
मंजू दिल से… भाग-32
मंजू काला
कुछ पखवाड़े पहले की बात है, सुबह की चाय सुड़कते हुए एक समाचार ने मेरा ध्यान आकर्षित किया था कि कृषि विभाग किसानों को मौसम अनुमान करने के लिए कहावतें पढा रहा है, पढकर मुझ जैसी आधुनिका का आश्चर्य चकित होना लाजमी था, उत्सुकता वश मैंने पड़ताल की तो पाया कि सदियों पहले हमारे देश में कृषि के संबंध में कुछ मुहावरे कहे गये हैं! मैंने जब गहराई से इन कहावतों की बाबत जानकारी इकट्ठा की तो समझ गयी की ये मुहावरे, कहावतें, लोकोक्तियाँ हमारे देश की कृषक संस्कृति को बयां करती है, इनमें ज्ञान भरा होता है। वैसे अरबी भाषा में एक कहावत है-,
“अल-मिस्लफ़िल कलाम कल-मिल्ह फ़िततआम”
यानी बातों में-कहावतों या मुहावरों और उक्तियों की उतनी ही ज़रूरत है जितनी की खाने में नमक की।” ग्रामीण लोक अपनी बात में वजन पैदा करने के लिए अक्सर इन मुहावरों का इस्तेमाल करते हैं। ( मेरे पहाड़ में इन कहावतों को आणे- उखणे कहा जाता है) हमारे देश के लोक जीवन में कहावतों की बड़ी महत्वपूर्ण भूमिका होती है। इन मुहावरों के संबंध में एक महत्वपूर्ण तथ्य आपसे साझा करना चाहती हूँ, जानिऐगा की ये कहावतें मौखिक है, पीढ़ी दर पीढ़ी से ये हस्तांतरित होती चली आ रही हैं। सबसे प्रमुख बात यह है कि इन्हें लिपिबद्ध नहीं किया गया है। ये वाचिक परम्परा से लगातार चलती आ रही हैं। अपढ़ और भोले-भाले श्रमजीवी समाज के लोग सदियों से इनमें छिपे उपयोगी रहस्यों से अपने दैनिक कार्य करते चले आ रहे हैं। इन कहावतों में जन-जीवन से जुड़ी प्रायः हर तरह की राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक, धार्मिक, खेती-बाड़ी तथा मौसम से जुड़ी भविष्यवाणियाँ समाहित हैं। ग्रामीण समाज आज भी इनसे मार्गदर्शन लेता रहता है। वैज्ञानिक यंत्रों के आविष्कार से पहले ये कहावतें लोक-जीवन में किसानों की न केवल मार्गदर्शिका का काम करती थीं, अपितु उनकी हर छोटी–बड़ी दैनिक समस्या का समाधान ढूँढने में मदद भी करती थीं। वैसे भी खेती और मौसम का आपसी संबंध बहुत निकट का है। अगर किसान को मौसम की सटीक जानकारी मिल जाए तो वह अपनी फसल के अनुरूप जरूरी तैयारी पहले से कर ले। हालांकि ऐसा हो नहीं पा रहा है। लेकिन हमारे पूर्वजों के जमाने में लोक कवि घाघ की कहावतें इतनी सटीक रहती थीं कि मिट्टी कैसी हो से लेकर फसल कौन सी बोई जाए, सबकी बिल्कुल सही जानकारी मिल जाती थी। लोक कवि घाघ की कहावतें आज भी उतनी ही प्रासंगिक हैं, जितनी पहले थी। तभी न कृषि विभाग किसानों को ….. घाघ , भडूरी को रटा रहा है!
घाघ के सूत्र, लोक कवि बुझ बुझक्कड़, लोक कवि गिरिधर लोक रसिक, कवि ईसुरी संत मलूक दास की कहावतें आज भी सैकड़ों साल बाद खरी उतर रही हैं। ये सभी लोग अपने जमाने के महान समाज वैज्ञानिक थे। खेती, खेत, कृषि खलिहान के मौसम और मानसून के वैज्ञानिक कवि घाघ के सूत्रों को आज भी कोई काट नहीं सकता है।
कहते हैं कि घाघ के मौसम विज्ञान पर जर्मनी के सुप्रसिद्ध वैज्ञानिक लिविंग ने यूरोप में कृत्रिम उर्वरक के संबंध में बड़ा अनुसंधान किया। उसमें उन्होंने उनकी कहावतों को सबसे सटीक पाया। उन्होंने इसे पूरी दुनिया में प्रचारित किया। पहले इस पर विश्वास नहीं किया जाता था। घाघ महराज ने खेतों की जुताई, गुड़ाई, पानी कब बरसेगा, किस खेत में क्या बोया जाए, कब बोया जाए, बैल कैसा हो, बीज कैसा हो, मिट्टी कैसी हो, नक्षत्र, दिन, तिथि का बहुत सूक्ष्मता से अध्यन किया था ! अब सवाल उठता है कि घाघ कौन?, तो चलिए बूझते है!
