उत्तराखंड की संस्कृति पर गुमान था कवि गुमानी को

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डॉ. मोहन चंद तिवारी

अगस्त का महीना आजादी,देशभक्ति और राष्ट्रीयता की भावनाओं से जुड़ा एक खास महीना है. इसी महीने का 4 अगस्त का दिन मेरे लिए इसलिए भी खास दिन है क्योंकि इस दिन 24 वर्ष पूर्व 4 अगस्त,1996 को गुमानी पंत के योगदान पर राष्ट्रीय समाचार पत्र ‘हिदुस्तान’ के रविवासरीय परिशिष्ट में ‘अपनी संस्कृति पर गुमान था कवि गुमानी को’ इस शीर्षक से मेरा एक लेख छपा था. मैंने दूसरे समाचार पत्रों में भी इसे कई बार प्रकाशनार्थ भेजा था लेकिन उन्होंने छापा नहीं, क्योंकि ज्यादातर राष्ट्रीय स्तर के सम्पादकों की मानसिकता होती है कि वे कुमाऊंनी कवि या कुमाऊंनी साहित्य से सम्बंधित लेखों को आंचलिक श्रेणी का मानते हुए राष्ट्रीय समाचार पत्रों में ज्यादा महत्त्व नहीं देते हैं.हालांकि नवरात्र और शक्तिपूजा और पर्व-उत्सवों पर ‘नवभारत टाइम्स’ और ‘हिंदुस्तान’ आदि समाचार पत्रों में मेरे लेख सन् 1980 से छपते रहे हैं. किंतु कुमाऊंनी साहित्य पर किसी राष्ट्रीय समाचार पत्र में छपा यह मेरा पहला लेख था. इसलिए आदिकवि गुमानी पर लिखे इस लेख को मैं एक यादगार लेख मानता हूं कि इस लेख को एक राष्ट्रीय समाचार पत्र में उस दौर में स्थान मिल पाया जब उत्तराखंड राज्य बना भी नहीं था.

तीन दशक पहले सन् 1990 में कुमाऊं विश्वविद्यालय, नैनीताल में गुमानी पंत की द्विशताब्दी समारोह के उपलक्ष्य में एक भव्य राष्ट्रीय सम्मेलन का आयोजन किया गया था.उस राष्ट्रीय सम्मेलन में मुझे भी गुमानी पंत की राष्ट्रीयता को प्रेरित करने वाली कविताओं पर अपना शोधपत्र पढ़ने का सौभाग्य मिला था. देश के विभिन्न प्रान्तों से आए हुए विद्वानों ने गुमानी के साहित्यिक अवदान और उनके मूल्यांकन को लेकर पहली बार गम्भीर चर्चाएं की थीं.

वस्तुतः ब्रिटिश हुकूमत और अत्याचारी गोरखा राज की दो-दो राजसत्ताओं के विरुद्ध आवाज उठाने वाला कोई पहला कुमाउँनी और हिंदी का जनकवि था तो वह गुमानी पंत था. देश में जब न ‘वन्दे मातरम्’ था,न तिरंगा झंडा, न गांधी थे,न सुभाष बोस, तब हिमालय की वादियों में गोरखा राज और अंग्रेजों के जुल्म और अत्याचारों के विरुद्ध सबसे पहले कोई तीखी, सशक्त और क्रांतिकारी आवाज उठी थी तो वह लोककवि गुमानी की कविताओं की आवाज ही थी.

