स्मृति मात्र में शेष रह गए हैं ‘सी रौता’ और थौलधार जातर

0
631
  • दिनेश रावत

सी रौता बाई! सी रौता!! कितना उल्लास, उत्सुकता और कौतुहल होता था. गाँव, क्षेत्र के सभी लोग ख़ासकर युवाजन जब हाथों में टिमरू की लाठियाँ लिए ढोल—दमाऊ की थाप पर नाचते, गाते, थिरकते, हो—हल्ला करते हुए अपार जोश—खरोश के साथ गाँव से थौलधार के लिए निकलते थे. कोटी से निकला यह जोशीला जत्था बखरेटी से होकर थौलधार पहुँचता था. रास्ते भर में उनका उन्मुक्त नृत्य देखते ही बनता था. थौलधार पहुँचने पर तो इनके जोश को मानो चिंगारी मिल जाती थी. लोक वादक तन—मन को उत्साहित करने वाले ताल बजाते और जोशीले युवाओं के जत्थे उनके पीछे—पीछे हो नाचते, गाते रहते. नृत्याभिन शैली एकदम आक्रामक होती थी. ठीक वैसे ही जैसे किसी पर विजय प्राप्ति के लिए चल रहे हों. इस दौरान कुछ खास पंक्तियों को गीत या नारों के रूप में पूरे जोशीले अंदाज़ में जोर—जोर से गाया, दोहराया जाता था, जिसके बोल होते थे— ‘सी रौता बाई! सी रौता!!’

थौलधार में ये लोग एक छोर से दूसरे छोर तक कभी तेज दौड़ लगाकर, कभी हाथों में थामी लाठियाँ इस प्रकार घुमाते मानो किसी को ललकार रहे हों. युद्ध कला कौशल एवं वीरता को अभिव्यक्त करने वाले नृत्याभिन का यह दौर देर रात्रि तक चलता रहता. अंधेरा घन घोर होने पर सभी घरों को लौट आते.

धार के एक छोर पर दोनों गाँव के थोकदार अपनी बिछौना बिछाए मेले की गरिमा बढ़ाते रहते तो दूसरी तरफ जलेबी, पकौड़ी, खिलौने, गुब्बारों की दु​कानों पर लोग खरीददारी करते नज़र आते. बच्चों के मनोरंजन के लिए कुछ लोग लकड़ी की ऐसी गाड़ियाँ बनाते जो थौलधार की ढलान पर बिना किसी बल या ईंधन के आसानी से लुड़क जाती.

अगले दिन दोपहर तक थौलधार में कुछ छोटी—छोटी किंतु मेले व स्थानीय आवश्यकता के अनुरूप दुकाने सज जाती. समूचे बनाल पट्टी के लोग अपने—अपने ग्रामों से ढोल—बाजों के साथ जत्थों के रूप में थौलधार पहुँचते. स्थानीय थोकदार यानी कोटी के रावत और बखरेटी के चौहान भी अपनी पूरे उत्साह के साथ मेले में शामिल होते. इस दौरान ग्राम्यजनों के अतिरिक्त उनके सेवक भी सेवा में हाज़िर—नाज़िर रहते थे. वे तेज धूप होने पर उनके ऊपर छतरियाँ भी तानते तो उनके लिए वहीं पर कौंठ बिछाकर बैठने की उचित व्यवस्था भी करते.

एक के बाद एक करते हुए सभी ग्रामवासियों के पहुँचने पर भारी भीड़ जुट जाती, जिससे थौलधार का सन्नाटा अनायास ही गायब हो जाता. धार के एक छोर पर दोनों गाँव के थोकदार अपनी बिछौना बिछाए मेले की गरिमा बढ़ाते रहते तो दूसरी तरफ जलेबी, पकौड़ी, खिलौने, गुब्बारों की दु​कानों पर लोग खरीददारी करते नज़र आते. बच्चों के मनोरंजन के लिए कुछ लोग लकड़ी की ऐसी गाड़ियाँ बनाते जो थौलधार की ढलान पर बिना किसी बल या ईंधन के आसानी से लुड़क जाती. बिना सीट के भी इनमें बैठने का अलग ही आनंद होता था. इनका महत्व इसलिए अधिक था क्योंकि उस समय क्षेत्र में गाड़ियाँ की आवाजाही बहुत ही न्यून थी. बच्चों को शायद ही कभी उनमें बैठने का अवसर मिला हो. मेले में उनका गाड़ी में बैठने का सपना भी पूरा हो जाता और गाड़ी स्वामियों की भी अच्छी खासी आमदनी हो जाती. गाड़ी स्वामी एक—एक या दो—दो बच्चों को लकड़ी की इन गाड़ियों में बिठाते. बिना गियर, डीजल, पेट्रोल की ये गाड़ियाँ सामने ढलान पाकर स्वयं ही फर्राटे भरने लगती. नीचे जाकर सवारियों को उतार दिया जाता और गाड़ी स्वामी गाड़ी पर बंधे रस्से के सहारे गाड़ी को पुन: ऊपर खींच लाता. देर शाम तक क्रम अनवरत चलता रहता. दोपहरी के साथ शुरू हुआ मेला अंधेरा होने तक चलता रहता. अंधेरे की कालिमा घन घोर होते ही सभी अपने घरों को निकलना शुरू कर देते हैं.

