- अशोक जोशी
पिछले कुछ सालों से मैं उत्तराखंड के बारे में अध्ययन कर रहा हूं और जब भी अपने पहाड़ों के तीज-त्योहारों, मेलों, मंदिरों, जनजातियों, घाटियों, बुग्यालो, वेशभूषाओं, मातृभाषाओं, लोकगीतों, लोकनृत्यों, धार्मिक यात्राओं, चोटियों, पहाड़ी फलों, खाद्यान्नों, रीति-रिवाजों के बारे में पढ़ता हूं तो खुद को गौरवान्वित महसूस करता हूं कि मैंने देवभूमि उत्तराखंड के गढ़देश गढ़वाल में जन्म लिया है.
शिक्षा, स्वास्थ्य, रोजगार जैसे संसाधनों के अभाव में हमारे लोग रोजी—रोजी की तलाश में महानागरों की ओर पलायन किया है. समय के साथ-साथ पहाड़ों से पलायन इस कदर होने लगा कि गांव—गांव के खाली होने लगे। हमारे पहाड़ की समृद्ध मातृ भाषा (गढ़वाली—कुमाऊंनी), सहयोगात्मक लोक परंपराएं, पहाड़ी भोज्य पदार्थ (आलू, मूली की थींचवाणी, गहत का फाणू, भट की भट्टवाणी आदि) धार्मिक क्रियाकलाप (रामलीला, पांडवलीला, मंदिरों में नवरात्र का आयोजन आदि) पहाड़ों तक ही सीमित रह गए।
आज हमारी संस्कृति विलुप्ता के कगार पर पहुंच चुकी है। हमारे कई ऐसे प्रवासी पहाड़ी नवयुवा छात्र हैं जो पहाड़ी वृक्ष बॉंज, (उत्तराखंड का वरदान वृक्ष) वाद्य यंत्र ढोल, (उत्तराखंड का राजकीय वाद्य यंत्र) पहाड़ी फल काफल, (उत्तराखंड का राजकीय फल) लोक गायक गढ़ रत्न नरेंद्र सिंह नेगी जी, राज्य की प्रथम महिला लोक गायिका कबूतरी देवी, (तीजन बाई) प्रथम महिला जागर गायिका बसंती बिष्ट जी से अनभिज्ञ है।
वे उत्तराखंडी सिनेमा (गढ़वाली एवं कुमाऊंनी) से अपरिचित हैं. वह गढ़वाली बोली की पहली फिल्म (जग्वाल), कुमाऊंनी बोली की पहली फिल्म (मेघा आ) से भी अनभिज्ञ हैं. गढ़वाली सिनेमा की सबसे सफल फिल्म (घरजवैं) के बारे में भी उन्हें कोई खास जानकारी नहीं है. उन्हें यह भी नहीं मालूम कि अजयपाल, कप्फू चौहान, माधो सिंह भंडारी कौन थे? ईगास (दीपावली के 11 दिन बाद मनाए जाने वाली बग्वाल) क्या है? वे पहाड़ी संस्कृति से जुड़ी हुई तमाम बातों से अज्ञात हैं. आज की युवा पीढ़ी बॉलीवुड और हॉलीवुड सिनेमा कि खूब जानकारी रखती है. वे बॉलीवुड के सभी गायकों से परिचित हैं, वे क्रिसमस डे से भलीभांति वाकिफ़ है. किंतु अपनी संस्कृति से ना जुड़ पाने के पीछे आखिर क्या कारण है? मैं मानता हूं कि इसके पिछे काफी हद तक हमारे अभिभावकों का ही हाथ है जो अपने बच्चों को अपनी संस्कृति से परिचित नहीं करवा पा रहे हैं, उनमें अपनी जड़ों से जुड़ने की ललक पैदा नहीं कर पा रहे हैं.
यह कैसी विडंबना है कि जिन युवाओं ने मिलकर आज अपने पहाड़ को आधुनिकता में लाना था, वही आज दूसरी संस्कृतियों की आधुनिकता में खुद को ढाल रहे हैं. शहरों में रहने वाले हमारे पहाड़ के कई ऐसे लोग हैं, जो गढ़वाली बोली को जानने के बाद भी बोलना नहीं चाहते हैं, आज हमारे कई भाई—बंधु, दीदी—भूली शहरों की आड़ में अपने पहाड़ियों के साथ भी हिंदीभाषी हो गए हैं. यदि इस पर गौर किया जाए तो यह बेहद गंभीर एवं चिंतनशील विषय है. गढ़वाली—कुमाऊंनी हमारी बोली होने के साथ-साथ हमारी सांस्कृतिक पहचान भी है.
आइए, हम सब मिलकर अपनी बोली, भाषा एवं समृद्ध परंपराओं के संरक्षण के लिए आगे बढ़ें और शपथ लें कि हम अपनी बोली—भाषा को जरूर बचाएंगे. जैसा कि विदित है, इस वक्त संपूर्ण विश्व कोरोना कि वैश्विक महामारी को झेल रहा है, वहीं इस दौरान हमारे प्रवासी भाई-बहन रिवर्स पलायन कर अपने पहाड़ों की ओर लौट रहे हैं. इस दुख की घड़ी में भी हमने अपने व अपने समाज के लिए, अपने पहाड़ के लिए सुख देखना है। क्यों ना अब हम अपने पहाड़ों के विकास का मार्ग स्वयं प्रशस्त करना है, पहाड़ों में ही कुछ ऐसा स्वरोजगार विकसित करना होगा। जिसमें कृषि, पशुपालन,मत्स्य पालन के साथ—साथ खेती—किसानी, बागवानी की ओर ध्यान देना होगा। उनको आधुनिक ढंग से करना होगा ताकि वह हमारे लिए रोजगार परक बन सकें. इन सभी कार्यों को करने के लिए हम सभी को मजबूती के साथ दृढ़ संकल्पित व समर्पित होने की आवश्यकता है।
(लेखक गुरुकुल कांगड़ी विश्वविद्यालय, हरिद्वार में अध्ययनरत हैं)