तीन दशक पहले सन् 1990 में कुमाऊं विश्वविद्यालय, नैनीताल में गुमानी पंत की द्विशताब्दी समारोह के उपलक्ष्य में एक भव्य राष्ट्रीय सम्मेलन का आयोजन किया गया था.उस राष्ट्रीय सम्मेलन में मुझे भी गुमानी पंत की राष्ट्रीयता को प्रेरित करने वाली कविताओं पर अपना शोधपत्र पढ़ने का सौभाग्य मिला था. देश के विभिन्न प्रान्तों से आए हुए विद्वानों ने गुमानी के साहित्यिक अवदान और उनके मूल्यांकन को लेकर पहली बार गम्भीर चर्चाएं की थीं. उस सम्मेलन में विद्वानों द्वारा लोकमान्य गुमानी पन्त को उत्तराखंड का राज्य कवि घोषित करने की मांग भी रखी गई थी. सम्मेलन में खड़ी बोली का जो भ्रामक इतिहास आज कल हिंदी साहित्य के छात्रों को पढ़ाया जाता है उस पर भी पुनर्विचार करने का सुझाव  विद्वानों की ओर से दिया गया था. तब सोचा गया था कि जब उत्तराखंड राज्य बनेगा तो गुमानी जी के साहित्यिक अवदान और उनके मूल्यांकन को लेकर जो उपेक्षा और अन्याय उनके साहित्य के साथ हुआ है,उस पर गम्भीर चर्चा होगी,उन्हें देश की साहित्यिक संस्थाओं द्वारा विशेष सम्मान मिलेगा और उत्तराखंड के बुद्धिजीवी, साहित्यकार और शोधार्थी छात्र गुमानी साहित्य के संदर्भ में खड़ी बोली हिंदी के काल विभाजन को ले कर भी नया विमर्श प्रस्तुत करेंगे.

पर विडम्बना यह रही कि आजादी के 72 साल और उत्तराखंड राज्य मिलने के 20 साल बीत जाने के बाद भी उत्तराखंड के इस आदिकवि का न तो राष्ट्रीय स्तर पर सही सही मूल्यांकन हो पाया और न ही राज्यस्तर पर ही उन्हें कोई सम्मान दिया गया. उत्तराखंड सरकार द्वारा लोककवि गुमानी पंत को उत्तराखंड के आदिकवि के गौरवपूर्ण राज्य सम्मान से सम्मानित किया जाना चाहिए था तथा पूरे देशवासियों को भी इस महान कवि के राष्ट्रीय योगदान से अवगत कराया जाना चाहिए था मगर उत्तराखंड का दुर्भाग्य रहा कि इस क्षेत्र के राजनेताओं और दुदबोली के लेखकों की आपसी क्षेत्रीय गुटबंदी और साहित्य के प्रति संकीर्ण सोच के कारण इस हिमालयपुत्र को जो राज्य स्तर पर सम्मान और आदर मिलना चाहिए था उससे यह महान् राष्ट्रवादी कवि सदा वंचित ही रहा.

चिंता की बात यह भी है कि आधुनिक भारतीय भाषाओं कुमाउंनी, गढ़वाली, नेपाली और खड़ी बोली हिंदी के आदिकवि होने तथा राष्ट्रीय धरातल पर भाषाई एकता और सौहार्द के पुरोधा होने के बावजूद भी गुमानी एक भूले बिसरे और उपेक्षित क्षेत्रीय कवि बनकर ही रह गए. संस्कृत के विद्वानों ने भी उनके साहित्य की सदैव उपेक्षा ही की.आज तो गुमानी के जन्म दिवस की भी किसी को याद नहीं है. हालांकि मैं गुमानी की जयंती पर उनके योगदान की चर्चा अपनी फेसबुक की पोस्टों में हमेशा करता आया हूँ. मैं पिछले तीन चार दशकों से राष्ट्रीय समाचार पत्रों और उत्तराखंड से जुड़ी पत्र-पत्रिकाओं के माध्यम से भी इस महान कवि के योगदान की चर्चा निरंतर रूप से करता आया हूं. आज इस लेख के माध्यम से मैं देश के विद्वानों और उत्तराखंडवासियों को इस महान कवि के राष्ट्रीय योगदान से अवगत कराना इस लिए भी जरूरी समझता हूं ताकि आधुनिक नई पीढ़ी उत्तराखंड के इस आदिकवि के साहित्यिक और राष्ट्रीय योगदान से भलीभांति परिचित हो सके.