घाघ महाराज का जीवन काल अकबर के समय का माना जाता है! वह महान कृषि पंडित एवं व्यावहारिक पुरुष थे। उनका नाम भारतवर्ष के, विशेषत: उत्तरी भारत के, कृषकों के जिह्वाग्र पर रहता है, चाहे बैल खरीदना हो या खेत जोतना, बीज बोना हो अथवा फसल काटना, घाघ की कहावतें उनका पथ प्रदर्शन आज भी करती है, ये कहावतें मौखिक रूप में देश भर में प्रचलित हैं। आज के समय में टीवी व रेडियो पर मौसम संबंधी जानकारी मिल जाती है -लेकिन सदियों पहले न टीवी-रेडियो थे, न सरकारी मौसम विभाग। ऐसे समय में महान किसान कवि -‘घाघ’ व ‘भड्डरी’ की कहावतें खेतिहर समाज का पीढि़यों से पथप्रदर्शन करते आयी हैं। बिहार और उत्तर प्रदेश के गांवों में सर्वाधिक लोकप्रिय जनकवियों में कवि घाघ का नाम सर्वोपरि लोकप्रिय है। जहां वैज्ञानिकों के मौसम संबंधी अनुमान भी गलत हो जाते हैं, ग्रामीणों की धारणा है कि घाघ कहावतें प्राय: सत्य साबित होती हैं। पुराने समय में कम मानसून एवं सब बातों का पहले ही अनुमान लगाया करते थे और उसी के हिसाब से कृषक व अन्य लोग अपनी दिनचर्या तय करते थे।
घाघ के जन्मकाल एवं जन्मस्थान के संबंध में बड़ा मतभेद है। इनकी जन्मभूमि कन्नौज के पास चौधरी सराय नामक ग्राम में बताई जाती है। शिवसिंह सरोज का मत है कि इनका जन्म सं. २७५३में हुआ था, किंतु पं.रामनरेश त्रिपाठी जी ने बहुत खोजबीन करके इनके कार्यकाल को सम्राट् अकबर के राज्यकाल का ही घोषित किया है, चौधरी सराय के कृषक- घाघ के ज्ञान से प्रसन्न होकर सम्राट अकबर ने उन्हें ‘सरायघाघ ‘बसाने की आज्ञा दी थी। यह जगह कन्नौज से एक मील दक्षिण स्थित है।घाघ और भड्डरी की कहावतें नामक पुस्तक में देवनारायण द्विवेदी लिखते हैं, ”कुछ लोगों का मत है कि घाघ का जन्म संवत् १७५३में कानपुर जिले में हुआ था। मिश्रबंधु ने इन्हें कान्यकुब्ज ब्राह्मण माना है, पर यह बात केवल कल्पना-प्रसूत है। यह कब तक जीवित रहे, इसका ठीक-ठाक पता नहीं चलता।
घाघ और भड्डरी के जीवन के बारे में प्रामाणिक तौर पर बहुत ज्ञात नहीं है। उनके द्वारा रचित साहित्य का ज्ञान भी ग्रामीणों ने किसी पुस्तक में पढ़ कर नहीं बल्कि परंपरा से अर्जित किया है। कहावतों में बहुत जगह ‘कहै घाघ सुनु भड्डरी’, ‘कहै घाघ सुन घाघिनी’ जैसे उल्लेाख आए हैं। इस आधार पर माना जाता है कि भड्डरी घाघ कवि की पत्नी थीं। हालांकि अनेक लोग घाघ व भड्डरी को पति-पत्नीे न मानकर एक ही व्यक्ति अथवा दो भिन्न-भिन्न व्यक्ति मानते हैं।अभी तक घाघ की लिखी हुई कोई पुस्तक उपलब्ध नहीं हुई।’घाघ’ और ‘भड्डरी’ जो उत्तर भारत के ग्रामीण क्षेत्रों में एक कृषि वैज्ञानिक के समकक्ष ही स्थान रखते हैं के दोहे आज भी किसानों ने आत्मसात किये हुए हैं. इन दोहों के माध्यम से सहज शब्दों में मौसम के पूर्वानुमान के संकेत दिए गए हैं.उनकी वाणी कहावतों के रूप में बिखरी हुई है, जिसे अनेक लोगों ने संग्रहीत किया है। इनमें रामनरेश त्रिपाठी कृत ‘घाघ और भड्डरी’ (हिंदुस्तानी एकेडेमी, 1939 ई.) भड्डरी की ही भाँति घाघ भी कृषि ज्योतिषी थे। किस मास में किधर से हवा चले तो कितनी वर्षा हो, अथवा किस मास की वर्षा से खेती में कीड़े लगेंगे, इसका अच्छा व्यावहारिक ज्ञान उन्हें था। आज भी किसान उनकी ऐसी कहावतों से लाभान्वित होते हैं।बैल ही खेती का मूलधार है, अत: घाघ ने बैलों के आवश्यक गुणों का सविस्तार वर्णन किया है। हल तैयार करने के लिये आवश्यक लकड़ी एवं उसके परिमाण का भी उल्लेख उनकी कहावतों में मिलता है। उपलब्ध कहावतों के आधार पर इतना अवश्य कहा जा सकता है कि घाघ ने भारतीय कृषि को व्यावहारिक दृष्टि प्रदान की। उनकी प्रतिभा बहुमुखी थी और उनमें नेतृत्व की क्षमता भी थी। उनके कृषि संबंधी ज्ञान से आज भी अनेकानेक किसान लाभ उठाते हैं।
