राष्ट्र-गान की धुन के रचयिता कैप्टन राम सिंह

  • चारु तिवारी

कुछ गीत हमारी चेतना में बचपन से रहे हैं। बाल-सभाओं से लेकर प्रभात फेरियों में हम उन गीतों को गाते रहे हैं। एक तरह से इन तरानों ने ही हमें देश-दुनिया देखने का नजरिया दिया। जब हम छोटे थे तो एक गीत अपनी प्रार्थना-सभा में गाते थे। बहुत मधुर संगीत और जोश दिलाने वाले इस गीत को हम कदम-ताल मिलाकर गाते थे। गीत था- ‘कदम-कदम बढाये जा, खुशी के गीत गाये जा/ये जिन्दगी है कौम की तू कौम पै मिटाये जा।’ उन दिनों अन्तरविद्यालयी प्रतियोगिताएं होती थी, जो क्षेत्रीय से लेकर प्रदेश स्तर तक अलग-अलग चरणों में होती थी। उसमें विशेष रूप से एक प्रतियोगिता थी- ‘राष्ट्र-गान गायन प्रतियोगिता।’ इसे एक विशेष धुन और नियत समय 52 सेकेंड में पूरा करना होता था। इसमें झंडारोहण, सलामी, राष्ट्र गान की सावधान वाली मुद्रा के सभी मानकों पर भी अंक मिलते थे। इस प्रतियोगिता में हमारी टीम मंडल स्तर तक प्रथम आती थी। तब हमें पता नहीं था कि जिन गीतों की धुन पर हम अपनी रचनात्मकता का रास्ता निकाल रहे हैं, उनके रचयिता कौन हैं। बहुत बाद में जब हम औपचारिक शिक्षा पूरी करने के बाद कुछ और पढने-लिखने लगे तो पता चला इन दोनों गीतों की धुन बनाने वाले थे- कैप्टन राम सिंह। आजाद हिन्द फौज के सिपाही और नेताजी सुभाषचंद्र बोस के सबसे विश्वस्त साथी। आज उनकी पुण्यतिथि है। चेतना की धुन के धनी इस वीर को हम सबका सैल्यूट।

कैप्टन राम सिंह के संगीत का सफर प्रकृति प्रदत्त है। वे बचपन में जानवरों के सींग से संगीत के सुर निकालते थे। जब वे आजाद हिन्द फौज से पहले वे युद्धबंदियों के बीच गीत-संगीत के माध्यम से बहुत लोकप्रिय थे। उनका राष्ट्र-गान की धुन बनाने का सफर भी कम रोचक नहीं है। नेताजी सुभाषचंद्र बोस जब 3 जुलाई, 1943 में सिंगापुर पहुंचे तो रामसिंह ने उनके स्वागत में एक गीत तैयार किया-

‘सुभाष जी, सुभाष जी, वो जाने हिन्द आ गये,
है नाज जिस पै हिन्द को, वो जाने हिन्द आ गये।’

पहली ही मुलाकात में नेताजी रामसिंह से बहुत प्रभावित हुये। नेताजी ने रामसिंह को एक वायलिन भेंट किया। इसे वे हमेशा अपने पास रखते थे। नेताजी ने उन्हें आजाद हिन्द फौज के लिये प्रेरणादायक, जोशीले और सैनिकों में वीरता का भाव भरने वाले गीत रचने की जिम्मेदारी सौंपी। यहां से उनके गीत-संगीत का सफर शुरू हुआ। और एक धुन निकली- ‘कदम-कदम बढाये जा, खुशी के गीत गाये जा।’ इसके बाद तो सैकड़ों गीतों की धुनें बनीं। रामसिंह 1945 में रंगून में गिरफ्तार कर लिये गये। लगभग एक वर्ष बाद 11 अप्रैल, 1946 को उनकी रिहाई हुई।

रामसिंह ने 20 जून, 1946 को दिल्ली के बाल्मीकि भवन में महात्मा गांधी को एक गीत सुनाया। गीत रवीन्द्रनाथ टैगोर के ‘जन-गण-मन’ का हिन्दी अनुवाद था- ‘शुभ सुख चैन की बरखा बरसे।’ इसे कुछ संशोधनों के साथ नेताजी ने अपने सलाहकारों के साथ मिलकर लिखा था। इसकी धुन रामसिंह ने बनाई थी।

राष्ट्र-गान ‘जन-गण-मन’ की धुन बनाने की अपनी कहानी है। राम सिंह ने 20 जून, 1946 को दिल्ली के बाल्मीकि भवन में महात्मा गांधी को एक गीत सुनाया। गीत रवीन्द्रनाथ टैगोर के ‘जन-गण-मन’ का हिन्दी अनुवाद था- ‘शुभ सुख चैन की बरखा बरसे।’ इसे कुछ संशोधनों के साथ नेताजी ने अपने सलाहकारों के साथ मिलकर लिखा था। इसकी धुन रामसिंह ने बनाई थी। ‘क़ौमी तराना’ नाम से यह आजाद हिंद फौज का राष्ट्रीय गीत बना। बाद में इसी धुन का प्रयोग हमारे राष्ट्र-गान ‘जन-गण-मन’ के लिये किया गया। इस प्रकार कैप्टन रामसिंह राष्ट्र-गान की धुन के रचयिता हैं। जब 15 अगस्त, 1947 को देश आजाद हुआ तो कैप्टन रामसिंह के नेतृत्व में बैंड ने लालकिले पर ‘शुभ सुख चैन की बरखा बरसे’ की धुन बजाई।

