- डॉ. मोहन चंद तिवारी
आज तक संजीवनी क्यों नहीं मिली क्योंकि संजीवनी बूटी का जो वास्तविक पर्वत द्वाराहाट स्थित दुनागिरि है, वहां इस दुर्लभ बूटी को खोजने का कभी प्रयास ही नहीं हुआ. दूसरी खास
बात यह है कि उत्तराखंड सरकार हो या पतंजलि योगपीठ इन्होंने कभी रामायण, महाभारत, पुराण आदि ग्रन्थों में संजीवनी बूटी के पौराणिक भूगोल और रामायण की घटनाओं का गम्भीरता से अध्ययन ही नहीं किया. इतिहास बताता है कि संजीवनी बूटी तो महाभारत काल में ही लुप्त हो चुकी थी. फिर भी संजीवनी बूटी की खोज में रुचि रखने वाले टीवी चैनलों और विद्वानों के लिए आज भी प्रासंगिक है मेरा चार वर्ष पहले लिखा गया यह लेख.नेता जी
29 सितंबर, 2008 को टीवी चैनल- आईबीएन-7 के माध्यम से जब योगगुरु बाबा रामदेव के हरिद्वार स्थित पतंजलि योगपीठ के स्वामी बालकृष्ण द्वारा गढ़वाल जिले के ‘द्रोणागिरी’ पर्वत पर जाकर रामायणकालीन संजीवनी बूटी के मिलने का समाचार मिला तो पूरे देश में एकाएक हलचल-सी मच गई. स्वामी जी ने तीन दिन की खोज
के बाद ‘द्रोणागिरी’ पर्वत से संजीवनी बूटी मिल जाने की घोषणा भी कर दी. किंवदंतियों के अनुसार हनुमान जी त्रेतायुग में उत्तराखंड के चमोली जिले के ‘द्रोणगांव’ से उस ‘द्रोणागिरी’ नामक पहाड़ को उखाड़ कर लंका ले गए थे, जिस पर संजीवनी बूटी हुआ करती थी. पतंजलि योगपीठ ने भी उसी लोक प्रचलित मान्यता से भ्रमित हो कर उसी ‘द्रोणगांव’ स्थित ‘द्रोणगिरी’ नामक पहाड़ से इस बूटी को ढूंढने का दावा किया था. तब पतंजलि योगपीठ की 14 सदस्यीय टीम ने ‘द्रोणगांव’ की वनस्पतियों की जांच पड़ताल करते हुए यह घोषणा कर दी कि ‘संजीवनी बूटी’ कई बूटियों से मिलकर बनती है. इसी मौके पर पतंजलि पीठ की ओर से ‘फेनिकमल’ और ‘बियांड’ दो बूटियों के नाम भी बताए गए थे.नेता जी
पतंजलि योगपीठ द्वारा ‘संजीवनी बूटी’ मिलने के इस समाचार को बहुत आश्चर्यपूर्ण उपलब्धि मानते हुए प्रिंट मीडिया और टी वी चैनलों में बहुत सुर्ख़ियों में प्रसारित किया गया और योगगुरु रामदेव तथा उनके जड़ीबूटी विशेषज्ञ आचार्य बालकृष्ण संजीवनी बूटी के खोजकर्ता के रूप में प्रचारित किए जाने लगे. पूरा देश उत्साहित होने के साथ साथ हैरान भी था कि जिस ‘संजीवनी बूटी’ को खोजने में हनुमान जी तक चकरा गए थे और जिसके शोध तथा अनुसंधान में पिछले अनेक दशकों
से हमारे वनस्पति वैज्ञानिक प्राचीन वनौषधियों की भाषाशास्त्रीय और आयुर्वैदिक रस विज्ञान के धरातल पर ‘संजीवनी बूटी’ को ढूंढने में लगे हैं और अब तक कुछ सिद्ध नहीं कर पाए हैं उसी अति दुर्लभ वनस्पति को पतंजलि योगपीठ के विशेषज्ञों की टीम ने चमोली जिले के ‘द्रोणगांव’ से केवल तीन दिन की खोज के बाद इतनी आसानी से अचानक कैसे ढूंढ लिया था?नेता जी
संजीवनी बूटी के बारे में इस नई खोज का खुलासा करते हुए तब आचार्य बालकृष्ण जी ने मिडिया जगत को यह बताया कि वे ‘संजीवनी’ ले आए हैं, और यह संजीवनी बूटी चार
