‘उत्तरायण’ के पर्याय थे बंशीधर पाठक ‘जिज्ञासु’

हमारी लोक विधाओं को नया आयाम देने वाले बंशीधर पाठक ‘जिज्ञासु’ जी की पुण्यतिथि पर उन्हें याद करते हुए

चारु तिवारी

उन दिनों हम लोग बग्वालीपोखर में रहते थे. यह बात 1976-77 की है. आकाशवाणी लखनऊ से शाम 5.45 बजे कार्यक्रम आता था- ‘उत्तरायण.’ शाम को  ईजा स्कूल के दो-मंजिले की बड़ी सी खिड़की में बैठकर रेडियो लगाती. हम सबका यह पसंदीदा कार्यक्रम था. हम किसी भी हालत में इसे मिस नहीं होने देते. हमें नहीं पता था कि इस कार्यक्रम को संचालित करने वाले हमारे ही बगल के गांव नहरा (कफड़ा) के वंशीधर पाठक ‘जिज्ञासु’ जी हैं. बहुत बाद में उनके व्यक्तित्व और कृतित्व को जानने का मौका मिला. उन्होंने कुमाउनी भाषा और साहित्य के लिये अपना जो अमूल्य योगदान दिया उसे कभी भुलाया नहीं जा सकेगा. जिज्ञासु जी ने आकाशवाणी लखनऊ में रहते ‘उत्तरायण’ के माध्यम से जिस तरह कुमाउनी-गढ़वाली भाषा के संवर्धन और नाटकों की शुरुआत की उसने हमारी भाषा-साहित्य के लिये व्यापक मंच तैयार किया. आज उनकी पुण्यतिथि (8 जुलार्इ, 2016) पर हम उत्तराखंड के लोक साहित्य और लोक विधाओं को आगे बढ़ाने में उनके योगदान के लिये उन्हें याद करते हैं. हमारी विनम्र श्रद्धांजलि.

बंशीधर पाठक ‘जिज्ञासु’ जी का जन्म अल्मोड़ा जनपद के द्वाराहाट विकासखंड के नहरा, पो. मासर (कफड़ा) गांव में 21 फरवरी 1934 को हुआ. बहुत छोटी उम्र में ही वे अपने पिता के साथ देहरादून चले गये. यही उन्होंने अपनी प्रारंभिक शिक्षा प्राप्त की. कुछ समय बाद वे पिता के साथ दिल्ली चले गये. इसके बाद शिमला. यहीं वंशीधर जी ने कक्षा छह में दाखिला लिया. उन्होंने 1950 में हाईस्कूल की परीक्षा पास की. उन दिनों शिमला में साहित्यिक माहौल था. वंशीधर पाठक जी पर इसका प्रभाव पड़ा. इस बीच उनके पिता फिर दिल्ली आ गये. जिज्ञासु जी शिमला में ही रहे. उनकी कवितायें और कहानियां पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होने लगी. उनकी नौकरी खादी ग्रामोद्योग शिमला में टाइपिस्ट के रूप में लग गई. वर्ष 1955 में उनका विवाह अल्मोड़ा की देवकी देवी से हुआ. वर्ष 1962 में उनके मित्र जयदेव शर्मा ‘कमल’ ने उन्हें आकाशवाणी में विभागीय कलाकार के रूप में आवेदन करने को कहा. चीनी हमले के बाद भारत सरकार ने उत्तर प्रदेश के सीमांत जिलों के श्रोताओं के लिये ‘उत्तरायण’ कार्यक्रम शुरू किया था. जनवरी 1963 से वे ‘उत्तरायण’ में विभागीय कलाकार के रूप में कार्य करने लगे. इस कार्यक्रम को पहले कमल और जीत जरधारी संचालित कर रहे थे. बाद में वंशीधर पाठक ‘जिज्ञासु’ और जीत जरधारी ने इसे चलाया. जिस समय वे ‘उत्तरायण’ में आये उन्हें खुद कुमाउनी नहीं आती थी. इसकी वजह थी कि वह बहुत छोटी उम्र में ही गांव से बाहर निकल गये थे. उन्होंने नये सिरे से कुमाउनी सीखी.

