडियो वगैरह के लिए डेटा आदि पर आने वाली कीमतों का भुगतान वह कैसे करेंगे?
अभी हाल ही में समाचार पत्रों में बागेश्वर जिले के सुदूरवर्ती गाँव के युवक के बारे में खबर आयी थी की वह अपने असाइण्टमेंट ऑनलाइन जमा करने 17 किमी. दूर आ रहा था. गाँवों में कमोवेश यह स्थिति हर दूसरे-तीसरे बच्चे की है. ये वो बच्चे हैं जिनके लिए सरकार मध्याह्न भोजन योजना के माध्यम से चावल एवं खाद्य भत्ता उपलब्ध करवाने के लिए विवश है. ऐसे बच्चों के पास ऑनलाइन अध्ययन के लिए जरूरी तकनीकी उपकरण होंगे यह कल्पना ही अपने आप में हास्यास्पद लगती है. कई छात्र-छात्राओं ने अपने बड़े भाई-बहिनों के फोन नंबर दिये हैं तो कई पड़ोसियों की दया पर भी आश्रित हैं. मध्यम वर्गीय बच्चों के लिए यह तकनीकी निश्चित रूप से’कुछ नहीं से तो कुछ सही‘ वाले कथन को चरितार्थ करती है, लेकिन निम्नवर्गीय उन बच्चों के लिए, जिन्हें इस ‘कुछ‘ के लिए ही संघर्ष करना पड़ रहा है, उनके बारे में सोच कर देखिए तो तस्वीर काफी निराशाजनक है. हमारे कई तथाकथित शिक्षाविद अति उत्साह में इसे भविष्य की शिक्षण पद्धति बताते हुए आशाओ एवं सपनों के ऊँचे-ऊँचे पुल बाँध रहे हैं लेकिन यह इन शिक्षाविदों की सोची समझी उसी रणनीति का हिस्सा है जिसमें मजदूर का बेटा मजदूर और अधिकारी का बेटा अधिकारी बनता है. यह शिक्षण पद्धति वैसे भी राइट टू एजूकेशन का खुले आम उल्लंघन है. सबसे बड़ा प्रश्न यह है कि क्या यह वास्तव में शिक्षण है? या मात्र सूचनाओं का एकतरफा संप्रेषण? शिक्षण दुतरफा प्रक्रिया है जिसमें संवाद का होना जरूरी है.
प्रॉब्लम-रिसपॉन्स या कहें समस्या-समाधान का एक अनवरत् सिलसिला शिक्षण में चलता रहता है. शिक्षण की प्रक्रिया में छात्रों के कुछ न बोलने पर भी उनकी भाव-भंगिमाएं शिक्षक को बता देती हैं कि उसकी बात कितने प्रतिशत बच्चों तक पहुँच रही है. कहाँ उसे अपनी शब्दावली को सरल करना है कहाँ पर रुक कर कुछ और बताना है या कहाँ अवान्तर प्रसंग के माध्यम से बच्चें को समझाना है? ऐसे अनगिनत प्रश्न, समस्याएं व स्थितियाँ शिक्षण के दौरान आती हैं जब शिक्षक एवं विद्यार्थी अपनी अपनी क्रिया-प्रतिक्रिया के माध्यम से शिक्षण-अधिगम को प्रभावी व सफल बनाते हैं. यह सुविधा ऑनलाइन टीचिंग में संभव कहाँ है? चालीस-पैंतालीस मिनट की कक्षा में कई बार ठहाके लगते हैं, कई बार आवाज का उतार-चढ़ाव बदलता है, जो सब स्वाभाविक रूप से होता रहता है. भावात्मक डोरी पर टिकी गुरु-शिष्य के बीच का संबंध एक छोटी सी बात से कभी प्रगाढ़ बन जाता है तो कभी शीशे की तरह चकनाचूर भी हो जाता है. विद्यार्थी के संपूर्ण व्यक्तित्व विकास के लिए कक्षा शिक्षण का कोई विकल्प नहीं है, अन्यथा तकनीकी रूप से समृद्ध देश विद्यालयों पर कभी का ताला लगा चुके होते. वस्तुतः एक छोटी सी कविता जिसको पढ़ाने में कभी-कभी दो से तीन दिन लग जाते हैं उसको 8 या 10 मिनट के वीडियो मे समेटना शिक्षक से अभिनय के अतिरिक्त और कुछ नहीं माँगता है.
आज जब भविष्य अंधकार के गर्त में हो, आने वाले संकट की तीव्रता का अनुमान लगाना कठिन हो, ऐसे में भले ही ऑनलाइन शिक्षण की पूरी ही कवायद कुछ परम्परावादी लोगों को व्यर्थ लग रही है किन्तु नहीं भूलना चाहिए कि आशा और स्वप्न ही जिजीविषा को मजबूती प्रदान करते हैं.
कोरोना संक्रमण की इस आपातकालीन जीवन व्यवस्था में हमें बदलना होगा और इसकी शुरुआत हो भी चुकी है. समय, परिस्थिति व घटनाएं जिस हिसाब से परिवर्तित हो रही हैं, उस हिसाब से परिवर्तन करना ही जीवित रहने की शर्त है. यह सही है कि ऑनलाइन टीचिंग के अपने फायदे और नुकसान हैं. हर सिक्के की तरह इसके भी दो पहलू हैं. यहाँ पर सरकार को थोड़ा जिम्मेदारी का निर्वहन करते हुए शिक्षा के लिए समर्पित चैनल बनाकर प्रभावी शिक्षण विडीयोज को फ्री टु एअर कर देना चाहिए जिससे सुदूरवर्ती छात्र को भी बिना किसी अतिरिक्त व्यय-भार के अपनी जिज्ञासाएं शांत करने का साधन मिल जाएगा. यह प्रशंसनीय कदम सरकार द्वारा निश्चित रूप से उठाया भी गया है जिसके प्रभावी कार्यान्वयन की अपेक्षा अभी भी बनी हुई है. आज जब भविष्य अंधकार के गर्त में हो, आने वाले संकट की तीव्रता का अनुमान लगाना कठिन हो, ऐसे में भले ही ऑनलाइन शिक्षण की पूरी ही कवायद कुछ परम्परावादी लोगों को व्यर्थ लग रही है किन्तु नहीं भूलना चाहिए कि आशा और स्वप्न ही जिजीविषा को मजबूती प्रदान करते हैं.
(लेखिका रा.बा.इं. कॉलेज द्वाराहाट, अल्मोड़ा में अंग्रेजी की अध्यापिका हैं)