औषधि पादपों से मिलकर बनी है जिसमें ‘मृतसंजीवनी’, ‘विषल्यकरर्णी’, ‘सुवर्णकरणी तथा ‘संधानी’ शामिल हैं. लेकिन बाद में पतंजलि योगपीठ के इस दावे की जड़ी-बूटी विशेषज्ञों द्वारा वैज्ञानिक धरातल पर जांच-पड़ताल की गई तो पता चला कि यह पतंजलि योगपीठ द्वारा संजीवनी के नाम पर किया गया सस्ती लोकप्रियता प्राप्त करने का एक भ्रामक प्रचार था.नेता जी
गौरतलब है कि उत्तराखंड के वनस्पति विज्ञान के प्रोफेसर राजेन्द्र भट्ट ने आचार्य बालकृष्ण जी के उस समय किए गए दावे को सस्ती लोकप्रियता हासिल करने का गैर वैज्ञानिक तरीका बताते हुए कहा था कि बालकृष्ण जी जिन पौधों की बात कर रहे हैं वनस्पति विज्ञान में वे असमान्य पादप नहीं हैं. वनस्पति शास्त्र में इन्हें ‘सोसोरिया गोसिपी फोरा’ तथा ‘सिलेनियम’ कहा जाता है. प्रोफेसर राजेन्द्र भट्ट ने कहा कि बालकृष्ण
जी के हिसाब से वे वनस्पतियां इसलिए अद्भुत हो सकती हैं जिन्होंने उन्हें पहली बार देखा हो लेकिन वनस्पति विज्ञान की सैकड़ों पुस्तकों में इनके उद्धरण मिलते हैं, और वनस्पति विज्ञानियों को इसकी खूब जानकारी है.नेता जी
प्रोफेसर भट्ट ने यह भी बताया कि मध्य हिमालय में चमोली जिले के इस क्षेत्र के ऊंचे स्थानों में जिन्हें ‘बुग्याल’ कहा जाता है, ऐसे पौधे सामान्यतया मिलते रहते हैं. उनका यह भी कहना था कि पतंजलि योगपीठ द्वारा जिस ‘संजीवनी बूटी’ को खोजने का दावा किया गया है उसके बारे में अभी तक यह भी नहीं पता है कि वह केवल एक ही पादप था,अथवा कई पादपों के रस तत्वों से बनी औषधि. उन्होंने कहा आचार्य बालकृष्ण को इसे ‘संजीवनी’ बताने से पहले इसका रसायनिक परीक्षण भी जरूरी कराना चाहिए था.
नेता जी
उत्तराखंड के ही एक दूसरे जाने माने विद्वान्,श्रीबदरीनाथ केदारनाथ मंदिर समिति के पूर्व अध्यक्ष तथा तत्कालीन योजना आयोग के उपाध्यक्ष मनोहर कांत ध्यानी जी जिन्होंने अपने जीवन का अधिकांश समय जोशीमठ,बदरीनाथ सहित इस मध्य हिमालय में गुजारा तथा वहां के जनजीवन एवं लोकसंस्कृति का सूक्ष्मता से अध्ययन किया,तब उन्होंने भी पतंजलि पीठ के द्वारा संजीवनी बूटी खोज लेने के दावे को केवल वाह-वाही लूटने का सस्ता तरीका बताया. उन्होंने कहा कि वैज्ञानिकों के अनुसार हिमालय क्षेत्र को अभी पांच करोड़ साल पूरे हुए हैं. जबकि त्रेतायुग में रामचन्द्र जी के समय को बीते लगभग एक करोड़ 40 लाख साल ही हुए हैं.तब से लेकर अब तक प्रकृति में न जाने कितने बदलाव तथा परिवर्तन हुए हैं.
नेता जी
भगवान राम के काल के बाद महाभारत काल आया. उसी समय से उत्तराखंड में भी तीर्थ यात्राओं की शुरूआत हुई जब धौम्य मुनि पांडवों को पहली बार इस मार्ग से ले कर गये थे.तब भी इस दौरान कहीं भी इस क्षेत्र में ‘संजीवनी बूटी’ का कोई जिक्र नहीं मिलता है.