वैज्ञानिक दृष्टि से उनकी ये समस्त कहावतें अत्यन्त सारगर्भित हैं, अत: भारतीय कृषिविज्ञान में घाघ का विशिष्ट स्थान हैं। घाघ के गहन कृषि-ज्ञान का परिचय उनकी कहावतों से मिलता है। माना जाता है कि खेती और मौसम के बारे में कृषि वैज्ञानिकों की भविष्यवाणियां झूठी साबित हो सकती है, घाघ की कहावतें नहीं। भारतीय ग्रामीण समाज आज भी कृषि विज्ञान की जटिलताओं से परे इन लोकोक्तियों में ही अपनी शंकाओं का समाधान ढूंढ़ता है, और आश्चर्यजनक रूप से हजारों साल के अनुभव के निचोड़ के रूप में ये लोकोक्तियाँ काफी हद तक सटीक भी बैठती हैं। समय के साथ इनके स्वरुप में भी क्षरण से इंकार नहीं किया जा सकता। अतः यदि बौद्धिक वैज्ञानिक समुदाय इन परम्पराओं में छुपे वैज्ञानिक तथ्यों को उभारने की ओर केन्द्रित हो तो परंपरा और आधुनिक विज्ञान का यह संगम आम लोगों को ज्यादा लाभान्वित कर पायेगा। घाघ के कृषिज्ञान का पूरा-पूरा परिचय उनकी कहावतों से मिलता है। उनका यह ज्ञान खादों के विभिन्न रूपों, गहरी जोत, मेंड़ बाँधने, फसलों के बोने के समय, बीज की मात्रा, दालों की खेती के महत्व एवं ज्योतिष ज्ञान, शीर्षकों के अंतर्गत विभाजित किया जा सकता है। घाघ का अभिमत था कि कृषि सबसे उत्तम व्यवसाय है, जिसमें किसान भूमि को स्वयं जोतता है :
उत्तम खेती मध्यम बान, निकृष्ट चाकरी, भीख निदान।
खेती करै बनिज को धावै, ऐसा डूबै थाह न पावै।
उत्तम खेती जो हर गहा, मध्यम खेती जो सँग रहा।
जो हल जोतै खेती वाकी और नहीं तो जाकी ताकी।
फसल बोने का काल एवं बीज की मात्रा:- घाघ ने फसलों के बोने का उचित काल एवं बीज की मात्रा का भी निर्देश किया है। उनके अनुसार प्रति बीघे में पाँच पसेरी गेहूँ तथा जौ, छ: पसेरी मटर, तीन पसेरी चना, दो सेर मोथी, अरहर और मास, तथा डेढ़ सेर कपास, बजरा बजरी, साँवाँ कोदों और अंजुली भर सरसों बोकर किसान दूना लाभ उठा सकते हैं। यही नहीं, उन्होंने बीज बोते समय बीजों के बीच की दूरी का भी उल्लेख किया है, –
जैसे घना-घना सन, मेंढ़क की छलांग पर ज्वार, पग पग पर बाजरा और कपास;
हिरन की छलाँग पर ककड़ी और पास पास ऊख को बोना चाहिए।कच्चे खेत को नहीं जोतना चाहिए, नहीं तो बीज में अंकुर नहीं आते। यदि खेतों में ढेले हों, तो उन्हें तोड़ देना चाहिए।आजकल दालों की खेती पर विशेष बल दिया जाता है, क्योंकि उनसे खेतों में नाइट्रोजन की वृद्धि होती है। घाघ ने सनई, नील, उर्द, मोथी आदि द्विदलों को खेत में जोतकर खेतों की उर्वरता बढ़ाने का स्पषखादों के संबंध में घाघ के विचार अत्यंत पुष्ट थे। उन्होंने गोबर, कूड़ा, हड्डी, नील, सनई, आदि की खादों को कृषि में प्रयुक्त किए जाने के लिये वैसा ही सराहनीय प्रयास किया जैसा कि1840 ई. के आसपास जर्मनी के सप्रसिद्ध वैज्ञानिक लिबिग ने यूराप में कृत्रिम उर्वरकों के संबंध में किया था। घाघ की निम्नलिखित कहावतें अत्यंत सारगर्भित हैं -,
खाद पड़े तो खेत, नहीं तो कूड़ा रेत।
गोबर राखी पाती सड़ै, फिर खेती में दाना पड़ै।
सन के डंठल खेत छिटावै, तिनते लाभ चौगुनो पावै।
गोबर, मैला, नीम की खली, या से खेती दुनी फली।
वही किसानों में है पूरा, जो छोड़ै हड्डी का चूरा।
घाघ ने गहरी जुताई को सर्वश्रेष्ठ जुताई बताया। यदि खाद छोड़कर गहरी जोत कर दी जाय तो खेती को बड़ा लाभ पहुँचता है -,
छोड़ै खाद जोत गहराई, फिर खेती का मजा दिखाई।
बांध न बाँधने से भूमि के आवश्यक तत्व घुल जाते और उपज घट जाती है। इसलिये किसानों को चाहिए कि खेतों में बाँध अथवा मेंड़ बाँधे,
सौ की जोत पचासै जोतै, ऊँच के बाँधै बारी।
पचास का सौ न तुलै, देव घाघ को गारी।।
सुकाल:-सर्व तपै जो रोहिनी, सर्व तपै जो मूर।
परिवा तपै जो जेठ की, उपजै सातो तूर।।
यदि रोहिणी भर तपे और मूल भी पूरा तपे तथा जेठ की प्रतिपदा तपे तो सातों प्रकार के अन्न पैदा होंगे।
शुक्रवार की बादरी, रही सनीचर छाय।
तो यों भाखै भड्डरी, बिन बरसे ना जाए।।
यदि शुक्रवार के बादल शनिवार को छाए रह जाएं, तो भड्डरी कहते हैं कि वह बादल बिना पानी बरसे नहीं जाएगा।
भादों की छठ चांदनी, जो अनुराधा होय।
ऊबड़ खाबड़ बोय दे, अन्न घनेरा होय।।
यदि भादो सुदी छठ को अनुराधा नक्षत्र पड़े तो ऊबड़-खाबड़ जमीन में भी उस दिन अन्न बो देने से बहुत पैदावार होती है।
अद्रा भद्रा कृत्तिका, अद्र रेख जु मघाहि।
चंदा ऊगै दूज को सुख से नरा अघाहि।।
यदि द्वितीया का चन्द्रमा आर्द्रा नक्षत्र, कृत्तिका, श्लेषा या मघा में अथवा भद्रा में उगे तो मनुष्य सुखी रहेंगे।
सोम सुक्र सुरगुरु दिवस, पौष अमावस होय।
घर घर बजे बधावनो, दुखी न दीखै कोय।।
यदि पूस की अमावस्या को सोमवार, शुक्रवार बृहस्पतिवार पड़े तो घर घर बधाई बजेगी-कोई दुखी न दिखाई पड़ेगा।
सावन पहिले पाख में, दसमी रोहिनी होय।
महंग नाज अरु स्वल्प जल, विरला विलसै कोय।।
यदि श्रावण कृष्ण पक्ष में दशमी तिथि को रोहिणी हो तो समझ लेना चाहिए अनाज महंगा होगा और वर्षा स्वल्प होगी, विरले ही लोग सुखी रहेंगे।
पूस मास दसमी अंधियारी।बदली घोर होय अधिकारी।
सावन बदि दसमी के दिवसे।भरे मेघ चारो दिसि बरसे।।