वस्तुतः गुमानी पन्त संस्कृत के उद्भट विद्वान होने के साथ साथ कुमाउंनी साहित्य के भी आदिकवि थे.उन्होंने भाषाई सौहार्द को प्रोत्साहित करने के प्रयोजन से हिन्दी, कुमाउंनी, नेपाली और संस्कृत भाषा में मिश्रित रचनाएँ लिखीं थीं. वे भारत के पहले ऐसे बहुभाषा-काव्य के सर्जक लोककवि थे जिनकी कविता का पहला पद हिन्दी में, दूसरा कुमाउंनी, तीसरा नेपाली और चौथा संस्कृत में होता था.

लोकरत्न गुमानी पन्त जी की रचनाओं को सर्वप्रथम प्रकाश में लाने का श्रेय देवीदत्त पांडे को जाता है. सन् 1890 में गुमानी की प्रथम जन्म शताब्दी पर उन्होंने यह दायित्व उठाया और 1897 को उनके द्वारा गुमानी के जीवन और उनकी रचनाओं के सम्बंध में पहली पुस्तक लिखी गई. देवीदत्त पांडे के अनुसार गुमानी का जन्म विक्रम संवत् कुम्भार्क गते 27 बुधवार के दिन काशीपुर में हुआ था,जो अंग्रेजी सन् के अनुसार 10 मार्च 1790 निश्चित होता है. वे मूल रूप से उपराड़ा गाँव,गंगोलीहाट जनपद, पिथौरागढ़ के निवासी थे.’गुमानी’ का नाम पंडित लोकरत्न पन्त था.उनके पिता का नाम देवनिधि पंत था.इनके पूर्वज चंदवंशी राजाओं के राज्य वैद्य रहे थे. राजकवि के रूप में गुमानी सर्वप्रथम काशीपुर नरेश गुमान सिंह देव की राजसभा में नियुक्त हुए थे. टिहरी नरेश सुदर्शन शाह, पटियाला के राजा श्री कर्ण सिंह,अलवर के राजा श्री बनेसिंह देव और नहान के राजा फ़तेह प्रकाश आदि तत्कालीन कई राजाओं से भी उन्हें सम्मान मिला था.

वस्तुतः गुमानी पन्त संस्कृत के उद्भट विद्वान होने के साथ साथ कुमाउंनी साहित्य के भी आदिकवि थे.उन्होंने भाषाई सौहार्द को प्रोत्साहित करने के प्रयोजन से हिन्दी, कुमाउंनी, नेपाली और संस्कृत भाषा में मिश्रित रचनाएँ लिखीं थीं. वे भारत के पहले ऐसे बहुभाषा-काव्य के सर्जक लोककवि थे जिनकी कविता का पहला पद हिन्दी में, दूसरा कुमाउंनी, तीसरा नेपाली और चौथा संस्कृत में होता था. किन्तु ‘गुमानी’ जी का परिचय इतना मात्र नहीं है कि वे बहुभाषा काव्य के सर्जक कवि थे या उन्हें हिंदी अथवा कुमाऊनी भाषा का आदिकवि मान लिया जाए,बल्कि राष्ट्रीय धरातल पर उनका सबसे बड़ा परिचय यह है कि ब्रिटिश हुकूमत और गोरखा राज की दो-दो राज सत्ताओं के विरुद्ध आवाज उठाने वाला कोई पहला निर्भीक और साहसी कवि इस देश में हुआ तो वह गुमानी पंत ही था.अंग्रेज प्रशासक जहां एक ओर गुमानी से थर-थर कांपते थे तो दूसरी ओर उनके विरोध के स्वर को जानने समझने के लिए उनकी कविताओं का उन्होंने अंग्रेजी में अनुवाद भी करवाया था.’इंडियन एन्टीक्विरी’ रिसर्च जर्नल में उनकी रचनाएं अंग्रेजी अनुवाद के साथ छपी हैं. गुमानी की प्रमुख रचनायें हैं- राममहिमा वर्णन, गंगाशतक, कृष्णाष्टक, रामाष्टक, चित्रपद्यावली, ज्ञानभैषज्यमंजरी, शतोपदेश, नीतिशतक,रामनाम पञ्च पंचाशिका आदि.

