- दिनेश रावत
कभी दबे स्वर तो कभी खुलम-खुला अकसर चर्चा होती ही रहती है कि रवाँई में जादू है. बहुत से दिलेरे या रवाँईवासियों की अजीज मित्र मण्डली में शामिल साथी सम्बंधों का
लाभ उठाते हुए चार्तुयपूर्ण अंदाज में कुशल वाक्पटुता के साथ किन्तु-परन्तु का यथेष्ट प्रयोग करते हुए उन्हीं से ही पूछ लेते हैं कि ‘हमने सुना है कि रवाँई में जादू है…!’ यद्यपि इस दौरान ‘हमने सुना है’ पर विशेष बलाघात रहता है. मत के अनु समर्थन या पुष्टि के लिए वे तकिया कलाम बन चुके- ‘जो गया रवाँई वो बैठा घर ज्वाई’ का भी सहज सहारा ले लेते हैं. ऐसे ही प्रश्नों से जब भी मेरा सामना हुआ है मैंने सहज स्वीकारा है कि— हाँ! सच है कि रवाँई में जादू है, मगर वह बंगाल के काले जादू जैसा नहीं बल्कि उससे बहुत भिन्न मान-सम्मान, स्वागत-सत्कार, अनूठे अपनेपन-आत्मीयता व विश्वास का जादू है जो जाने-अनजाने, चाहते-न-चाहते हुए भी कई लोगों के सिर चढ़ बोलने लगता है.अपनेपन
रवाँई या रवाँई के समाज-सरोकार, संस्कार-संस्कृति, रीति-नीति, प्रथा-परम्परा व आस्था-अनुराग के सम्बंध में जरा भी समझ न रखने वालों को सीधे-सच्चे-सरल-सहृदय व संवेदनशील लोक
मानस के इसी आचार-व्यवहार से तब-तब किसी जादुई शक्ति की बू आने लगती है या अहसास होने लगता है जब छल-प्रपंच भरे माहौल में ऐसा निश्छल व निःस्वार्थ प्रेम-व्यवहार देख—पाकर वे चमत्कृत होने लगते हैं.अपनेपन
दोष किसी ओर का नहीं बल्कि मानसिक संकीर्णता, संकुचित दृष्टिकोण एवं पूर्वाग्रह युक्त उस खास चश्मे का है जिससे रवाँई को देखने-समझने के वे अभ्यस्त हो चुके हैं. फलतः लोक वैशिष्टय के मूल में समाहित कारक व कारणों के यथार्थ अर्थ-स्वरूप को जानने-समझे बिना ही ऐसे अर्थ-परिभाषा गढ़ दी जाती हैं जो वास्तविकता से
बहुत दूर होती हैं. प्रसंगगत जादू व घर जवाई जैसी बातें भी कुछ ऐसी ही सोच-समझ व मानसिकता की प्रतिफल रही हैं. जबकि रवाँई को सही व सच्चे अर्थों में जानने-समझने के लिए पूर्वाग्रह युक्त चश्मे को हटाकर स्वतंत्र-स्वछंद व व्यापक दृष्टिकोण की जरूरत है क्योंकि हिमालय क्षेत्र जिस पुरातात्विक, ऐतिहासिक, सामाजिक, सांस्कृतिक महत्व के लिए विश्व विश्रुत रहा है, रवाँई उसका एक ऐसा लघु कोश है, जहाँ इन सभी के जीवन्त दर्शन व सहज सुखानुभूति की जा सकती है.अपनेपन
लोकाचार ऐसा कि ‘अतिथि देवोभवः’ की उक्ति यथार्थ में चरितार्थ होती दिखायी देती है वरना वर्तमान में कौन पानी-परात उठाकर किसी के पद-प्रछालन करवा रहा है? सगे-सम्बंधी,
नाते-रिश्तों को छोड़ भी दिया जाए तो भी गाँव-घरों में पहुँचे किसी अंजान, अजनबी, अपरिचित के लिए बिना किसी सामाजिक, व्यावहारिक, सांस्कृतिक एवं मनोवैज्ञानिक जाँच-पड़ताल के जिस आत्मीय विश्वास के साथ घर के दरवाजे खोलकर लोग सेवा-सत्कार में जुटते हैं, सम्बंधित स्वयं भी अपने अजनबी होने के अहसास को भूला देता है.अपनेपन
पुरुष ही नहीं, महिलाएं यानी बहू-बेटियाँ भी जिस आत्मीय विश्वास व स्नेह के साथ घर आए मेहमानों के आतिथ्य सत्कार में जुटती हैं, शायद ही कहीं अन्यत्र देखने को मिले.
