लोक पर्व
- दिनेश रावत
वर्ष का एक दिन! जब लोक आटे की बकरियाँ बनाते हैं. उन्हें चारा—पत्ती चुंगाते हैं. पूजा करते हैं. धूप—दीप दिखाते हैं. गंध—अक्षत, पत्र—पुष्ठ चढ़ाते हैं. रोली बाँधते हैं. टीका लगाते हैं. अंत में इनकी पूजा—बलि देकर आराध्य देवी—देवताओं को प्रसन्न करते हैं. त्यौहार मनाते हैं, जिसे ‘बाकर्या त्यार’ तथा संक्रांति जिस दिन त्यौहार मनाया जाता है ‘बाकर्या संक्रांत’ के रूप में लोक प्रसिद्ध है.
बाकर्या त्यार की यह परम्परा उत्तराखण्ड के सीमान्त उत्तरकाशी के पश्चितोत्तर रवाँई में वर्षों से प्रचलित है. जिसके लिए लोग चावल का आटा यानी ‘पिठाड़ी’ और उसकी अनुपलब्धता पर ‘पिदें’ यानी गेहूँ के आटे को गूंथ कर उससे घरों में एक—दो नहीं बल्कि कई—कई बकरियाँ बनाते हैं, जिनमें ‘बाकरी’, ‘बाकरू’ अर्थात नर, मादा बकरियों के अतिरिक्त ‘चेल्क्यिा’ यानी ‘ मेमने’ भी बनाए जाते हैं.
बाकर्या त्यार की यह परम्परा उत्तराखण्ड के सीमान्त उत्तरकाशी के पश्चितोत्तर रवाँई में वर्षों से प्रचलित है. जिसके लिए लोग चावल का आटा यानी ‘पिठाड़ी’ और उसकी अनुपलब्धता पर ‘पिदें’ यानी गेहूँ के आटे को गूंथ कर उससे घरों में एक—दो नहीं बल्कि कई—कई बकरियाँ बनाते हैं, जिनमें ‘बाकरी’, ‘बाकरू’ अर्थात नर, मादा बकरियों के अतिरिक्त ‘चेल्क्यिा’ यानी ‘ मेमने’ भी बनाए जाते हैं.
आटे से बनी बकरियों को कुछ लोग सीड़ों के समान ‘अथार’ लगा कर भाप पर पकाते हैं तो कुछ तेल में तल लेते है, जब कि कुछ मात्र तवे पर सेक कर ही संतुष्ट हो हो लेते हैं. अर्थात तलना, भूनना लोगों के स्वाद और संसाधनों की उपलब्धता पर निर्भर है.
कृषि हो या पशु—पालन दोनों में ही भागीरथ प्रयास के बाद जो भी प्राप्त होता, उसे अपने आराध्य देवों की कृपा मान उनके प्रति अपने ही तरीके से अपने शब्दों में कृतज्ञता व्यक्त करते. ऐसा ही ज्येष्ठ मास संक्रांति को मनाये जाने वाले बाकर्या त्यार के मूल में समाहित है.
बकर्या त्यार बड़े—बुजुर्गों के लिए आस्था तो बच्चों के लिए मनोरंजन का विषय होता है. इसलिए बड़े—बुजुर्ग पूजा—आराधना में जुटे रहते हैं तो बच्चे इन्हें चारा—पत्ती डालते, वनों में चुंगाते, हाथों में उठा कर नचाते और निहारते नज़र आते हैं. पूजा—अर्चना के साथ एक—दो को मुखिया अपने हाथों से काट कर आराध्य देवी—देवताओं को भोग लगाते हैं. इनके शेष अंशों को सभी में प्रसाद स्वरूप बांटा जाता है तो को बच्चे दिनभर निपटाते रहते हैं.