ब्राह्मणों के बारे में इनकी राय थी कि ब्राह्मण के पैर पूजे जाते हैं, सिर नहीं, इसलिए कुली बेगार इनसे भी कराई जाती थी. उस घनघोर आपद काल में गुमानी की कविता ने अपने मुल्कवासियों के साथ हो रहे इस अत्याचार की पीड़ा के प्रति हार्दिक सहानुभूति प्रकट की है. गुमानी का कवि हृदय ‘शिव शिव’ पुकार उठा,जब उसने देखा कि गोरखा राज के खजाने का माल ढोते ढोते उनके मुल्कवासियों के सिर के बाल तक उड़ गए हैं.

उत्तराखंड में अंग्रेजों के आने से पहले कुमाऊँ में गोरखा राज का आतंक छाया हुआ था. गोरखों के अत्याचारी राज में समस्त कुमाऊं व गढ़वाल की ग़रीब जनता को कुली बेगार तथा दासप्रथा के हथकंडों से जितना सताया गया है, उसकी मिसाल इतिहास में कहीं अन्यत्र नहीं ढूंढी जा सकती. उस समय उत्तराखंड की आम जनता की ऐसी दुर्दशा थी कि उन्हें हरिद्वार में कुली बेगार के लिए बेच दिया जाता था. उनकी बहिन बेटियों के साथ गोरखे शासक दुर्व्यवहार करते थे .गोरखा लोग जिस शहर और गांव में आ जाते थे, उस जगह घर के मालिक को घर से निकाल दिया जाता था और परिवार वालों के साथ मनमाना दुर्व्यवहार किया जाता था. ब्राह्मणों के बारे में इनकी राय थी कि ब्राह्मण के पैर पूजे जाते हैं, सिर नहीं, इसलिए कुली बेगार इनसे भी कराई जाती थी. उस घनघोर आपद काल में गुमानी की कविता ने अपने मुल्कवासियों के साथ हो रहे इस अत्याचार की पीड़ा के प्रति हार्दिक सहानुभूति प्रकट की है. गुमानी का कवि हृदय ‘शिव शिव’ पुकार उठा,जब उसने देखा कि गोरखा राज के खजाने का माल ढोते ढोते उनके मुल्कवासियों के सिर के बाल तक उड़ गए हैं. फिर भी धन्य है! उत्तराखंडी जनता का मातृभूमि प्रेम! जिसने इतने अत्याचार सहने के बाद भी अपने देश को छोड़ कर भागना उचित नहीं समझा-
“दिन-दिन खजाना का भार बोकणा लै,
शिव शिव चुलि में का बाल न एक कैका.
तदपि मुलुक तेरो छोड़ि न कोई भाजा,
इति वदति गुमानी धन्य गोरखालि राजा..”

अर्थात् रोज रोज खजाने का भार ढोते-ढोते प्रजा के सिर के बाल उड़ गये पर राज गोरखों का ही रहा. कोई भी उसका राज छोड़कर नहीं गया. अत: हे गोरखाली राजा तुम धन्य हो.यहां कवि ने व्याजस्तुति अलंकार के माध्यम से गोरखों द्वारा जनता के साथ किए जा रहे अत्याचार की पीड़ा को व्यक्त किया है.

उन दिनों न केवल कुमाऊं गढ़वाल बल्कि  दूर पश्चिम में चम्बा के लोकगीतों में भी गोरखों के विरुद्ध आक्रोश का स्वर मुखरित हुआ था-

“राजा तेरे गोरखियाँ ने लुट्या सारा पहाड़,
सुन्ना लुट्या चांदी लुट्या,लुट्या जवाहरा.
सेजा-सुत्ती कामनी लुट्या,लुट्या सारा पहाड़.”