ऐसी ही तमाम विशेषताएं इस क्षेत्र विशेष को विषमता, विद्रुपता व विघटित होते समाज से पृथक नवीन पहचान ही नहीं दिलाती हैं बल्कि ‘वसुद्यैवकुटुम्बकम्’ की उक्ति का अनुसरण करते हुए इंसानियत, भ्रात-भाव व रिश्ते-नातों से विमुख होते जन-मानस के लिए प्रेरणा के नव पथ प्रशस्त कर लोक वैशिष्टय को भी धवल करती हैं.
अपनेपन
समता-समानता, स्वागत-सत्कार का भाव-स्वभाव ऐसा कि अंजान-अपरिचित भी किसी खास-मेहमान से कमत्तर नहीं. एक-दो नहीं बल्कि कई दिनों या जब तक वह चाहें आव-भगत होती रहती है.
बात पर्व, त्योहार, मेले-थौले, उत्सवों की हो फिर तो कहना ही क्या? किसके घर का मेहमान, किसके घर खा-पी, उठ-बैठ रहा है? कई बार उसे भी मालूम नहीं होता यानी किसी घर या परिवार विशेष का मेहमान सम्बंधित परिवार मात्र का मेहमान न होकर समूचे ग्राम का मेहमान हो जाता है. पुरुष ही नहीं, महिलाएं यानी बहू-बेटियाँ भी जिस आत्मीय विश्वास व स्नेह के साथ घर आए मेहमानों के आतिथ्य सत्कार में जुटती हैं, शायद ही कहीं अन्यत्र देखने को मिले. ऐसी ही तमाम विशेषताएं इस क्षेत्र विशेष को विषमता, विद्रुपता व विघटित होते समाज से पृथक नवीन पहचान ही नहीं दिलाती हैं बल्कि ‘वसुद्यैवकुटुम्बकम्’ की उक्ति का अनुसरण करते हुए इंसानियत, भ्रात-भाव व रिश्ते-नातों से विमुख होते जन-मानस के लिए प्रेरणा के नव पथ प्रशस्त कर लोक वैशिष्टय को भी धवल करती हैं.अपनेपन
पहली बार भूले-बिसरे किसी गाँव में
पहुँचा अजनबी एक बार में ही लोकवासियों का मधुर स्नेह व आत्मीय-सत्कार पाकर अपनेपन के रंगों से ऐसा रंग जाता है कि उसे भी सब कुछ अपना-अपना लगने लगता है. फिर कभी यदि सम्बंधित का उसी ग्राम में आना-जाना हो तो अब वह ग्रामवासियों के लिए कोई बाहरी व्यक्ति नहीं बल्कि खास हो जाता है. अंजान-अपरिचित गाँव में उसे कई चाचा-चाची, ताऊ-ताई, भाई-बहिनें नज़र आने लगती हैं. लोकवासियों की आत्मीयता से अभिभूत व्यक्ति के सम्मुख गाँव में रुकने-ठहरने के लिए गृह चयन भी एक चुनौती बन उभरती है. नाराजगी रुकने-ठहरने से नहीं बल्कि न रूकने-ठहरने से होती है परन्तु यह भी आवश्यक है कि सम्बंधित का आचार-व्यवहार लोकभावना के अनुरूप हो अन्यथा ओबरे (गौ शाला) में बांध दिए जाने की प्रबल संभावनाओं से भी इंकार नहीं किया जा सकता है.अपनेपन
जमीन, जल व जंगल की पर्याप्ता के चलते कृषि, कृषि आधारित व्यवसाय व पशु पालन के अतिरिक्त प्रकृति प्रदत्त उपादानों की दृष्टि से समृद्ध इस सीमांत क्षेत्र की यही समृद्धि लोक
