अंतर्राष्ट्रीय योग दिवस: समग्र जीवन का उत्कर्ष है योग

अंतर्राष्ट्रीय योग दिवस (21 जून, 2022)  पर विशेष

प्रो. गिरीश्वर मिश्र 

आज के सामाजिक जीवन को देखें तो यह स्पष्ट हो जाता है कि हर कोई सुख, स्वास्थ्य, शांति और समृद्धि के साथ जीवन में प्रमुदित और प्रफुल्लित अनुभव करना चाहता है. इसे ही जीवन का उद्देश्य स्वीकार कर मन में इसकी अभिलाषा लिए because आत्यंतिक सुख की तलाश में सभी व्यग्र हैं और सुख है कि अक्सर दूर-दूर भागता नजर आता है. आज हम ऐसे समय में जी रहे हैं जब हर कोई किसी न किसी आरोपित पहचान की ओट में मिलता है. दुनियावी व्यवहार के लिए पहचान का टैग चाहिए पर टैग का उद्देश्य अलग-अलग चीजों के बीच अपने सामान को खोने से बचाने के लिए होता है. टैग जिस पर लगा होता है उसकी विशेषता से उसका कोई लेना-देना नहीं होता.

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आज हमारे जीवन में टैगों का अम्बार लगा हुआ है और टैग से जन्मी इतनी सारी भिन्नताएं हम सब ढोते चल रहे हैं. मत, पंथ, पार्टी, जाति, उपजाति, नस्ल, भाषा, क्षेत्र, इलाका समेत जाने कितने तरह के टैग भेद का आधार बन जाते हैं because और हम उसे लेकर एक दूसरे के साथ लड़ने पर उतारू हो जाते हैं. हम भूल जाते हैं कि टैग से अलग भी हम कुछ हैं और इनसे इतर हमारा कोई वजूद है. पर बाहर दिखने वाला प्रकट रूप ही सब कुछ नहीं होता. कुछ आतंरिक और सनातन स्वभाव भी हैं जो जीवन और अस्तित्व से जुड़ा होता है. ऊपरी पहचान वाली खंडित दृष्टि निरन्तर असंतोष और अभाव के टीस के साथ कचोटने वाली होती है.

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हमारी पहचान (टैग) हमें दूसरों से अलग करती है और सार्वभौमिक मनुष्यता और चैतन्य के बोध से दूर ले जाती है. धरती पर रहने वाले सभी मनुष्य शारीरिक बनावट में एक से प्राणी हैं. सभी जन्म लेते हैं, जीते हैं और अंत में मृत्यु को प्राप्त करते हैं. because जीवन-काल में हममें चेतना होती हैं. हम सभी पीड़ा और दुःख महसूस करते है. जो भौतिक सूचना हमारे आतंरिक और बाह्य ज्ञानेन्द्रियों से मिलती है हम सब उसका निजी अनुभव करते हैं. विकसित मस्तिष्क के चलते मनुष्य के पास तर्क, बुद्धि, संवेग, कल्पना और स्मृति की क्षमताएं भी होती हैं जिनके साथ संस्कार बनते हैं. इन सबके साथ मनुष्य भावनाओं और संवेगों की अनोखी दुनिया में भी जीता है. इस तरह हमारी चित्त वृत्तियाँ बहिर्मुखी होती हुई एक ऐसे संजाल में प्रवृत्त करती हैं.

मानसिक रोगों की बहुतायत भौतिक जगत से कहीं ज़्यादा हमारे मानसिक जगत की बनती-बिगड़ती बनावट और बुनावट पर निर्भर करती है. इसलिए उसकी देखभाल ज़रूरी लगती है. इसके लिए व्यक्ति को अपने जीवन की प्रक्रिया को सतत नियमित करते रहने की ज़रूरत है.