यदि पूस बदी दसमी को घनघोर घटा छायी हो तो सावन बदी दसमी को चारों दिशाओं में वर्षा होगी। कहीं कहीं इसे यों भी कहते हैं-‘काहे पंडित पढ़ि पढ़ि भरो, पूस अमावस की सुधि करो।
पूस उजेली सप्तमी, अष्टमी नौमी जाज।
मेघ होय तो जान लो, अब सुभ होइहै काज।।
यदि पूस सुदी सप्तमी, अष्टमी और नवमी को बदली और गर्जना हो तो सब काम सुफल होगा अर्थात् सुकाल होगा।
अखै तीज तिथि के दिना, गुरु होवे संजूत।
तो भाखैं यों भड्डरी, उपजै नाज बहूत।।
यदि वैशाख में अक्षम तृतीया को गुरुवार पड़े तो खूब अन्न पैदा होगा।
अकाल और सुकाल:- सावन सुक्ला सप्तमी, जो गरजै अधिरात।
बरसै तो झुरा परै, नाहीं समौ सुकाल।।
यदि सावन सुदी सप्तमी को आधी रात के समय बादल गरजे और पानी बरसे तो झुरा पड़ेगा; न बरसे तो समय अच्छा बीतेगा।
असुनी नलिया अन्त विनासै। गली रेवती जल को नासै।।
भरनी नासै तृनौ सहूतो। कृतिका बरसै अन्त बहूतो।।
यदि चैत मास में अश्विनी नक्षत्र बरसे तो वर्षा ऋतु के अन्त में झुरा पड़ेगा; रेतवी नक्षत्र बरसे तो वर्षा नाममात्र की होगी; भरणी नक्षत्र बरसे तो घास भी सूख जाएगी और कृतिका नक्षत्र बरसे तो अच्छी वर्षा होगी।
आसाढ़ी पूनो दिना, गाज बीजु बरसंत।
नासे लच्छन काल का, आनंद मानो सत।।
आषाढ़ की पूणिमा को यदि बादल गरजे, बिजली चमके और पानी बरसे तो वह वर्ष बहुत सुखद बीतेगा।
वर्षा:- रोहिनी बरसै मृग तपै, कुछ कुछ अद्रा जाय।
कहै घाघ सुने घाघिनी, स्वान भात नहीं खाय।।
यदि रोहिणी बरसे, मृगशिरा तपै और आर्द्रा में साधारण वर्षा हो जाए तो धान की पैदावार इतनी अच्छी होगी कि कुत्ते भी भात खाने से ऊब जाएंगे और नहीं खाएंगे।
उत्रा उत्तर दै गयी, हस्त गयो मुख मोरि।
भली विचारी चित्तरा, परजा लेइ बहोरि।।
उत्तर नक्षत्र ने जवाब दे दिया और हस्त भी मुंह मोड़कर चला गया। चित्रा नक्षत्र ही अच्छा है कि प्रजा को बसा लेता है। अर्थात् उत्तरा और हस्त में यदि पानी न बरसे और चित्रा में पानी बरस जाए तो उपज अच्छी होती है।
खनिके काटै घनै मोरावै। तव बरदा के दाम सुलावै।।
ऊंख की जड़ से खोदकर काटने और खूब निचोड़कर पेरने से ही लाभ होता है। तभी बैलों का दाम भी वसूल होता है।
हस्त बरस चित्रा मंडराय।घर बैठे किसान सुख पाए।।
हस्त में पानी बरसने और चित्रा में बादल मंडराने से (क्योंकि चित्रा की धूप बड़ी विषाक्त होती है) किसान घर बैठे सुख पाते हैं।
हथिया पोछि ढोलावै।घर बैठे गेहूं पावै।।
यदि इस नक्षत्र में थोड़ा पानी भी गिर जाता है तो गेहूं की पैदावार अच्छी होती है।
जब बरखा चित्रा में होय। सगरी खेती जावै खोय।।
चित्रा नक्षत्र की वर्षा प्राय: सारी खेती नष्ट कर देती है।
जो बरसे पुनर्वसु स्वाती। चरखा चलै न बोलै तांती।
पुनर्वसु और स्वाती नक्षत्र की वर्षा से किसान सुखी रहते है कि उन्हें और तांत चलाकर जीवन निर्वाह करने की जरूरत नहीं पड़ती।
जो कहुं मग्घा बरसै जल।सब नाजों में होगा फल।।
मघा में पानी बरसने से सब अनाज अच्छी तरह फलते हैं।
जब बरसेगा उत्तरा। नाज न खावै कुत्तरा।।
यदि उत्तरा नक्षत्र बरसेगा तो अन्न इतना अधिक होगा कि उसे कुते भी नहीं खाएंगे।
दसै असाढ़ी कृष्ण की, मंगल रोहिनी होय।
सस्ता धान बिकाइ हैं, हाथ न छुइहै कोय।।
यदि असाढ़ कृष्ण पक्ष दशमी को मंगलवार और रोहिणी पड़े तो धान इतना सस्ता बिकेगा कि कोई हाथ से भी न छुएगा।
असाढ़ मास आठें अंधियारी। जो निकले बादर जल धारी।।
चन्दा निकले बादर फोड़।साढ़े तीन मास वर्षा का जोग।।
यदि असाढ़ बदी अष्टमी को अन्धकार छाया हुआ हो और चन्द्रमा बादलों को फोड़कर निकले तो बड़ी आनन्ददायिनी वर्षा होगी और पृथ्वी पर आनन्द की बाढ़-सी आ जाएगी।
असाढ़ मास पूनो दिवस, बादल घेरे चन्द्र।
तो भड्डरी जोसी कहैं, होवे परम अनन्द।।
यदि आसाढ़ी पूर्णिमा को चन्द्रमा बादलों से ढंका रहे तो भड्डरी ज्योतिषी कहते हैं कि उस वर्ष आनन्द ही आनन्द रहेगा।
पैदावार:- रोहिनी जो बरसै नहीं, बरसे जेठा मूर।
एक बूंद स्वाती पड़ै, लागै तीनिउ नूर।।
यदि रोहिनी में वर्षा न हो पर ज्येष्ठा और मूल नक्षत्र बरस जाए तथा स्वाती नक्षत्र में भी कुछ बूंदे पड़ जाएं तो तीनों अन्न (जौ, गेहूं, और चना) अच्छा होगा।
जोत:-
गहिर न जोतै बोवै धान।सो घर कोठिला भरै किसान।
हरा न जोतकर धान बोने से उसकी पैदावार खूब होती है।
गेहूं भवा काहें। असाढ़ के दुइ बाहें।
गेहूं भवा काहें। सोलह बाहें नौ गाहें।।
गेहूं भवा काहें। सोलह दायं बाहें।