‘उत्तरायण’ कार्यक्रम के लिये उन्होंने बहुत मेहनत और शोध किया. पहले यह कार्यक्रम 15 मिनट का था. फिर आधे घंटे और बाद में एक घंटे का हुआ. इसकी समयावधि बढ़ने से अब कुमाउनी-गढ़वाली की कई विधाओं गीतों, वार्ताओं, कविता-कहानियों, नाटकों आदि के लिये अच्छा समय मिलने लगा. इस कार्यक्रम के लिये वार्ताकारों, कवियों, गायकों को शामिल करने के लिये घर-घर जाते थे. उन्होंने इसी बहाने बहुत सारी प्रतिभाओं को तलाशा. कई प्रतिभाओं का मंच प्रदान किया. पहाड़ के हिन्दी में लिखने वालों से कुमाउनी-गढ़वाली में लिखवाया. पहाड़ से भी अच्छा लिखने वालों को यात्रा व्यय और पारिश्रमिक देकर आकाशवाणी के स्टूडियो में बुलाया. उन्होंने उत्तराखंडी मूल के रचनाकारों की रिकार्डिंग मंगवाई. लोक भाषाओं में नाटक-रूपक आदि भी प्रसारित किये जाने लगे. ‘उत्तरायण’ कार्यक्रम अब पहाड़ के गांव-घरों तक सबेस लोकप्रिय कार्यक्रम बन गया. इस कार्यक्रम ने जहां के कलाकारों, रचनाकारों को मंच प्रदान किया वहीं नये लोगों को प्रोत्साहित भी किया. उस दौर में उत्तराखंड की बोलियों का कोई भी नया-पुराना कवि, लेखक, गायक, वादक, लोक-कलाकार बचा होगा जो ‘उत्तरायण’ का मेहमान न बना हो.

जिज्ञासु जी ने लखनऊ में सांस्कृतिक गतिविधियों के माध्यम से भी उत्तराखंड के लोक संगीत और भाषा को बढ़ाने में महत्वपूर्ण पहल की. जीत जरधारी और अन्य मित्रों के साथ मिलकर ‘शिखर संगम’ की स्थापना की. इसके माध्यम से वे कुमाउनी-गढ़वाली नाटकों और लोकभाषाओं की पत्रिका के प्रकाशन पर अपने को केन्द्रित रखना चाहते थे. लखनऊ में पहली बार कुमाउनी-गढ़वाली नाटकों का मंचन हुआ. इनमें ललित मोहन थपलियाल का ‘खाडू लापता’, नंद कुमार उप्रेती का ‘मी यो गेयूं, मी यो सटक्यूं’, चारु चन्द्र पांडे की हास्य कविता ‘पुंतुरी’ कविता का नाट्य रूपांतरण शामिल थे. ‘शिखर संगम’ ज्यादा समय नहीं चली, लेकिन 1978 में उन्होंने ‘आंखर’ नाम से संस्था बनाकर कुमाउनी नाटकों का सिलसिला शुरू किया. इस संस्था के माध्यम से कई साल कुमाउनी भाषा के नाटकों के अलावा ‘आंखर’ पत्रिका का प्रकाशन भी होता रहा.

वंशीधर पाठक ‘जिज्ञासु’ का पहला कुमाउनी कविता संग्रह ‘सिसौंण’ 1984 में आया. वर्ष 1991 में हिन्दी कविता संग्रह ‘मुझको प्यारे पर्वत सारे’ प्रकाशित हुआ. उन्होंने अपनी पहली कुमाउनी कविता ‘रणसिंग बाजौ’ 1962 में चीनी हमले के बाद लिखी. यह कविता 1969 में ‘शिखरों के स्वर’ में प्रकाशित हुई. उनकी कुछ कविताओं से उन्हें याद करते हैं-

1.

अमरकोष पढ़ो, इतिहासा पत्र पल्टी
खतड़सींग
नि मिल, गैड़ नि मिल!
कथ्यार पुछिन, पुछ्यार पुछिन
गणत करै, जागर लगा
बैसि भैट्यूं, रमौल सुणौं भारत सुणौं
खतड़सींग नि मिल, गैड नि मिल.

