हिमालयीय वनस्पति ‘र् वेंण’ सुहागिनों की सिंदूर-फली

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  • डा. मोहन चंद तिवारी

संस्कृत- ‘कम्पिल्लक’  हिंदी- ‘कमीला’,  Mallotus philippensis

लगभग आठ वर्ष पूर्व जम्मू-कश्मीर हिमालय में मां वैष्णो देवी के दर्शन करने के दौरान शिवखोड़ी की लगभग 4 कि.मी.की पैदल यात्रा करने का अवसर मिला तो वहां जंगलनुमा रास्ते में कम्पिल्लक के वृक्षों में लटकते ‘कमीला’ के because सिन्दूरी फलों को देखकर अपने गांव जोयूं, उत्तराखंड की वह याद ताजा हो आई जब मैं बचपन में अपने चाचा जी के साथ ‘र् वेंण’ के वृक्षों में लगे फलों से लाल रंग का पराग टटकाया करता था. चाचा जी ने बताया था कि इस फल के लाल पराग को माथे पर तिलक करने के लिए प्रयोग में लाया जाता है. पुराने जमाने में इसी रोली से स्त्रियां अपने सुहाग का सिन्दूर भरती थी.हमारे पाली पछाऊं में इसे ‘र् वेंण’ का फल कहा जाता है.

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शिव खोड़ी के मार्ग में पड़ने वाले मन्दिर मैं ठहरे एक साधु महात्मा ने यह बताकर मेरी जिज्ञासा को और बढ़ा दिया कि जम्मू-कश्मीर के स्थानीय लोग इसे ‘कमीला’ कहते हैं. इस के बारे में वहां ऐसी मान्यता है कि इसकी फली से because सुहागिनों का सौभाग्य बढ़ाने वाला सिंदूर निकलता है. वन प्रवास के दौरान माता सीता इसी फल के पराग को अपनी मांग में लगाती थीं और महाबली हनुमान माता सीता को प्रसन्न करने के लिए इसी सिंदूर फली का लेप अपने तन पर लगाया करते थे. शिवखोड़ी के जंगलों में बन्दरों का भी बाहुल्य है. वे कमीला के पेड़ों में खूब उछल कूद मचा रहे थे.

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लौटते समय एक अद्भुत दृश्य देखा कि इन कमीला के पेड़ों पर लगे फलों के लाल पराग को हरे रंग की टिड्डियां मदमस्त होकर चाट रही थीं. टहनियां हिलाने पर भी ये टिड्डियां नहीं हटती थीं. कुमाऊनी भाषा में इन हरी टिड्डियों को because ‘ग्वाई’ कहते हैं. ये वृक्षों के पत्तों पर जो लारनुमा द्रव्य छोड़ती हैं उसे उत्तराखंड के स्थानीय लोगों द्वारा बच्चों के हाथ-पांव की फटी त्वचा के उपचार हेतु प्रयोग में लाया जाता है. बालक-बालिकाओं की रक्षिका होने के कारण इन्हें ‘ग्वाई’ कहा जाता है. मैं इस दृश्य को देख कर अपनी अज्ञानता पर हंस रहा था कि हम मनुष्य होकर भी इस वन सम्पदा के प्रति कितने अनजान हैं मगर यह टिड्डा इस वनस्पति के गुणों को जानता है इसलिए बड़े तन्मय भाव से इसके फलों का रस ले रहा है.

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बीस से पच्चीस फीट ऊंचे इस वृक्ष में फली गुच्छ के रूप में लगती है. फली का आकार मटर की फली की तरह होता है व शरद ऋतु खासकर दिसम्बर-जनवरी में वृक्ष फलों से लद जाता है. फलों के अंदर भाग का आकार भी मटर because की फली जैसा होता है जो लाल रंग के पराग से ढके होते हैं जिसे बिना कुछ मिलाए विशुद्ध सिंदूर, रोरी, कुमकुम की तरह प्रयोग किया जाता है.यह वृक्ष भारत में  हिमालय के पहाड़ी क्षेत्रों जम्मू-कश्मीर,  उत्तराखंड के अतिरिक्त चीन, वर्मा, सिंगापुर, मलाया, लंका, अफ्रीका आदि में भी पाया जाता है.

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सरोखनपुर निवासी वैद्य हनुमानदीन गुप्त ने बताया कि वर्ष because 2002 में माता वैष्णो देवी दर्शन के बाद लौटते समय एक महात्मा ने उन्हें कम्पिल्लक पौधा प्रसाद के रूप में प्रदान किया था. लगाने के तीन-चार साल बाद इसमें फल आने लगे. शिव खोड़ी के दक्षिण भारतीय दर्शनार्थी कम्पिल्लक के पत्तों और फलों को प्रसाद के रूप में ग्रहण करते हैं. इस के लाल पराग का तिलक या लेप आयुर्बलवर्धक एवं मानसिक शांति प्रदान करता है.