आचार-विचार, संस्कार-सरोकार, भाव-स्वभाव यानी सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक, व्यवहारिक आदि पक्षों से सहज परिलक्षित होती रहती है. यही आकर्षण का कारण भी रही हैं जिसके चलते व्यवसाय-व्यापार के लिए वर्षों पूर्व से इस क्षेत्र में लोगों को आना-जाना होता रहा है. जिनमें से कइयों ने अवसरों का लाभ उठाकर यहीं जमीन इत्यादि खरीद कर व्यावसायिक प्रतिष्ठान स्थापित कर दिए तो कुछेकरवाँई के जादू से इस प्रकार चमत्कृत हुए कि उन्हें रवाँई के एक पिता से रुकने-ठहरने का स्थायी ठिकाना ही नहीं बल्कि इकलौती पुत्री सहित घर-मकान, जमीन-जायदाद तक कुछ सहज उपलब्ध हो गई.जिसे लोगों ने सर्वाधिक भयानक जादू मानकर प्रचारित-प्रसारित किया. संभव है तत्कालीन परिस्थितियों में सम्बंधित के परिजनों को वह जादुई चमत्कार लगा हो लेकिन वक्त के तद्न्तर वस्तु-स्थिति का यथार्थपरक विश्लेषण किया जाना आवश्यक था ताकि स्पष्ट हो जाता कि रवाँई में आखिर ऐसा कौन-सा जादू है जिसने रवाँई के एक पिता को ही इतना विवश कर दिया कि वह अपनी पुत्री, घर-मकान, जमीन-जायदाद यानी सब कुछ बिना किसी बंध-अनुबंध के किसी बाहरी यानी जो किसी प्रयोजन से कुछेक दिन के लिए रवाँई आया था, उसके हवाले करवा दिए. ऐसा भी नहीं कि रवाँई में कभी मानव सम्पदा की इतनी कमी नहीं हो कि उन्हें बेटियों को ब्याहने के लिए अन्यत्र से सहारे की आवश्यकता महसूस हुई हो.अपनेपन
यह भी विचारणीय है कि
रवाँई की भूमि में यदि सब कुछ अच्छा नहीं होता तो कोई वर्षों से यूँ ही धुनी रमाये नहीं बैठा रहता. परन्तु इसे रवाँई एवं रवाँईवासियों का दुर्भाग्य ही कहा जा सकता है कि जिसके लिए मुक्तकण्ठ से प्रशंसा की जानी चाहिए थी उसे ही धार बनाकर बदनाम किया गया जो तर्कसंगत नहीं है.
अपनेपन
जादू जैसा कुछ होता तो वे लोग
अपनी संतान, घर-मकान, धन-दौलत, जमीन-जायदाद यूँ ही नहीं दे देते बल्कि उनसे ये उल्टा लेते, जब कि ऐसा शायद ही कहीं हुआ हो. सम्बंधित व्यक्ति ही बल्कि ग्राम्यजनों ने भी उसे जो लाड-प्यार, स्नेह-सम्मान और सामाजिक-सांस्कृतिक स्वीकृति प्रदान की उसी के बदौलत शायद ही कभी उसे रवाँई में रहते हुए उसके बाहरीपन के अहसास ने अनावश्यक तंग या परेशान किया हो. रवाँई की इसी जादुई शक्ति ने सम्बंधित को पैतृक गाँव के अतिरिक्त रवाँई का भी भू-अधिपति बना दिया जिस पर उसकी संतति पल्लवित—पुष्पित हो रही है.यह भी विचारणीय है कि रवाँई की भूमि में यदि सब कुछ अच्छा नहीं होता तो कोई वर्षों से यूँ ही धुनी रमाये नहीं बैठा रहता. परन्तु इसे रवाँई एवं रवाँईवासियों का दुर्भाग्य ही कहा जा सकता है कि जिसके लिए मुक्तकण्ठ से प्रशंसा की जानी चाहिए थी उसे ही धार बनाकर बदनाम किया गया जो तर्कसंगत नहीं है.अपनेपन
ये बानगी भर हैं. इनके अतिरिक्त भी बहुत कुछ है जिन्हें जानना-समझना अभी भी शेष है लेकिन उनसे लिए पूर्वाग्रहों से ग्रसित मानसिकता नहीं बल्कि स्वतंत्र-स्वछंद व व्यापक दृष्टिकोण जरूरी है. इस प्रकार की दृष्टि से जिस किसी ने भी रवाँई को जानने-समझने का प्रयास किया उसने जाना—समझा भी और सराहा भी.
(लेखक साहित्यकार एवं वर्तमान में अध्यापक के रूप कार्यरत हैं)