स्याल्दे बिखैति गयूं, देवधुरै बग्वाव गयूं,
जागसर गयूं, बागसर गयूं
अल्मोडै कि नंदेबी गयूं
खतड़सिंह नि मिल, गैड़ नि मिल!
तब मैल समझौ
खतड़सींग और गैड़ द्वी अफवा हुनाल!
लेकिन चैमास निड़ाव
नानतिन
थैं पत्त लागौ
कि खतडुवा एक त्यार
लै सिर्फ कुमूंक ऋतु त्यार.

2.

यो कुमूं हमारों सुख को ड्यारो छै ऋतु बारोंमास.
सज्जन सम्मानी हंसनी गानी कौतिक खेल तमासा..

बांजा बज्याणी अरडो पाणी हरीभरी छन धूरा.
यां बिना विरामा चमचम घामा आंखिन लागूं त्यूरा..

घरबण सतकां फल, बेडूकाफलआडू और घिंघारू.
जो ले यां आंछो, धौ के खांछौ, खुमानीकुश्म्यारू..

करि बुति धाणी खेती कमाणी पशिण बगै दिनराता.
मन धै के खाणी नाजै वाणी ना जै जीवनदाता..

यो इन बीरन की, रणधीरन की द्यशप्त की लै थाता.
बडि़ रुपसि बाना, रस की खाना शुभसौभाग्यविधाता..

दाना सयाना ठूलानाना परमेश्वर का बंदा.
दिन राता ध्यानी महिमा गानी जोगी साधू संता..

लुकै छिपै खाणी अपणी दाणी सज्जन को उपदेशा.
कुर्मांचल प्यारो मुलुक हमारो नी जाणो परदेशा..

वंशीधर पाठक गौरवगायक जिज्ञासु उपनामा.
हाल बसी लखनौ, भुलै नि सकनौ नहरा को शुभग्रामा..

3.

रणसिंग बाजौ
खबरदार!
होशियार!
अरे देशाक् पहरेदार!
रणसिंग बाजौ

करी घोरबज्र हुकार
गजैं गो अगासपताल
सार दुनी संसार.
खबरदार!
होशियार!
अरे देशाक् पहरेदार!
रणसिंग बाजौ


जागो रे वीरो जागौ!
रे रणधीरों जागौ!
रणसिंग बाजौ
तुमन कैं जगूं
बारबार, हजार बार!
खबरदार!
रणसिंग बाजौ

दरिंद दुश्ममणै फौज अपार,
आजिलै ठाडि़
वां सरहदै पार
जो दींणै तुमन कैं ललकार!
खबरदार!
रणसिंग बाजौ

कि है जाऔ तैयार,
उठाओ खुकुरि,
हथ्याऔ तलवार,
पल्टै दियौ ढानभुंइन कैं,
फोड़ दियौ दावनकैं.
हिटौ जसिक बादव हिटनी.
कदम बढाऔ,
बढ़नै जाऔ,
मारौ फाल,
चढि़ जाऔ जल्दी ह्यूंवालधार.
दुश्मण मारौ,
ख्येति आऔ सीमा पार!
खबरदार!
रणसिंग बाजौ

उठौ ज्वानो उठौ,
बढ़ौ रे ज्वानौ बढ़ौ,
वीरों में बलवान तुम,
भारत मां की शान छा,
छा तुम सरदारोंक सरदार!
खबरदार!
होशियार
अरे
देशाक् पहरेदार!

वंशीधर पाठक ‘जिज्ञासु’ के लिखे कुछ गीत ‘उत्तरायण’ कार्यक्रम में बहुत लोकपि्रय हुये-

1.

मैं तो सुवा कैं गये नै, कौतिक फिर ले जुड़नै रईं
बण
तो सुवा मैं गये नै काना फिर ले बुडनै रईं.

2.

सुवा का देश बटि आइया घुघुति वे
मैं
झन छोडि़ये,पापिणी वे, मैं झन छोडि़ये!

3.

भै से रौ लेरुवा डाला कूरूरूरू
दीदी
गीत कूणै
भुला
कें झुलूणै झुला सूरूरूरू.

संदर्भः

  1. ‘उत्तरायण’ के दद्दा-भुला, नवीन जोशी, स्मृति अंक ‘पहाड़’
  2. शिखरों के स्वर, संपादक: दुर्गेश, गिरीश तिवाडी
  3. ब्याण ता्र, हस्तलिखित पत्रिका
  4. हमारी कविता के आंखर, संपादक: गिरीश तिवाडी, शेखर पाठक

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