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उत्तराखंड के कुमाऊं में इस वनस्पति को  ‘र् वेंण’ because तथा गढवाल में इसे ‘र् यूण’ कहते हैं. संस्कृत भाषा में इसे कम्पिल्लक, रक्तांग रेची, रक्त चूर्णक कहते हैं. लैटिन में यह ‘मालोटस, फिलिपिनेसिस’ Mallotus philippinensis नाम से प्रसिद्ध है. कमीला को रोरी, सिंदूरी, कपीला, कमूद, रैनी, सेरिया आदि अनेक नामों से भी जाना जाता है.

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भावप्रकाशनिघण्टु के अनुसार कमीला को आयुर्वेद में काम्पिल, कर्कश, because चन्द्र, रक्तांग, और रोचन कहते हैं. चिकित्सा की दृष्टि से यह कफ, रक्तपित्त, कृमि, गुल्म, उदररोग एवं व्रण (घाव) को दूर करता है. गुण की दृष्टि से यह रेचक, कटुरस युक्त, और ऊष्णवीर्य है तथा प्रमेह, आनाह विष तथा पथरी रोग को नष्ट करता है-

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”काम्पिल्लः कर्कश्चन्द्रो रक्तांगो so रोचनोऽपि च.काम्पिल्लः कफपित्तास्रकृमिगुल्मोदरव्रणान्.
हन्ति रेची कटूष्णश्य but मेहानाहविषाश्मनुत्..”
-भावप्रकाशनिघण्टु, because हरीतक्यादिवर्ग

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औषधीय गुणों से भरपूर कमीला को दर्जनों रोगों because के उपचार हेतु प्रयोग किया जाता है. हमारे पेट में कुछ परजीवी कृमि अपना आसरा बनाकर आतों क़ी श्लेष्मा झिल्ली को नुकसान पहुंचाते हैं. आयुर्वेद में 20 प्रकार के इन कृमियों की चिकित्सा हेतु कुछ अचूक नुस्खे बताए गए हैं. धर्मदत्त वैद्य के ‘आधुनिक चिकित्सा शास्त्र'(पृ.84) के अनुसार कद्दू दाने के समान कृमि को आंत से बाहर निकालने के लिए तीन माशा कमीला यानी ‘कम्पिल्लक’  एक तोला गुड़ के साथ मिलाकर तीन दिन तक रात को खिलाया जाता है जिससे यह कृमि बाहर आ जाता है.

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आयुर्वेद में बताये गए एक दूसरे नुस्खे के अनुसार वायविडंग, because सैंधा नमक, यवक्षार, एपलास के बीज, अजवायन,हरड एवं कम्पिल्लक को समभाग मिलाकर चूर्ण बनाकर 4-6 ग्राम क़ी मात्रा में गुड के साथ खिलाने से पेट के कृमी मर कर बाहर निकल जाते हैं. किन्तु इन नुस्खों का प्रयोग योग्य चिकित्सक के परामर्श से ही करना चाहिए.

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इटहरा गांव निवासी वैद्य शीतला प्रसाद मिश्र का दावा है because कि कमीला औषधीय गुणों से भरपूर है. इससे अनेक रोगों का उपचार होता है. शरीर की चेष्टावह नाड़ियों, अवसादक अन्नववाहक प्रणाली पर इसकी प्रक्षोभक क्रिया होती है. त्वचा रोग के उपचार में इसका प्रमुख रूप से प्रयोग किया जाता है.

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हिमालय के तीर्थ क्षेत्रों में संरक्षित रहने वाला but हमारा यह वानस्पतिक पौधा  ‘र् वेंण’ आयुर्वेद और जैव जगत् के संरक्षण की दृष्टि से मानव मात्र के लिए भी बहुत उपयोगी है. मातृ स्वरूपा हिमालय प्रकृति इस  वनौषधि का संरक्षण किए हुए है.किन्तु इसके चिकित्सा वैज्ञानिक महत्त्व से आधुनिक पीढ़ी के लोग कम ही परिचित हैं.

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(लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय के  so रामजस कॉलेज से एसोसिएट प्रोफेसर के पद से सेवानिवृत्त हैं. एवं विभिन्न पुरस्कार व सम्मानों से सम्मानित हैं. जिनमें 1994 में ‘संस्कृत शिक्षक पुरस्कार’, 1986 में ‘विद्या रत्न सम्मान’ और 1989 में उपराष्ट्रपति डा. शंकर दयाल शर्मा द्वारा ‘आचार्यरत्न देशभूषण सम्मान’ से अलंकृत. साथ ही विभिन्न सामाजिक संगठनों से जुड़े हुए हैं और देश के तमाम पत्र—पत्रिकाओं में दर्जनों लेख प्रकाशित.)

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