मेला कोई भी, कहीं भी हो! मनोरंजन मात्र के साधन नहीं बल्कि लोक जीवन के रंग स्थल होते हैं. मेल—मिलाप, आमोद—प्रमोद, आनंद—अनुरंजन, संस्कार—सरोकार, गीत—संगीत, खान—पान के अतिरिक्त इनके मूल में कुछ इतिहास भी समाहित होता है. दैनिक जीवन की कठिन चक्की में पीसते लोगों के लिए विश्राम की दृष्टि से भी ये उपयुक्त क्षण होते हैं.

मेला कोई भी, कहीं भी हो! मनोरंजन मात्र के साधन नहीं बल्कि लोक जीवन के रंग स्थल होते हैं. मेल—मिलाप, आमोद—प्रमोद, आनंद—अनुरंजन, संस्कार—सरोकार, गीत—संगीत, खान—पान के अतिरिक्त इनके मूल में कुछ इतिहास भी समाहित होता है. दैनिक जीवन की कठिन चक्की में पीसते लोगों के लिए विश्राम की दृष्टि से भी ये उपयुक्त क्षण होते हैं. आत्मीयजनों का सानिध्य पाकर उनसे मन के सुख—दु:ख साझा कर व्यक्ति न केवल मन—मस्तिष्क को हल्का करता था बल्कि जीवन की तमाम जटिलताओं को विस्मृत कर आनंद—उत्सव में इस प्रकार खो जाता कि शेष जीवन की दुस्वारियों से लड़ने—भिड़ने के लिए एक लौकिक संजीवनी पाता.

मेले के मूल में समाहित कारणों व कारकों का गहनतापूर्वक अध्ययन, अवलोकन करने पर हमें सम्बंधित सामाज, संस्कृति एवं ऐतिहासिक पहलुओं का दिग्दर्शन होता है. किंतु दुर्भाग्य ही कहा जा सकता है कि आधुनिकता की आवो—हवा या जीवन की आपाधापी के बीच ऐसे ही कई मेले वर्तमान में अपना अस्तित्व खोते जा रहे हैं, जो लोक एवं लोक संस्कृति के लिए शुभ एवं हितकर नहीं है.

एक कालखंड में रवाँई में ‘धाड़ा’ परम्परा काफी प्रचलित रही. पुजेली मंदिर भी इसका शिकार बनता है. ठकराल पट्टी के पालर ग्रामवासी मौका पाकर रघुनाथ मंदिर में धावा बोलते हैं और मंदिर से इष्ट मूर्तियों को उठा ले जाते हैं. रघुनाथ मंदिर पर धाड़ा मारने वाले पालर ग्रामवासियों में ढण्टारू व मकारू नाम के दो व्यक्ति प्रमुख थे, जिन्हें तत्कालिन समय में वीर—भड़ कहा जाता था.

विलुप्त प्राय: हो चुके मेलों में ‘थौलधार जातर’ प्रमुखता से शामिल है. थौलधार जातर वर्षों पूर्व तक खूब धमाल मचाए रहती थी. मेले को लेकर लोगों में खासा उत्साह बना रहता था. समस्त क्षेत्रवासी मेले में शामिल होकर उसका हिस्सा बनते थे. ‘सी—रौता’ तो मानो युवा जोश का परिचायक ही रहा हो. वर्तमान में यही थौलधार जातर मात्र स्मृतियों में शेष है.