लोकास्था एवं मान्यताओं की भाव—भूमि आधारित त्यौहार अंचल विशेष की सामाजिक, आर्थिक एवं सांस्कृतिक विशिष्टताओं को खुद में समेटे हुए है. मध्य हिमायली अंचल में निवास करने वाले लोकवासियों के पास जीवनोपार्जन के लिए कृषि एवं कृषि आधारित व्यवसाय ही मुख्य साधन रहे हैं, जिनमें भेड़—बकरी पालन सर्व प्रमुख एवं प्रचलित था. सांसारिक चहल—पहल से कोसों दूर होने के कारण मौसमी मार हो या अन्य कोई यानी सभी प्रकार के संभाव्य सुख—दु:ख व संकटों से बचाने के लिए सिवाय आराध्य देवी—देवताओं के उन्हें दूर—दूर तक कोई भी नज़र नहीं आता होगा. ऐसे में जब भी उन्हें आवश्यकता महसूस होती तो अपने आराध्य देवों को अपने पास उपलब्ध संसाधनों से पूजा, भोग चढ़ा कर प्रसन्न कर अपनी कुशलता व जीवन रक्षा की कामना करते. कृषि हो या पशु—पालन दोनों में ही भागीरथ प्रयास के बाद जो भी प्राप्त होता, उसे अपने आराध्य देवों की कृपा मान उनके प्रति अपने ही तरीके से अपने शब्दों में कृतज्ञता व्यक्त करते. ऐसा ही ज्येष्ठ मास संक्रांति को मनाये जाने वाले बाकर्या त्यार के मूल में समाहित है.
लोक पूजित देवी—देवताओं में बण्क्यों यानी वन—देवियों का सदैव से विशेष महत्व माना गया है. इसी मान्यता के चलते लोकवासी ‘बण्क्या’ यानी वन—देवियों के निमित्त अधिकांशत: अपने—अपने ग्राम क्षेत्रों में सामुहिक रूप से विशेष पूजा का आयोजन करते हैं, जिसे ‘सकल पूजा’ कहते हैं तो कई ग्रामवासी ग्राम्य क्षेत्रों से दूर डांडों में जा कर बलि पूजा कर आते हैं.
ज्येष्ठ मास कृषि एवं पशुपालन की दृष्टि से महत्वपूर्ण एवं उपयोगी है. जी—तोड़ मेहनत मसकत के बाद रबी की फसल तैयार हो जाती हैं. मौका उन्हें खेत—खलिहानों से समेटकर अन्नागारों में सुरक्षित करने का होता है ताकि वर्ष भर परिवार का भरण—पोषण किया जा सके. वर्ष भर खून—पसीने से अभिसिंचित फसलें अतिवृष्टि या ओलावृष्टि की भेंट न चढ़ जाए. इन्हीं संभाव्य खतरे की आशंका के चलते लोकवासी फसलों के तैयार होते ही फसल सुरक्षा कामना के साथ आराध्य देवी—देवताओं का पूजन, स्मरण शुरू कर देते हैं. लोक पूजित देवी—देवताओं में बण्क्यों यानी वन—देवियों का सदैव से विशेष स्थान एवं महत्व रहा है. इसी मान्यता के चलते लोकवासी ‘बण्क्या’ यानी वन—देवियों के निमित्त अधिकांशत: अपने—अपने ग्राम क्षेत्रों में सामुहिक रूप से विशेष पूजा का आयोजन करते हैं, जिसे ‘सकल पूजा’ कहते हैं तो कई ग्रामवासी ग्राम्य क्षेत्रों से दूर डांडों में जा कर बलि पूजा कर आते हैं.
ज्येष्ठ मास में एक तरफ गेहूँ की कटाई, दूसरी तरफ ‘रोपणी—बिजाड़ियों’ यानी रोपाई कार्य की अधिकता. इनके चलते लोग इतने व्यस्त हो जाते हैं कि इस बीच पूजा तो दूर अन्न—जल भी ठीक से ग्रहण नहीं कर पाते हैं. अपने कार्यों की अधिकता एवं सामाजिक, पारिवारिक विवशता को भांपते हुए ही ये लोग इन कार्यों में जुटने से पहले ही देवपूजन सम्बंधी कार्यों को यथा समय पूर्ण करना हितकर समझते हैं. घरेलू कार्यों की व्यस्थता के साथ—साथ इसी माह से पशु पालन से जुड़े लोग अपने पशु—मवेशियों एक—दो जानवरों को छोड़ शेष सभी को लेकर ‘डांडा—कांठ’ यानी उच्च हिमालयी क्षेत्रों में जाने की तैयारी में जुट जाते हैं.
कोई शक्ति उन्हें ढाढस बंधाती है तो वह वही शक्ति देव शक्ति है, जिसका स्मरण, ध्यान किए बिना वे किसी कार्य सिद्धि या शुभारम्भ की सोच भी नहीं सकते हैं. इसी मान्यता के चलते जानवरों को खूंटे से खोलने से लेकर जंगल पहुँचाने तक न जाने कितने सिक्के ‘टिक्खों’ यानी भेंट के रूप में चढ़ा देते हैं.