समूचा उत्तराखंड गोरखों के दमनचक्र से इतना संत्रस्त हो चुका था कि वहां के स्वादिष्ट फल कांफलों को भी यह देवभूमि अत्याचार भूमि के रूप में मायूस कर रही थी, इसलिए कुछ कांफल गुस्से से लाल हो गए तो कुछ शर्म से नीले धुमैले हो गए-
“खाणा लायक इन्द्रका हम छिया,
भूलोक आई पड़ा.
पृथ्वी में लग यो पहाड़, हमरी,
थाती रची देव लै.
योई चित्त विचारी काफल सबै,
राता भया क्रोध लै.
कोई और बुड़ा खुडा शर्म लै,
नीला धुमैला भया.”

गोरखों के बाद ईस्ट इंडिया कम्पनी के द्वारा भारत में अंग्रेजों द्वारा की गए लूट पाट के विरुद्ध भी गुमानी ने बेबाकी से लिखा है –
“विलायत से चला फिरंगी
पहले पहुँचा कलकत्ते,
अजब टोप बन्नाती कुर्ती
ना कपड़े ना कुछ लत्ते.
सारा हिन्दुस्तान किया सर
बिना लड़ाई कर फत्ते,
कहत गुमानी कलयुग ने
यो सुब्बा भेजा अलबत्ते॥”

अंग्रेज शासक जिस प्रकार से सांस्कृतिक नगरी अल्मोड़ा की दुर्दशा कर रहे थे,उन्होंने विष्णुमंदिर और उत्तराखंड की कुलदेवी नंदा के मंदिर को तोड़कर वहां अपने बंगले बना दिए थे,उस धार्मिक अत्याचार के विरुद्ध यदि किसी के पास आवाज बुलंद करने का कोई साहस था तो वह केवल कवि गुमानी ही था-
“विष्णु का देवाल उखाड़ा,
ऊपर बंगला बना खरा,
महाराज का महल ढवाया,
बेडी खाना तहां धरा.
मल्ले महल उड़ाई नंदा,
बंगलों से भी तहां भरा,
अंग्रजों ने अल्मोड़े का,
नक्शा ओरी और करा॥”

गुमानी ने अपनी कविताओं में उस समय की सामाजिक परिस्थितियों के उपर भी पैनी कलम चलायी है. एक विधवा की दयनीय दशा और बेबसी का मार्मिक वर्णन इस प्रकार किया है-
“हलिया हाथ पड़ो कठिन
लै है गेछ दिन धोपरी,
बांयो बल्द मिलो एक दिन
ले काजूँ में देंणा हुराणी.
माणों एक गुरुंश को
खिचड़ी पेंचो नी मिलो,
मैं ढोला सू काल हरांणों
काजूं के धन्दा करूँ॥”

अर्थात् बेचारी विधवा को मुश्किल से दोपहर के समय एक हल बाने वाला मिला और उस समय भी केवल बांयी ओर जोता जाने वाला बैल मिल पाया, दांया नहीं. खाने खिलाने को खिचड़ी का एक माणा भी उसे कहीं से उधार नहीं मिल पाया.निराश होकर वह विधवा सोचती है कि कितनी बदनसीब हूं मैं कि मेरे लिये काल भी नहीं आता.

गुमानी की एक लोकप्रिय कविता की पंक्ति है- “हिसालू की जात बड़ी रिसालू जां जां जान्छे उधेडी खांछे” इस कविता की पंक्तियों का निहितार्थ यह है कि हिंसालु फल की भाति गुमानी की कविता भी बहुत रसभरी (रसीली) और गुसैल (रिसालू) है अर्थात् काटों से भरी है, जो भी इसके नजदीक जाता है उसे यह अपने कटु यथार्थ रूपी कंटीले तेवरों से काट खाता है.इस हिसालू कविता का व्यंग्यार्थ भी बहुत निराला है-
“हिसालू की जात बड़ी रिसालू ,
जाँ जाँ जाँछ उधेड़ि खाँछ.
यो बात को क्वे गटो नी माननो,
दुद्याल की लात सौणी पड़ंछ.”