कैप्टन राम सिंह 14 वर्ष की आयु में ही वे गोरखा ब्वाय कम्पनी में भर्ती हो गये। यहीं प्रसिद्ध संगीतकार हैडसन और डेनिश से संगीत की बारीकी सीखी। पश्चिमोत्तर प्रांत में उन्होंने अपनी वीरता का परिचय देकर किंग जार्ज-5 मेडल प्राप्त किया। अगस्त 1941 में वे ब्रिटिश सिपाही के रूप में इपोह भेजे गये। पर्ल हार्बर पर जापानी हमले के दौरान उन्हें जापानियों द्वारा बन्दी बना लिया गया।

 

आजाद हिन्द फौज के सिपाही और संगीतकार रहे कैप्टन राम सिंह मूलतः पिथौरागढ़ जनपद के मूनाकोट गांव के मूल निवासी थे। उनके दादा जमनी चंद जी 1890 के आस-पास हिमाचल प्रदेश में जाकर बस गये थे। 15 अगस्त 1914 को वहीं धर्मशाल के पास चिलगाडी में उनका जन्म हुआ। उनके पिता का नाम दिलीप सिंह था। वह बचपन से ही संगीत प्रेमी थे। संगीत की प्रेरणा नाना नथु चंद से मिली। वर्ष 1927 में उन्होंने मिडिल पास किया। 14 वर्ष की आयु में ही वे गोरखा ब्वाय कम्पनी में भर्ती हो गये। यहीं प्रसिद्ध संगीतकार हैडसन और डेनिश से संगीत की बारीकी सीखी। पश्चिमोत्तर प्रांत में उन्होंने अपनी वीरता का परिचय देकर किंग जार्ज-5 मेडल प्राप्त किया। अगस्त 1941 में वे ब्रिटिश सिपाही के रूप में इपोह भेजे गये। पर्ल हार्बर पर जापानी हमले के दौरान उन्हें जापानियों द्वारा बन्दी बना लिया गया। जुलाई 1942 में इन्हीं युद्ध बन्दियों से बनी आजाद हिन्द फौज में यह भी सिपाही के रूप में नियुक्त हो गये। वर्ष 1944 में सुभाष जी ने उन्हें दो स्वर्ण पदक देकर सम्मानित किया।

अगस्त, 1948 में तत्कालीन प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरु के अनुरोध पर वह उत्तर प्रदेश पीएसी में सब इंस्पेक्टर के रूप में लखनऊ आये और पीएसी के बैण्ड मास्टर बन गये। 30 जून, 1974 को वे सेवानिवृत्त हो गये और उन्हें ‘आजीवन पीएसी के संगीतकार’ का मानद पद दिया गया। 15 अप्रैल, 2002 को इस महान संगीतकार का देहावसान हो गया।

कैप्टन राम सिंह जी को कई पुरस्कार मिले और अपने जीवन के अंतिम दिनों तक वे लखनऊ की पीएसी कालोनी में रहते थे, वायरलेस चौराहे से सुबह शाम गुजरते वायलिन पर मार्मिक धुनें अक्सर सुनाई देती थी। उनके द्वारा कई पहाड़ी धुनें भी बनाई गईं, जैसे- ‘नैनीताला-नैनीताला…घुमी आयो रैला।’ नेताजी द्वारा भेंट किया गया वायलिन उन्हें बहुत प्रिय था, वे कहते थे- ‘बहुत जी लिया, अब तो यही इच्छा है कि जब मरूं यह वायलिन ही मेरे हाथ में हो।’अनेक सम्मानों से पुरुस्कृत राम सिंह जी कहा करते थे- ‘जिस छाती पर नेता जी के हाथों से तमगा लगा हो, उस छाती पर और मेडल फीके ही हैं।’ उनको निम्न पुरस्कार मिले-

  • किंग जार्ज-5 मेडल, 1937
  • नेताजी गोल्ड मेडल, 1943
  • उ०प्र० राज्यपाल गोल्ड मेडल (प्रथम), 1956
  • ताम्र पत्र, १९७२
  • राष्ट्रपति पुलिस पदक, 1972
  • उ०प्र० संगीत नाटक अकादमी एवार्ड,1979
  • सिक्किम सरकार का प्रथम मित्रसेन पुरस्कार,1993

हमने ‘क्रियेटिव उत्तराखंड-म्यर पहाड़’ को पोस्टर श्रंखला में कैप्टन रामसिंह का पोस्टर प्रकाशित किया था। हम सब उन्हें अपनी कृतज्ञ श्रद्धांजलि अर्पित करते हैं।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार एवं पहाड़ के सरोकारों से जुड़े हैं)

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