थौलधार जातर! बनाल पट्टी अन्तर्गत इष्टदेव रघुनाथ मंदिर से कुछ दूरी पर अवस्थित थौलधार नामक स्थान पर बनने के कारण इसी स्थान विशेष के नाम से जाना जाने लगा. उल्लेखनीय है कि एक कालखंड में रवाँई में ‘धाड़ा’ परम्परा काफी प्रचलित रही. पुजेली मंदिर भी इसका शिकार बनता है. ठकराल पट्टी के पालर ग्रामवासी मौका पाकर रघुनाथ मंदिर में धावा बोलते हैं और मंदिर से इष्ट मूर्तियों को उठा ले जाते हैं. रघुनाथ मंदिर पर धाड़ा मारने वाले पालर ग्रामवासियों में ढण्टारू व मकारू नाम के दो व्यक्ति प्रमुख थे, जिन्हें तत्कालिन समय में वीर—भड़ कहा जाता था. यद्यपि मंदिर में पूजा—अर्चना के लिए पुजारी तथा बाजगियों की बारी तय होती थी. ये लोग पूजा—अर्चना ही नहीं बल्कि मंदिर की सुरक्षा भी करते थे. बाजगी लोग प्रति दिन पूजा के अतिरिक्त रात्रि को ‘नमती’ तथा सुबह को ‘प्रभात’ भी बजाते थे. दु:खद संयोग कि उस दिन बाजगी और पुजारी पूजा—आरती के बाद ‘नमती’ बजाकर सोने के लिए अपने—अपने घर चले जाते हैं, जिसका फायदा उठाकर ये लोग मंदिर में धावा बोल देते हैं और इष्टमूर्तियों को उठाकर ले जाते हैं.

इष्ट मंदिर से देवमूर्तियों के चोरी होने पर समूचे में अजीब—सा सन्नाटा पसर जाता है. लोग प्रथम दृष्टया पुजारी व बाजगियों को दोषी मानते हैं किंतु आपसी विवाद को भुलाकर धाड़ा मारने वालों की खोजबीन में जुट जाते हैं ताकि इष्ट मूर्तियों को वापस लाया जा सके. कुछ सुराग लगता है कि देवमूर्तियों को पालर ग्रामवासी ले गए हैं तो पुजारियों में से ही शंकरदत्त पुत्र किशोरी दत्त तथा रणियाँदत्त पुत्र इन्द्रदत्त के पुत्र आजीविका का बहाना बना कर अपनी पहचान छिपाते हुए पालर पहुँच जाते हैं और वहाँ एक वृद्ध महिला के साथ रह कर घरेलू कार्यों में उसकी सहायता करने लगते हैं. एक भाई पशु—मवेशियों को देखता तो दूसरा घरेलू व खेती—बाड़ी के कार्यों में मदद करता.

हर रोज की तरह एक दिन एक भाई पशुओं के लेकर जंगल चला जाता है तो दूसरा हल—बैल लेकर सम्बंधित महिला के साथ ‘चीणा’ बोने खेतों की ओर चल पड़ता. संयोगवश खेत की बुवाई करते हुए बीज कम पड़ जाता है तो महिला उसी बालक को यह समझाते हुए बीज लाने के लिए है कि कोठार से बीज निकालने से पहले अपने हाथ—पैर अच्छे से धो लेना क्योंकि भंडार में ही बीज के साथ बनालियों के देवता की मूर्तियाँ रखी हुई हैं, उन्हें मत छुना. महिला के मुँह से देवमूर्तियों की बात सुनकर उसकी खुशियों का तो मानो ठिकाना ही नहीं रहा. वह घर पहुँचते ही बीज छोड़ देवमूर्तियों को उठा कर वहाँ से घर की ओर भाग निकलता है. इस बीच उसे अपना भाई भी याद आता है तो वह उसी रास्ते हो लेता है, जहाँ वह जिस तरफ उसका भाई पशु लेकर गया है. दूर से ही भाई को भागने का ईशारा करता है. शंकर दत्त और रणियाँ दत्त दोनों बनाल की ओर भाग निकलते हैं.

पुजारी को थौलधार पहुँचते ही पालरवासी समझ जाते हैं कि अब ख़बर बनाल को मिल गयी होगी. बनाल के लोग बदला लेने अवश्य आयेंगे. इसलिए वे शंकरदत्त पर घंडाल्टा गाड़ पार से ही वाण छोड़ देते हैं जो शंकरदत्त को लग जाता है. शंकरदत्त लड़खड़ाते हुए वहीं गिर पड़ता है और अपने प्राण त्याग देता है. पालर के लोग युद्ध की भयावहता भांपते हुए वहीं से पीछे हो जाते हैं.