अर्थात् हिसालू की जात होती ही बड़ी गुसैल किस्म की है,जहां-जहां जाता है, बुरी तरह उधेड़ देता है,तो भी कोई इस बात का बुरा नहीं मानता, क्योंकि दूध देने वाली गाय की लातें भी खानी ही पड़ती हैं.

हिसालू इतना रसीला होता कि उसके आगे सारे फल फीके ही लगते हैं. गुमानी ने नेपाली भाषा में लिखी एक कविता में हिसालू की तुलना अमृत फल से की है-
“छनाई छन मेवा रत्न सगला पर्वतन में,
हिसालू का तोपा छन बहुत तोफा जनन में,
पहर चौथा ठंडा बखत जनरौ स्वाद लिंण में,
अहो मैं समझछुं,अमृतलग वस्तु क्या हुनलो.”

अर्थात् पहाड़ों में तरह-तरह के अनेक रत्न हैं, हिसालू के फल भी ऐसे ही बहुमूल्य तोहफे हैं,चौथे पहर में ठंड के समय हिसालू खाएं तो क्या कहने मैं समझता हूँ इसके आगे अमृत का स्वाद भी क्या होगा!

गुमानी ने अपनी रचनाएं बिना किसी लाग लपेट के सीधी और सरल भाषा में लिखी हैं. किन्तु उनमें गहरे व्यंग्य का पुट सदैव रहता है. यही कारण है कि गुमानी की रचनाएं कुमाऊँ में आज भी उतनी ही लोकप्रिय हैं जितनी उनके समय में थी.गुमानी की नजर से तत्कालीन महानगर काशीपुर का सांस्कृतिक चरित्र विश्वनाथ जी की काशी नगरी से कुछ कम नहीं था.वे कहते हैं-

“यहाँ ढेला नदी उत बहत गंगा निकट में.
यहाँ भोला मोटेश्वर रहत विश्वेश्वर वहाँ..
यहाँ सण्डे दण्डे कर धर फिरें शाँड उत ही .
फरक क्या है काशीपुर शहर काशीनगर में..”

आज दुर्भाग्य से टिहरी नगर का अस्तित्व समाप्त हो गया है,किन्तु गुमानी ने टिहरी नरेश सुदर्शन शाह की सभा के मुख्य कवि के रूप में दो सौ साल पहले ‘टिहिरी’ नगर के नामकरण से सम्बंधित श्लोक रचकर इस ऐतिहासिक नगरी का जो महिमा मंडन किया है वह आज भी भुलाने योग्य नहीं है-
“सुरंगतटी रसखानमही
धनकोश भरी यहु नाम रह्यो.
पद तीन बनाय रच्यौ बहु
विस्तार वेगु नहीं जात कह्यो.
इन तीन पदों के बखान बस्यो
अक्षर एक ही एक लह्यो.
धनराज सुदर्शन शाहपुरी
टिहिरी यदि कारन नाम गह्यो..”

आदिकवि के रूप में गुमानी पंत

कुमाऊंनी के आदिकवि गुमानी पंत खड़ी बोली हिंदी के भी आदिकवि माने जाते हैं. कुमाऊंनी में खड़ी बोली हिंदी से भी पहले साहित्य की रचना हो चुकी थी,जिसका प्रमाण गुमानी की रचनाएं हैं. किन्तु ऐतिहासिक दृष्टि से हिंदी साहित्य में जो स्थान भारतेंदु हरीश चंद्र को मिला है, वह स्थान आज गुमानी को मिलना चाहिए था. इस सम्बंध में गुमानी साहित्य के गम्भीर अध्येता और ‘उत्तरीय’ पत्रिका के सम्पादक सुरेश पंत ने ‘गुमानी स्मृति विशेषांक’ (अप्रैल जून,1990) के संपादकीय में लिखा है-