गेहूं भवा काहें। कातिक के चौबाहें।।
गेहूं पैदावार अच्छी कैसे होती है ? आषाढ़ महीने में दो बांह जोतने से; कुल सोलह बांह करने से और नौ बार हेंगाने से; कातिक में बोवाई करने से पहले चार बार जोतने से।
गेहूं बाहें।धान बिदाहें।।
गेहूं की पैदावार अधिक बार जोतने से और धान की पैदावार विदाहने (धान का बीज बोने के अगले दिन जोतवा देने से,यदि धान के पौधों की रोपाई की जाती है तो विदाहने का काम नहीं करते, यह काम तभी किया जाता है जब आप खेत में सीधे धान का बीज बोते हैं) से अच्छी होती है।
गेहूं मटर सरसी। औ जौ कुरसी।।
गेहूं और मटर बोआई सरस खेत में तथा जौ की बोआई कुरसौ में करने से पैदावार अच्छी होती है।
गेहूं गाहा, धान विदाहा। ऊख गोड़ाई से है आहा।।
जौ-गेहूं कई बांह करने से धान बिदाहने से और ऊख कई बार गोड़ने से इनकी पैदावार अच्छी होती है।
गेहूं बाहें, चना दलाये। धान गाहें, मक्का निराये। ऊख कसाये।
खूब बांह करने से गेहूं, खोंटने से चना, बार-बार पानी मिलने से धान, निराने से मक्का और पानी में छोड़कर बाद में बोने से उसकी फसल अच्छी होती है।
पुरुवा रोपे पूर किसान। आधा खखड़ी आधा धान।।
पूर्वा नक्षत्र में धान रोपने पर आधा धान और आधा पैया (छूछ) पैदा होता है।
पुरुवा में जिनि रोपो भैया। एक धान में सोलह पैया।।
पूर्वा नक्षत्र में धान न रोपो नहीं तो धान के एक पेड़ में सोलह पैया पैदा होगा।
बोवाई:- कन्या धान मीनै जौ। जहां चाहै तहंवै लौ।।
कन्या की संक्रान्ति होने पर धान (कुमारी) और मीन की संक्रान्ति होने पर जौ की फसल काटनी चाहिए।
कुलिहर भदई बोओ यार। तब चिउरा की होय बहार।।
कुलिहर (पूस-माघ में जोते हुए) खेत में भादों में पकने वाला धान बोने से चिउड़े का आनन्द आता है-अर्थात् वह धान उपजता है।
आंक से कोदो, नीम जवा। गाड़र गेहूं बेर चना।।
यदि मदार खूब फूलता है तो कोदो की फसल अच्छी है। नीम के पेड़ में अधिक फूल-फल लगते है तो जौ की फसल, यदि गाड़र (एक घास जिसे खस भी कहते हैं) की वृद्धि होती है तो गेहूं बेर और चने की फसल अच्छी होती है।
आद्रा में जौ बोवै साठी। दु:खै मारि निकारै लाठी।।
जो किसान आद्रा में धान बोता है वह दु:ख को लाठी मारकर भगा देता है।
आद्रा बरसे पुनर्वसुजाय, दीन अन्न कोऊ न खाय।।
यदि आर्द्रा नक्षत्र में वर्षा हो और पुनर्वसु नक्षत्र में पानी न बरसे तो ऐसी फसल होगी कि कोई दिया हुआ अन्न भी नहीं खाएगा।
आस-पास रबी बीच में खरीफ। नोन-मिर्च डाल के, खा गया हरीफ।।
खरीफ की फसल के बीच में रबी की फसल अच्छी नहीं होती।
मुझे लगता है कि आज के संदर्भ में घाघ को समझने के लिए उनके मुहावरों का अर्थ जानना भी जरूरी है,
सो कुछ बानगियां प्रस्तुत है-
‘सावन मास बहे पुरवइया। बछवा बेच लेहु धेनु गइया।।’
अर्थात् यदि सावन महीने में पुरवैया हवा बह रही हो तो अकाल पड़ने की संभावना है। किसानों को चाहिए कि वे अपने बैल बेच कर गाय खरीद लें, कुछ दही-मट्ठा तो मिलेगा।
‘शुक्रवार की बादरी, रही सनीचर छाय। तो यों भाखै भड्डरी, बिन बरसे ना जाए।।’
अर्थात् यदि शुक्रवार के बादल शनिवार को छाए रह जाएं, तो भड्डरी कहते हैं कि वह बादल बिना पानी बरसे नहीं जाएगा।
‘रोहिनी बरसै मृग तपै, कुछ कुछ अद्रा जाय। कहै घाघ सुन घाघिनी, स्वान भात नहीं खाय।।’
अर्थात् -यदि रोहिणी पूरा बरस जाए, मृगशिरा में तपन रहे और आर्द्रा में साधारण वर्षा हो जाए तो धान की पैदावार इतनी अच्छी होगी कि कुत्ते भी भात खाने से ऊब जाएंगे और नहीं खाएंगे।
उत्रा उत्तर दै गयी, हस्त गयो मुख मोरि। भली विचारी चित्तरा, परजा लेइ बहोरि।।
अर्थात् उत्तरा और हथिया नक्षत्र में यदि पानी न भी बरसे और चित्रा में पानी बरस जाए तो उपज ठीक ठाक ही होती है।
पुरुवा रोपे पूर किसान। आधा खखड़ी आधा धान।।
अर्थात् -पूर्वा नक्षत्र में धान रोपने पर आधा धान और आधा खखड़ी (कटकर-पइया) पैदा होता है।
आद्रा में जौ बोवै साठी। दु:खै मारि निकारै लाठी।।
अर्थात् – जो किसान आद्रा नक्षत्र में धान बोता है वह दु:ख को लाठी मारकर भगा देता है।दरअसल कृषक कवि घाघ ने अपने अनुभवों से जो निष्कोर्ष निकाले हैं, वे किसी भी मायने में आधुनिक मौसम विज्ञान की निष्पतत्तियों से कम उपयोगी नहीं हैं।
उदाहरण- (i) “आषाढ़ मास पूनो दिवस, बदल घेरे चन्द्र, तो भड्डरी जोषी कहें, होवे परम आनंद”।
अर्थात्, यदि आषाढ़ मास की पूर्णिमा को चंद्रमा बादलों से ढाका रहे तो उस वर्ष अच्छी वर्षा होगी.