नेता जी
मनोहर कांत ध्यानी जी के अनुसार उत्तराखण्ड प्राचीन काल से ही वैद्यों तथा रसशास्त्रियों की भूमि रही है तथा आयुर्वेद में यहां कई प्रयोग तथा अनुसंधान भी हुए हैं. किन्तु स्थानीय लोगों के लोक व्यवहार में भी इस बूटी का कहीं कोई जिक्र नहीं मिलता है. अन्यथा इस क्षेत्र के वैद्यों तथा तत्त्वज्ञानियों को इसकी जरूर जानकारी होती. इसके बाद भी यदि स्वामी बालकृष्ण जी ने वास्तव में संजीवनी को खोज लिया है तो वह प्रशंसनीय ही है. लेकिन जनता के सामने इसकी घोषणा करने से पहले इस बूटी का बारीकी से रासायनिक परीक्षण भी किया जाना आवश्यक था.
नेता जी
इसी संदर्भ में राज्य के आयुर्वेद विज्ञान के जाने माने विशेषज्ञ तथा उत्तराखंड की वनौषधियों के लब्धप्रतिष्ठ विद्वान् पण्डित मायाराम उनियाल जी का भी कहना है कि लोकपरम्परा अथवा लोकव्यवहार में ‘संजीवनी’ का अभी तक कहीं प्रयोग नहीं मिला है. लिहाजा अभी इस पर वैज्ञानिक धरातल पर शोध किया जाना जरूरी है तभी किसी निर्णय पर पहुंचा जा सकता है.
नेता जी
दरअसल, योगपीठ के स्वामी बालकृष्ण जी के इस दावे पर कि वे द्रोणगिरी पर्वत से संजीवनी ले आये हैं,तभी अनेक सवाल उठने लगे थे जब उनसे पूछा जाने लगा था कि जब हनुमान जी द्रोणगिरी पर्वत उठाकर श्री लंका रख आए थे तो बालकृष्ण जी ‘संजीवनी’ आखिर कौन से पर्वत से और कहां से ढूंढ लाए? तब क्या चमोली जिले के ‘द्रोणगांव’ से जुड़ी उस परम्परा को झूठा मान लिया जाए जिसके तहत यहां के लोग नाराज होकर हनुमान जी की पूजा इसलिए नहीं करते क्योंकि वे इस क्षेत्र के पूरे पहाड़ को ही श्रीलंका रख आए थे. इससे तो यही सिद्ध होता है कि हनुमान जी या तो यहां द्रोणगिरी पर्वत लेने आए ही नहीं थे या फिर यहां की लोकमान्यता ही अंधविश्वास पर आधारित होने के कारण गलत है, जिसके मायाजाल से न केवल पतंजलि योगपीठ के आयुर्वेदाचार्य विद्वान स्वामी बालकृष्ण जी ही विमोहित हुए बल्कि उत्तराखंड राज्य की दो-दो सरकारें भी भ्रमित हुई हैं.
नेता जी
जहां तक रामकथा की बात है हम भारतवासी आज भी अन्धविश्वासों में जी रहे हैं और अपने शास्त्रों,रामायण, महाभारत, पुराणों आदि को पढकर अपने देश के इतिहास को जांचने परखने की वैज्ञानिक दृष्टि का हममें प्रायः अभाव रहा है. यही कारण है कि ब्रिटिश साम्राज्यवादी इतिहास दृष्टि पर विश्वास करने के कारण हम कभी रामसेतु तो कभी अयोध्या के मुद्दों को राष्ट्रीय विवाद के विषय बनाते रहते हैं.और ऐसा ही विवाद राजनेता संजीवनी के बारे में भी पैदा करना चाहते हैं.
नेता जी
आम आदमी तो छोड़ो पतंजलि योगपीठ के आयुर्वेद विशेषज्ञ बहुश्रुत आचार्य बालकृष्ण जी भी रामायण, महाभारत और पुराणों को पढ़े बिना केवल जनश्रुतियों के आधार पर ही चमोली के द्रोणगिरि में ‘संजीवनी बूटी’ लेने पहुंच गए और ले आए ‘फेनिकमल’ और ‘बियांड’ आदि कुछ जड़ी-बूटियां जिनके आधुनिक बौटेनिकल नाम ‘सोसोरिया गोसिपी फोरा’ तथा ‘सिलेनियम’ आदि बताए जा रहे हैं किंतु उनमें रामायणकालीन ‘मृतसंजीवनी’, ‘विषल्यकरर्णी’, ‘सुवर्णकरर्णी’ तथा ‘संधानी’ जैसी एक भी ओषधि नहीं है जिनका उल्लेख रामायण में मिलता है.