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ऐसे में यह बात अत्यंत महत्त्व की हो जाती है कि हम अपने आप को किस तरह देखते और पहचानते हैं. जब हम आरोपित पहचान (या टैग) के हिसाब से चलते हैं तो हमारी आशाएं-आकांक्षाएं भी आकार लेती हैं. उन्हीं के अनुरूप हम because दूसरों के साथ बर्ताव भी करते चलते हैं. इस जद्दोजहद में आभासी, अस्थायी और संकुचित आधार वाली जीवन शैली अपनाते हैं और ऐसी भागमभाग वाली दौड़ में शामिल हो जाते हैं जिसके चलते घोर प्रतिस्पर्धा जन्म लेती है. एक दूसरे से आगे बढ़ने के चक्कर में हर कोई दूसरे का अतिक्रमण करने को तैयार है. इस तरह वैमनस्य की नींव पड़ती है और बड़ी जल्दी ही आक्रोश और हिंसा का रूप लेने लगती है. ऐसे में अनिश्चय, असंतोष और पारस्परिक तुलना के कारण तनाव और चिंता के भाव लगातार डेरा डाले रहते हैं.

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आज बड़ी संख्या में लोग अवसाद (डिप्रेशन) और कई तरह की दूसरी अस्वस्थ मनोदशाओं के शिकार हो कर मनोरोगियों की श्रेणी में पहुँचने लगे हैं. मानसिक विकारों की सूची लम्बी होती जा रही है और अमीर हो या गरीब सभी उसमें शामिल because हो रहे हैं. विश्व स्वास्थ्य संगठन की रपट के अनुसार आज विकसित और विकासशील दोनों तरह के देश इस तरह की भयावह हो रही परिस्थिति की ओर आगे बढ़ रहे हैं. गौरतलब है कि मानसिक रोगों की बहुतायत भौतिक जगत से कहीं ज़्यादा हमारे मानसिक जगत की बनती-बिगड़ती बनावट और बुनावट पर निर्भर करती है. इसलिए उसकी देखभाल ज़रूरी लगती है. इसके लिए व्यक्ति को अपने जीवन की प्रक्रिया को सतत नियमित करते रहने की ज़रूरत है.

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सतही तौर पर देखें तो जीवन एक स्वतःचालित यांत्रिक प्रक्रिया जैसा लगता है जो किसी चाभी भरे खिलौने की तरह चलता रहता है पर यह तुलना आंशिक रूप से ही ठीक बैठती है क्योंकि जीवन का एजेंडा स्वाभाविक रूप से विकसनशील होता है. because अर्थात् वह पूरी तरह पूर्व निर्धारित न हो कर देश-काल के सापेक्ष्य उत्तरोत्तर नए-नए आकार लेता चलता है. उसमें  सर्जनात्मक संभावना का बीज छिपा रहता है . पर इन सबसे बड़ी बात यह है कि इस पूरी परियोजना में स्व या आत्म की भी बड़ी नियामक और निर्णायक भूमिका होती है जो स्वयं में एक सृजनशील रचना है.

अभ्यास का आशय योग का अभ्यास है जो हमें अपने मानसिक जगत को शांत और स्थिर रखने के because लिए ज़रूरी है. दूसरी ओर बाह्य जगत के साथ अनुबंधित होने से बचाने के लिए वैराग्य ( या अनासक्ति ) भी अपनानी होगी.  वस्तुतः दोनों एक दूसरे के पूरक हैं और एक के बिना दूसरा सम्भव भी नहीं है. बाहर की दुनिया ही यदि अंदर भी भरी रहे तो अंतश्चेतना विकसित नहीं होगी. इसलिए अभ्यास (योग) वैराग्य का सहायक या अनुपूरक समझा जाना चाहिए.

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दुर्भाग्य से बाहर की दुनिया का प्रभाव इतना गहरा और सबको ढँक लेने वाला होता है कि वही हमारा लक्ष्य या साध्य बन जाती है और उसी से ऊर्जा पाने का भी अहसास होने लगता है . हम अपनी अंतश्चेतना को भूल बैठते हैं. और यह भी कि बाह्य चेतना और अंतश्चेतना परस्पर सम्बन्धित हैं. मनुष्य खुद को विषय और विषयी ( सब्जेक्ट और ऑब्जेक्ट ) दोनों रूपों में ग्रहण कर पाता है. मनन करने की क्षमता का माध्यम और परिणाम आत्म-नियंत्रण से जुड़ा हुआ है. भारतीय परम्परा में आत्म-नियंत्रण पाने के उपाय के रूप में अभ्यास और वैराग्य की युक्तियाँ सुझाई गई है. इसमें अभ्यास आंतरिक है वैराग्य बहिर्मुखी. अर्थात् अंदर और बाहर दोनों का संतुलन होना आवश्यक है.