(ii) “सावन मास बहे पुरवाई, बैल बेच खरीदो गाई”।
यानी, यदि सावन मास में पूर्व हवा बहे तो बारिश की संभावना कम है।
कहावतों की बानगी
- दिन में गरमी रात में ओस , कहे घाघ बरखा सौ कोस !
- खेती करै बनिज को धावै, ऐसा डूबै थाह न पावै।
- खाद पड़े तो खेत, नहीं तो कूड़ा रेत।
- उत्तम खेती जो हर गहा, मध्यम खेती जो संग रहा।
- जो हल जोतै खेती वाकी, और नहीं तो जाकी ताकी।
- गोबर राखी पाती सड़ै, फिर खेती में दाना पड़ै।
- सन के डंठल खेत छिटावै, तिनते लाभ चौगुनो पावै।
- गोबर, मैला, नीम की खली, या से खेती दुनी फली।
- वही किसानों में है पूरा, जो छोड़ै हड्डी का चूरा।
- छोड़ै खाद जोत गहराई, फिर खेती का मजा दिखाई।
- सौ की जोत पचासै जोतै, ऊँच के बाँधै बारी
- जो पचास का सौ न तुलै, देव घाघ को गारी।।
- सावन मास बहे पुरवइया ,बछवा बेच लेहु धेनु गइया।
- रोहिनी बरसै मृग तपै, कुछ कुछ अद्रा जाय
- कहै घाघ सुन घाघिनी, स्वान भात नहीं खाय।।
- पुरुवा रोपे पूर किसान , आधा खखड़ी आधा धान।
- पूस मास दसमी अंधियारी. बदली घोर होय अधिकारी।
- सावन बदि दसमी के दिवसे. भरे मेघ चारो दिसि बरसे।
- पूस उजेली सप्तमी, अष्टमी नौमी जाज. मेघ होय तो जान लो, अब सुभ होइहै काज।
- सावन सुक्ला सप्तमी, जो गरजै अधिरात, बरसै तो झुरा परै, नाहीं समौ सुकाल।
- रोहिनी बरसै मृग तपै, कुछ कुछ अद्रा जाय, कहै घाघ सुने घाघिनी, स्वान भात नहीं खाय।
- भादों की छठ चांदनी, जो अनुराधा होय, ऊबड़ खाबड़ बोय दे, अन्न घनेरा होय।
- अंडा लै चीटी चढ़ै, चिड़िया नहावै धूर , कहै घाघ सुन भड्डरी वर्षा हो भरपूर ।
- दिन में बद्दर रात निबद्दर , बहे पूरवा झब्बर झब्बर
- कहै घाघ अनहोनी होहिं, कुआं खोद के धोबी धोहिं ।
घाघ कवि की उक्तियों का वैज्ञानिक अध्ययन करने से पता चलता है कि आज के मौसम विज्ञान को भी वे परिभाषित करती हैं, भारत में विशेषकर उत्तर में -,वर्षा का कारण अरब सागर से उठने वाला मानसूनी बादल है, जो उत्तर पूर्व की ओर बढ़कर वर्मा की हिमालय-पर्वत श्रेणी से टकराकर पश्चिम की ओर मुड़ जाती है और गंगा के मैदानी भागों, तराई एवं उत्तरांचल में बरस जाता है अरबसागर से मानसूनी वर्षा एवं पश्चिमी विक्षोम से जाड़े की वर्षा भारत में होती है। बंगाल की खाड़ी से उठने वाला बादल जब वहाँ से कम दबाव वाले क्षेत्रों – तमिलनाडु एवं बंगाल, आंध्रप्रदेश में आता है तो वर्षा होती है। घाघ कवि वर्षाकाल को विशेषकर मानसूनी वर्षा के समय को नक्षत्रों से मिलाते हैं अर्थात पृथ्वी जब ब्रह्माण्ड के उस भाग (नक्षत्र वाले भाग) पहुँचती हैं ज्योतिष के अनुसार उनकी भविष्यवाणी खरी है। यथा-
जल वर्षा चित्रा (कार्तिक) में हो तो कृषि को हानि है। जाहिर है उस समय खरीफ की फसल पक कर तैयार है और सड़ सकती है। परंतु चित्रा नक्षत्र में पृथ्वी जब पहुँचे अर्थात ब्रह्माण्ड में १८० डिग्री पर हो तो प्राकृतिक दृष्टि से वर्षा का अंत निकट है और रबी की तैयारी होती है। अत: वर्षा लाभदायक नहीं। परंतु पूर्व का नक्षत्र यानि हस्त में खूब वर्षा होती है क्योंकि सूर्य का कोण पृथ्वी के समानांतर हो ताप को न्यून एवं आकाश में दबाव में बढ़त भी लाने लगता है, अत: घाघ ने कहा है कि-
बढ़त जो बरसे चित्रा उतरत बरसे हस्त।
कितनौ राजा डांड़ ले, हारे नहीं गृहस्थ।।
ज्ञातव्य है कि इसी समय दिन-रात बराबर (22 सितंबर) हो जाते हैं और सूर्य दक्षिण की ओर तेजी से बढ़ता जाता है। जबकि इसके पूर्व सूर्य 22 जून को पूरे तेज से उत्तरी गोलार्ध को गर्म कर देता है और दिनमान उच्चतम होता है। इसी प्रकार सूर्य से पृथ्वी ब्रह्माण्ड के 120 डिग्री कोण पर होती है (मघा नक्षत्र) वर्षाजल अत्यंत सुस्वादु एवं वर्षा खूब होती है कवि कहते हैं- ‘मघा भूमि अधा’ परंतु अगर यह न बरसा तो ऊसर भूमि भी सूख जावेगी। आगे घाघ भविष्यवाणी करते हुए कहते हैं कि-
माघ पूष जो दखिन चले, तो सावन के लच्छन भले।
यह लक्षण है जब दक्षिणी मानसून (मद्रास वाला) को लाने वाली उत्तर भारत में हवा आवे तो श्रावण मास में अवश्य वर्षा लाती है।