महिला काफी देर तक बीज का इंतजार करती रहती है. बहुत देर बाद भी जब वह नहीं लौटता तो उसे शक होने लगता है और घर की ओर दौड़ी चली आती है. कोठार और देवमूर्तियाँ गायब देख वह हो—हल्ला मजा देती है. पालरवासी इक्ट्ठा होते हैं. अपने तत्कालिन अस्त्र—शस्त्र धनुष—वाण, डाँगरी, तलवार आदि उठाकर दोनों भाईयों को पीछा करने लगते हैं. इन दोनों भाईयों में से एक रणियाँदत्त अधिक फुर्तिला तथा शंकरदत्त अपेक्षाकृत कमजोर था. रणियाँदत्त देवमूर्तियों को अपने पास लेकर इस उद्देश्य से भागता रहता है कि किसी तरह देवमूर्तियाँ बनाल पहुँच जाएं. वह भागते—भागते बनाल की सीमा में प्रवेश कर कोटला तक पहुँच जाता है, जब कि शंकरदत्त पीछे रह जाता है. पालर के लोग उनका पीछा करते हुए थौलधार के पीछे उसे देख लेते हैं. उस पर रूकने का दबाव बनाते है किंतु वह अपनी गति से आगे बढ़ता रहता है और होते—करते थौलधार पहुँच जाता है. पुजारी को थौलधार पहुँचते ही पालरवासी समझ जाते हैं कि अब ख़बर बनाल को मिल गयी होगी. बनाल के लोग बदला लेने अवश्य आयेंगे. इसलिए वे शंकरदत्त पर घंडाल्टा गाड़ पार से ही वाण छोड़ देते हैं जो शंकरदत्त को लग जाता है. शंकरदत्त लड़खड़ाते हुए वहीं गिर पड़ता है और अपने प्राण त्याग देता है. पालर के लोग युद्ध की भयावहता भांपते हुए वहीं से पीछे हो जाते हैं.

ख़बर आग की तरह पूरे बनाल में फैल जाती है. बनालवासी बदला लेने के लिए हाथों में धनुष—वाण, डाँगरे, कुल्हाड़ी, तलवारें, लाठियाँ थाम कर ढोल—बाजों के साथ थौलधार की ओर चल पड़ते हैं. जिन्हें देख कर पालर के लोग वापस मुड़ जाते हैं तो ये लोग भी पुजारी के मृत शरीर को उठा कर बनाल लौट आते ​हैं किंतु प्रतिशोध की भावना उनके मन में बलवंती होने लगती है.

जिसके चलते वे बाद में पालर पर धाड़ा मारते है और पालर गढ़ में स्थापित शेर की काष्टनिर्मित प्रतिमा को उठा लाते हैं. शेर की यही मूर्ति वर्तमान में भी पुजेली मंदिर में लगी हुई है. पुजारी शंकरदत्त की स्मृति को चीर स्थाई बनाए रखने के लिए न केवल थौलधार में प्रति वर्ष मेला बनाने बल्कि क्षेत्रीय मेलों को शुभारम्भ भी इसी मेले के साथ करने का निर्णय लिया गया. पुजारी की स्मृति में आयोजित होने वाला यहीं मेला थौलधार जातर के रूप में प्रसिद्ध होता है और वर्षों तक अनवरत बनता रहता है किंतु हाल—ही के कुछ वर्षों से आधुनिकता की आवो—हवा के चलते पूरी तरह विस्मृति की कगार पर पहुँच गया है.

सी रौता’ एक लोक भाषिक शब्द है, जिसमें ‘सी’ का अभिप्राय ‘वह’ और ‘रौता’ का आशय ‘रावत’ से है अर्थात यह एक सम्बोधन सूचक शब्द है, जिसमें कहा जा रहा है कि रावत! वह हैं. निश्चित ही ये बोल उस समय अनायास ही लोगों के कंठ से प्रस्फुटित हुए होंगे जब प्रतिशोध की ज्वाला में झूलसते हुए वे पालरवासियों को खोजने निकले होंगे.

तत्कालिन घटनाक्रम के अनुरूप ही वर्षों बाद तक कोटी—बखरेटी के लोग ​श्रावण संक्रांति के दिन हाथों में टिमरू के डंडे थामें ढोल—बाजों के साथ उसी जोश, उमंग, उत्साह व आक्रोशित भाव के साथ ‘सी रौता बाई! सी रौता!!’ नारे लगाते हुए थौलधार की ओर कूच करते रहे. जिसे ‘सी रौता’ नाम से ही जाना जाता रहा. ‘सी रौता’ एक लोक भाषिक शब्द है, जिसमें ‘सी’ का अभिप्राय ‘वह’ और ‘रौता’ का आशय ‘रावत’ से है अर्थात यह एक सम्बोधन सूचक शब्द है, जिसमें कहा जा रहा है कि रावत! वह हैं. निश्चित ही ये बोल उस समय अनायास ही लोगों के कंठ से प्रस्फुटित हुए होंगे जब प्रतिशोध की ज्वाला में झूलसते हुए वे पालरवासियों को खोजने निकले होंगे. सामने कहीं पालर के लोग दिखे होंगे तो दिखते ही उन्होंने अपने थोकदार यानी रावत को ख़बर देने के लिए कहा होगा—’सी रौता!’ अर्थात् रावत! वह हैं. आक्रोश का यही भाव वर्षों बाद तक थौलधार मेले से एक दिन पूर्व खेले जाने वाले ‘सी रौता’ में दिखायी देता रहा.

(लेखक कविसाहित्यकार एवं वर्तमान में अध्यापक के रूप में कार्यरत हैं)

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here