अभ्यास का आशय योग का अभ्यास है जो हमें अपने मानसिक जगत को शांत और स्थिर रखने के because लिए ज़रूरी है. दूसरी ओर बाह्य जगत के साथ अनुबंधित होने से बचाने के लिए वैराग्य ( या अनासक्ति ) भी अपनानी होगी.  वस्तुतः दोनों एक दूसरे के पूरक हैं और एक के बिना दूसरा सम्भव भी नहीं है. बाहर की दुनिया ही यदि अंदर भी भरी रहे तो अंतश्चेतना विकसित नहीं होगी. इसलिए अभ्यास (योग) वैराग्य का सहायक या अनुपूरक समझा जाना चाहिए. इसके लिए विवेक की परिपक्वता चाहिए जिसके लिए जगह बनानी होगी. आज के दौर में अन्तश्चेतना और बाह्य चेतना दोनों की ओर ध्यान देना ज़रूरी है. आनंद की तलाश तभी पूरी हो सकेगी जब हम अपने ऊपर नियंत्रण करें और परिवेश के साथ समर्पण के साथ उन्मुख न हों बल्कि संतुलित रूप से जुड़ें. पूर्णता अंदर और बाहर की दुनिया के बीच संतुलन बनाने में ही है.

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महर्षि पतंजलि यदि योग को चित्त वृत्तियों के निरोध के because रूप में परिभाषित करते हैं तो उनका आशय यही है अपने आप को बाहर की दुनिया में लगातार हो रहे असंयत बदलावों को अनित्य मानते हुए अपने मूल अस्तित्व को उससे अलग करना क्योंकि वे बदलाव और ‘टैग’ तो बाहर से आरोपित हैं आत्म पर आरोपित हैं न कि (वास्तविक) आत्म हैं. आदि शंकराचार्य ने इन्हें उपाधि कहा है जो आती जाती रहती है.

योग को अपनाना मनुष्य के लिए अस्तित्व के दायरे का विस्तार है. यह उसके लिए अपने समग्र अस्तित्व की  वह तलाश है जो  उत्कर्ष का  मार्ग प्रशस्त करती  है. अष्टांग योग जीवन के पूरे विस्तार को आत्मसात करता because है जिसमें निजी और सामाजिक आचरण  के साथ आरम्भ कर आध्यात्मिक विकास की पूरी यात्रा शामिल है.

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मिथ्या किस्म की चित्त-वृत्तियाँ जिनको महर्षि पतंजलि ने क्लिष्ट चित्त-वृत्ति की श्रेणी में रखा है भ्रम और अयथार्थ को जन्म देती हैं. तब  हम उनके प्रभाव में स्वयं को वही (भ्रम रूप/टैग!) समझने लगते हैं. इससे बचने का उपाय योग हैं because और उससे द्रष्टा अपने स्वरूप में वापस आ पाता है. योग द्वारा आत्म-नियंत्रण स्थापित होना हमारी घर वापसी की राह है. तब हम अपने में स्थित हो पाते हैं यानी स्वस्थ होते हैं.

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योग को अपनाना मनुष्य के लिए अस्तित्व के दायरे का विस्तार है. यह उसके लिए अपने समग्र अस्तित्व की  वह तलाश है जो  उत्कर्ष का  मार्ग प्रशस्त करती  है. अष्टांग योग जीवन के पूरे विस्तार को आत्मसात करता because है जिसमें निजी और सामाजिक आचरण  के साथ आरम्भ कर आध्यात्मिक विकास की पूरी यात्रा शामिल है. अक्सर इसे चरणों के रूप में लिया जाता है और यह बात भी कुछ लोगों के मन में उठती है कि ऊपर के चरणों पर उत्तरोत्तर आगे बढ़ते हुए नीचे के चरण कम महत्त्व के हो जाते हैं और यह भी कि सभी चरण एक दूसरे से स्वतन्त्र हैं. ये दोनों ही धारणाएं भ्रामक हैं. योग के सभी चरण परस्पर सम्बद्ध हैं और एक  दूसरे को पुष्ट करते हैं. वस्तुतः योग समग्र जीवन को परिचालित करने वाला मैनुअल सरीखा है और भारत का मनुष्यता के लिए अनुपम उपहार है.

(लेखक शिक्षाविद् एवं पूर्व कुलपतिमहात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय वर्धा हैं.)

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