वर्षा की शुरुआत जब आद्री नक्षत्र में पृथ्वी पहुँचे अर्थात 60 डिग्री में यानी 195 जून के लगभग हो जावे तो वर्षा बराबर होती रहेगी अर्थात जब पृथ्वी 110 डिग्री एवं 15 जुलाई तक वृष्ट होती रहेगी। यह इसका प्रमाण है कि समुद्र से हवा (दक्षिण पश्चिम से) पूर्व होते सिलसिला चालू हो गया और मानसून में सहसा रोक (मानसून ब्रेक) न होगा जो बीच-बीच में वर्षा मौसम में यदा-कदा देखा जाता है। इसी प्रकार जब पृथ्वी आर्द्रा 60 डिग्री से 70 डिग्री अर्थात हस्त के चौथे भाग में पहुँच जावे तो अवश्य वर्षा होनी चाहिए। इस स्थिति में पृथ्वी सूर्य से 170 अंश पर रहने से गर्मी की समाप्ति एवं जाड़े की शुरुआत भी हो जाती है क्योंकि सूर्य का ताप कम हो जाता है। एक कारण यह भी है कि सूर्य पृथ्वी के दक्षिणी भाग अर्थात विषुवत रेखा के दक्षिण गोलार्द्ध में पहुँचकर उत्तरी गोलार्द्ध में ठंडक ला देता है तभी हमारे लोक में प्रचलित है कि हथिया के पेट में जाड़ा अर्थात प्रारंभ हो जाता है। वैज्ञानिक दृष्टि से सूर्य से दूरस्थ कोण पर होने के कारण यह घटना होती है। इसको महत्त्व देते हुए घाघ ने कहा कि-
आवत ना आदर दियो जात न दीनी हस्त।
ये दोनों पछितायेंगे पाहुन और गृहस्त।
यह नहीं कि केवल हस्त से प्रसन्न हो बल्कि घाघ ने कहा कि स्वाती जो हस्त के पश्चात २०० अंश पर रहता है, में जरा भी वर्षा हो जावे तो अति घनी खेती हो जावेंगी और पपीहा भी प्रसन्न होगा। स्वाती का जल इतना शुद्ध होता है कि तुरंत रासायनिक क्रियाकर सर्प में विष, सीप में मोती एवं केले में कपूर का निर्माण कर डालता है, जैसा प्रचलित है। यह उस जल की वर्षा के अंत में आता है जब आकाश एकदम स्वच्छ हो, प्रदूषण रहित होने से वर्षाजल को डिस्टिल वाटर के समान कर देता है।
वर्षा न होने का संकेत घाघ कवि वैज्ञानिक दृष्टि से देते हैं। जैसे-
दिन में गर्मी रात में ओस, कहें घाघ बरखा सौ कोस।
अर्थात दिन की गर्मी से बादल न बने या दबाव कम न हुआ तो रात्रि में ओस पड़कर समस्त आर्द्रता निकल जावेगी, फलत: वर्षा नहीं होगी क्योंकि आर्द्रता कम रही। परंतु जब वन में कास का फूल उगे अथवा अगस्त या कोनोपस तारा आकाश में दिखे तो वर्षा समाप्त हो जावेंगी। वर्षा तथा हवा का संबंध है कि बादल किस दिशा में जा रहे हैं।
अगर हवा दक्षिणी अर्थात दक्षिण पश्चिम की हो और पूर्व की ओर बादलों को न ले जावे तो वर्षा न होगी क्योंकि पूर्व की ओर जाना तभी होता है जब वह हिमशृंग (पर्वत की चोटी) से टकराकर बरस जावे। तभी आपने कहा कि-
सब दिन बरसो दखिना बाय, कभी न बरसो बरसा पाय।
जब हवा पूरब की हो तो मानसून के पथ के अनुसार होती है तो वर्षा अवश्यंभावी है और विपरीत स्थिति में वर्षा नहीं ही होगी। तभी कहा है कि-
पूरब के बादर पश्चिम जाय, पतरी पकावै मोटी खाय,
पकुंवा बादर पूरब के जाय, मोटी पकौव पतरी खाय।।
पुनर्वसु एवं पुष्य नक्षत्रों में पृथ्वी सूर्य से 90 से 100 डिग्री अर्थात लंब रहती है, अत: वायुमंडल हल्का होने से वर्षा की अवश्य आशा होती है। इस समय वर्षा न होना दुर्भाग्यसूचक होगा। अत: कवि कहते हैं कि-
पुरब पुनर्वसु भरे न ताल। तो फिर मरिहौं अगली साल।।
वर्षा के आगमन की सूचना बड़े वैज्ञानिक ढंग से दी गयी कि ज्येष्ठ मास में जितनी गर्मी पड़ेगी वर्षा उतनी ही होगी। जाहिर है गर्मी का चरम जैठ में होकर वाष्पीकरण लाकर वर्षा लाता है।
जेठ मास जो तपै निरासा, तो जानों बरखा की आसा।
वर्षा के प्रधान नक्षत्रों में आद्रा, कृतिका में कुछ वर्षा होनी चाहिए, नहीं तो अकाल की संभावना बनेगी, ऐसी भड्डरी का कहना है।
कृतिका तो कोरी गई आद्रा मेंह न बूँद।
तो यौं जानौ भड्डरी काल मचावै दंद।।
इसी प्रकार वर्षा न होने का निर्देश देते हुए कहते हैं कि यदि मृगशिरा नक्षत्र में हवा न चले अर्थात पूर्व के रोहिणी में तपन की चरम सीमा के पश्चात, तो वर्षा नहीं होगी। स्पष्ट है कि तपन से वायुमंडल हल्का होता है और समुद्री हवा मृगशिरा में आने लगती है। फलत: वर्षा होगी ही। भड्डरी ने कहा कि-
मृगसिर वायु न बाजिया, रोहिणी तपै न जेठ।
गोरी बानै कांकरा, खड़ा खेजड़ी हेठ।।