“हिंदी साहित्य या खड़ी बोली साहित्य के इतिहास में गुमानी का आज भी उल्लेख न होना उसके अधूरेपन का संकेत है.आधुनिक काल का प्रारम्भ भारतेंदु के जन्मवर्ष 1850 से माना जाता है,जबकि उससे चार वर्ष पूर्व मानक खड़ी बोली में रचना करने वाले गुमानी का निधन हो चुका था. गुमानी ने गढ़वाल कुमाऊं को पराजित होते और अंग्रेजी राज के अत्याचारों से तड़पते देखा था.खड़ी बोली में लिखित उनकी ये सभी रचनाएं 1815-1840 के बीच की हैं.1815 में सिंगौली की संधि के बाद गढ़वाल-कुमाऊँ पर अंग्रेजों का आधिपत्य हुआ.आते ही अल्मोड़ा का मानचित्र बदलने की दिशा में अंग्रेजों ने जो कार्य किया, उसका वर्णन कवि ने एक पद में किया है.”- (उत्तरीय, वर्ष12, अंक 2,पृ.3)

गुमानी जी अपनी समस्यापूर्तियों के लिए विख्यात थे.उनकी रचनाएँ हिंदी मिश्रित संस्कृत, कुमाँउनी, नेपाली, खड़ी बोली, संस्कृत और ब्रज भाषा में हैं. एक उदाहरण देखिए,जिसका पहला पद हिंदी में दूसरा कुमाउंनी में,तीसरा नेपाली में और चौथा पद संस्कृत में है-
“बाजे लोग त्रिलोकनाथ
शिव की पूजा करें तो करें.
क्वे-क्वे भक्त गणेश का
जगत में बाजा हुनी त हुन्..
राम्रो ध्यान भवानि का
चरण माँ गर्छन कसैले गरन्.
धन्यात्मातुल धामनीह
रमते रामे गुमानी कविः..”

उत्तराखंड के प्रथम कवि के रूप में गुमानी का अपनी लोकसंस्कृति के स्वाभिमान और राष्ट्रवादी साहित्य साधना के लिये सदैव स्मरण किया जाता रहेगा. अंग्रेजी हुकूमत के विरुद्ध आवाज उठाने वाले पहले कुमाऊंनी साहित्यकार, हिमालय पुत्र, उत्तराखंड गौरव तथा हिंदी, कुमाऊंनी आदि भारतीय भाषाओं के पारस्परिक सौहार्द और राष्ट्रीय स्वाभिमान के उन्नयन हेतु लोकमान्य गुमानी पंत आज भी इस बहुभाषी देश के महान आदर्श हैं.

कुमाऊंनी साहित्य के आधुनिक अध्येताओं की जानकारी के लिए बताना चाहुंगा कि वर्त्तमान में कुमाऊं विश्वविद्यालय की प्रो. डा.किरण टण्डन ने ‘लोकरत्नपन्त गुमानी रचनावली’ शीर्षक से लिखी पुस्तक में गुमानी की रचनाओं का हिंदी अनुवाद सहित सम्पादन किया है. प्रकाशन का पता है : ईस्टर्न बुक लिकर्स, 5825, न्यू चन्द्रावल, जवाहर नगर, दिल्ली-110007

(लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय के रामजस कॉलेज से एसोसिएट प्रोफेसर के पद से सेवानिवृत्त हैं. एवं विभिन्न पुरस्कार व सम्मानों से सम्मानित हैं. जिनमें 1994 में ‘संस्कृत शिक्षक पुरस्कार’, 1986 में ‘विद्या रत्न सम्मान’ और 1989 में उपराष्ट्रपति डा. शंकर दयाल शर्मा द्वारा ‘आचार्यरत्न देशभूषण सम्मान’ से अलंकृत. साथ ही विभिन्न सामाजिक संगठनों से जुड़े हुए हैं और देश के तमाम पत्र—पत्रिकाओं में दर्जनों लेख प्रकाशित.)

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