ज्येष्ठ से भाद्रपद तक अब उन्हें बिना किसी सुख—सुविधा के पशु—मवेशियों के साथ तमाम विषमताओं के बीच मौसमी झंझावतों एवं क्रूर तथा भूंखार जंगली जानवरों के बीच न केवल जीवन यापन करना होता है बल्कि कई बार अपने व मवेशियों की रक्षा के लिए इनसे जूझना भी पड़ता है. ऐसे में यदि उन्हें आबादी क्षेत्र से दूर एकांत एवं निर्जन वनों में रहते हुए यदि किसी के अपने साथ होने का अहसास होता है या कोई शक्ति उन्हें ढाढस बंधाती है तो वह वही शक्ति देव शक्ति है, जिसका स्मरण, ध्यान किए बिना वे किसी कार्य सिद्धि या शुभारम्भ की सोच भी नहीं सकते हैं. इसी मान्यता के चलते जानवरों को खूंटे से खोलने से लेकर जंगल पहुँचाने तक न जाने कितने सिक्के ‘टिक्खों’ यानी भेंट के रूप में चढ़ा देते हैं.
यह त्यौहार यमुना एवं कमल नदी घाटी क्षेत्रों में ज्येष्ठ संक्रांति को तो टौंस क्षेत्र में शिवरात्रि के दिन ही मना दिया जाता है क्योंकि यहा के भेडाल शिवरात्रि समाप्ति के बाद ही ‘डांडा—कांठा’ के लिए निकल पड़ते हैं. वन—देवियों के निमित्त होने वाली इस पूजा के लिए बनी बकरियों को लौह के किसी धार दार हथियार से नहीं बल्कि किंगोड़ की टहनी से ही एक तलवार नुमा आकृति बना कर उससे काट कर भोग लगाया जाता हैं.
लोक पूजित आराध्य देवों में वन—देवियाँ यानी बण्क्या प्रमुख एवं प्रतिष्ठित हैं. फसल एवं पशु धन रक्षा की कामना के साथ मनाया जाने वाला बाकर्या त्यार इन्हीं वन—देवियों को समर्पित होता है. वन—देवियों का निवास उच्च पहाड़ी क्षेत्रों में होने पर इन्हें वनों की अधिष्ठात्री देवियाँ तथा इहलोक से इन्द्रलोक तक पूजित होने पर ‘इन्द्र की परियाँ’ सम्बंधी मान्यता के चलते वर्षा प्रदाता देवियों के रूप में इनकी दोहरी मान्यता है. लोक विश्वास है कि इनकी कृपा से निर्जन वन्य क्षेत्रों में मवेशियों तथा चरावहों पर आने वाले संकट टल जाते हैं. इन्द्र की परियों के रूप में अतिवृष्टि, ओलावृष्टि एवं अनावृष्टि इन्हीं के अधिकार क्षेत्र में हैं, जिनसे ये लोकवासियों को बचाती हैं. इसी कामना के साथ फसल कटाई एवं वन्य क्षेत्रों में जाने से पहले उन्हें प्रसन्न करने के लिए लोग इस प्रकार की पूजा का आयोजन करते हैं.
यह भी उल्लेखनीय है कि यह त्यौहार यमुना एवं कमल नदी घाटी क्षेत्रों में ज्येष्ठ संक्रांति को तो टौंस क्षेत्र में शिवरात्रि के दिन ही मना दिया जाता है क्योंकि यहा के भेडाल शिवरात्रि समाप्ति के बाद ही ‘डांडा—कांठा’ के लिए निकल पड़ते हैं. वन—देवियों के निमित्त होने वाली इस पूजा के लिए बनी बकरियों को लौह के किसी धार दार हथियार से नहीं बल्कि किंगोड़ की टहनी से ही एक तलवार नुमा आकृति बना कर उससे काट कर भोग लगाया जाता हैं. बण्क्यों यानी वन—देवियों की पूजा के निमित्त इसी संक्रांति के अतिरिक्त किसी ग्राम विशेष में होने वाले थाती पूजन के दौरान आयोजित होने वाले बण्क्या पूजन के लिए भी इसी प्रकार आटे से बकरियाँ बनायी व वन देवियों को चढ़ाई जाती है.
(लेखक कवि, साहित्यकार एवं वर्तमान में अध्यापक के रूप में कार्यरत हैं)