वर्षा के अतिरिक्त कवि ने भूकम्प के विषय में भी लिखा कि – यदि जेठ प्रतिपदा को बुधवार पड़े और आषाढ़ की पूर्णिमा को मूल नक्षत्र हो तो भूकम्प आ सकता है।
जेठ जेठ पहिल परिवा, दिन बुध बासर जो होइ।
मूल असाढ़ी जो मिल पृथ्वी कम्पै जोइ।।
वर्षा के लिये कहा कि आद्रा और आगे के दस नक्षत्र जेठ की शुक्ल पक्ष में बरस जावे तो आगे वर्षा मासो में पानी नहीं बरसेगा। इसी प्रकार विशाखा, चित्रा, स्वाती, जेष्ठ मास में बादल तो वृष्ठि नहीं होगी। इस प्रकार आपने जेठ मास में वृष्टि के लक्षणों को बताया कि उससे मानसूनी वर्षा का पता लग जाता है। यह सत्य है क्योंकि जेठ मास में गर्मी अधिक होती है और वर्षा की संभावना मानसूनी महीनों में बढ़ जाती है।
भड्डरी दिनों को महत्त्व अधिक देते लिखते हैं कि –
जेठ बदी दसमी दिना, जो सनिवासर होई।
पानी होय न धरनि पर, बिरला जीवै कोई।
अर्थात जेठ बदी दशमी को यदि शनिवार पड़े तो पृथ्वी पर पानी बरसेगा। चूँकि जेठ मास गर्मी की चरम सीमा होती, परंतु उसमें वृष्टि हो और गर्मी न पड़े, वाष्पीकरण न हो तो जाहिर है, वर्षा मास सूखे रह जावेंगे। अत: कहा कि-
जेठ उजारे पच्छ में, आद्राविक दस रिच्छ,
सजल होय निरजल कहो, निरजल सजल प्रत्यक्ष।
आपने जेठ मास को विशेष इंगित कर कहा था कि जेठ शुक्ल तृतीया को आद्रा नक्षत्र होकर बरस जाय तो अकाल होगा। इसी जेठ की गर्मी में मृगशिरा नक्षत्र आने पर दस दिन खूब तपेगा, परंतु ग्रीष्म त्रतु का दूसरा मास आषाढ़ में भी आगे वर्षा होने के लक्षण बताये गये हैं। जैसे आषाढ़ की अमावस्या को बादल न होने चाहिए। इसके पूर्व नवमी को भी बादल न होने चाहिए। उसी प्रकार आषाढ़ की पूर्णिमा को स्वच्छ आकाश न रह कर बादलयुक्त हो, अर्थात वर्षा का प्रारंभ श्रावण मास होने को है। आपने दिन में बादल और रात्रि स्वच्छ आकाश हो तो दिन में वाष्पीकरण न होने से वृष्टि का संयोग नहीं होना, बताया। परंतु श्रावण में वाष्पीकरण रोहिणी नक्षत्र के कारण हो तो वर्षा कम होनी चाहिए।
मानसून के बढ़ने की दिशा ठीक होने से वर्षा होती है। यह वैज्ञानिक तथ्य ध्यान में रखते हुए आप कहते हैं कि जैसा होता है- पूर्व से मानसूनी बादल पश्चिम जाते हैं तो वर्षा होगी ही, परंतु उलटा होने पर वर्षा नहीं होती है। सत्य है कि मानसून पश्चिम से पूर्व को जाने के पश्चात नहीं बरसेगा। अत: श्रावण मास में आकाश का स्वच्छ या बादलरहित रहना अवर्षण की स्थिति होती है। श्रावण मास में चित्रा, सवाती और बिशाखा नक्षत्रों में वर्षा होना आवश्यक है। ये नक्षत्र चंद्र की गति से हैं। इस मास सूर्य उदय पर कर्क राशि न सामने आवे अपितु सिंह राशि होनी चाहिए, अर्थात सूर्य पृथ्वी का कोण 1२०से १५९ डिग्री का हो और किरणें गर्मी न लाकर वर्षा लावें तभी जोरदार वर्षा होगी।
इस प्रकार प्राचीन समय में विभिन्न प्रचलित कहावतों व मुहावरों के माध्यम से कृषक मौसम विज्ञान एवं आने वाली फसल का पूर्व आकलन कर लिया करते थे- और तदनुसार अपनी व्यवस्था कर लिया करते थे. आज भी इन कहावतों में वर्णित मौसम विज्ञान को प्रभावित करने वाले कारक मौसम विज्ञानियों को शोध का विषय हो सकते हैं. यधपि आधुनिक सभ्यता संस्कृति में पले- बढ़े ‘ यू ट्यूबर काश्तकार’ इन कहावतों से कुछ अपरिचित एवं अनभिज्ञ लगते हैं, लेकिन ग्रामीण क्षेत्रों में वयोवृद्ध कृषक इन कहावतों को याद रखे हुए हैं …और उनसे शुभाशुभ- शकुन साधते रहते हैं…!
(मंजू काला मूलतः उत्तराखंड के पौड़ी गढ़वाल से ताल्लुक रखती हैं. इनका बचपन प्रकृति के आंगन में गुजरा. पिता और पति दोनों महकमा-ए-जंगलात से जुड़े होने के कारण, पेड़—पौधों, पशु—पक्षियों में आपकी गहन रूची है. आप हिंदी एवं अंग्रेजी दोनों भाषाओं में लेखन करती हैं. आप ओडिसी की नृतयांगना होने के साथ रेडियो-टेलीविजन की वार्ताकार भी हैं. लोकगंगा पत्रिका की संयुक्त संपादक होने के साथ—साथ आप फूड ब्लागर, बर्ड लोरर, टी-टेलर, बच्चों की स्टोरी टेलर, ट्रेकर भी हैं. नेचर फोटोग्राफी में आपकी खासी दिलचस्पी और उस दायित्व को बखूबी निभा रही हैं. आपका लेखन मुख्यत: भारत की संस्कृति, कला, खान-पान, लोकगाथाओं, रिति-रिवाजों पर केंद्रित है.)