नेता जी
जब उत्तराखंड के मुख्य मंत्री हरीश रावत पिछले साल ‘संजीवनी बूटी’ खोजने का ऐलान कर रहे थे तो ठीक उसी समय आचार्य बालकृष्ण जी सरकार के अभियान की आलोचना करते हुए दावा कर रहे थे कि उन्होंने तो 1908 में ही संजीवनी खोज ली थी और अभी उस पर परीक्षण चल रहा है. नौ साल हो गए कैसा परीक्षण चल रहा है? देश के अन्य वैज्ञानिक भी जी-जान से इस ‘संजीवनी बूटी’ के शोध में लगे हैं. वे समय समय पर इस क्षेत्र में काम करने वाले शोधार्थियों और आम जनता को अपने शोध के निष्कर्षों से अवगत भी कराते रहते हैं. किंतु आचार्य प्रवर बालकृष्ण जी ने ‘संजीवनी बूटी’ से संबंधित अपने शोधों के निष्कर्षों को बेहद गोपनीय बना रखा है. रामायण के अनुसार हनुमान जी हिमालय से चार बूटियां लाए थे.
नेता जी
ऐसे में आचार्य बालकृष्ण जी को उनके आधुनिक बॉटेनिकल नाम बताने चाहिए जिससे कि पूरे देश के वनस्पति विज्ञानी और जड़ी-बूटी विशेषज्ञ इन पर चर्चा परिचर्चा कर सकें. रामायण कालीन संजीवनी यदि पतंजलि योगपीठ को वास्तव में मिल गई है तो यह राष्ट्र के लिए गौरव की बात है. ये औषधियां राष्ट्र की धरोहर हैं कोई संस्था या व्यक्ति उन पर अपना पेटेंट नहीं करवा सकता,केवल उनकी खोज करने का श्रेय ही ले सकता है.
नेता जी
संजीवनी बूटी’ के मुद्दे पर हमारे देश की चुनी हुई उत्तराखंड सरकार से पूछा जाने वाला यह यह प्रश्न भी महत्त्वपूर्ण है कि यदि पतंजलि योगपीठ को सन 2008 में ‘संजीवनी बूटी’ मिल ही गई तो सन 2016 में उत्तराखंड के मुख्यमंत्री को चमोली में ‘संजीवनी बूटी’ की दुबारा खोज करने के लिए सरकारी खजाने से 25 करोड़ का फंड आवंटित करने की जरूरत क्यों पड़ी?
नेता जी
पर संजीवनी बूटी’ के मुद्दे पर हमारे देश की चुनी हुई उत्तराखंड सरकार से पूछा जाने वाला यह यह प्रश्न भी महत्त्वपूर्ण है कि यदि पतंजलि योगपीठ को सन 2008 में ‘संजीवनी बूटी’ मिल ही गई तो सन 2016 में उत्तराखंड के मुख्यमंत्री को चमोली में ‘संजीवनी बूटी’ की दुबारा खोज करने के लिए सरकारी खजाने से 25 करोड़ का फंड आवंटित करने की जरूरत क्यों पड़ी? सरकार को यह भी बताना चाहिए कि उसे संजीवनी बूटी मिली या नहीं? ऐसा ही सवाल त्रिवेंद्र सिंह की सरकार से भी पूछा जाना चाहिए कि इस साल रामायणकालीन ‘संजीवनी’ के नाम पर सरकार को ठीक उसी समय ‘द्रोणागिरी ट्रैक 2017’ के नए अभियान को शुरु करने की आवश्यकता क्यों पड़ी खासकर जब समूचा उत्तराखंड कहीं पानी को लेकर तो कहीं बादल फटने की प्राकृतिक आपदाओं से संत्रस्त था. उत्तराखंड के इन दोनों मुख्यमंत्रियों को पतंजलि योगपीठ से संजीवनी बूटी की वास्तविकता के बारे में संज्ञान लेने के बाद ही चमोली जिले के द्रोणगिरि गांव में अपनी नई योजनाएं बनानी चाहिए थी ताकि संजीवनी बूटी का सच समूचे राष्ट्र के समक्ष आ सकता. जनता के 25 करोड़ रूपयों की फिजूलखर्ची करने के बजाय उस पैसे से खराब अस्पतालों की दशा सुधारनी चाहिए थी.
नेता जी
त्रिवेंद्र सिंह रावत की सरकार ने भी अपने पूर्ववर्ती मुख्यमंत्री हरीश रावत के पदचिन्हों पर चलते हुए ‘संजीवनी बूटी’ के नाम पर ‘द्रोणागिरी ट्रैक 2017’ का जो नया अभियान चलाया है,प्राकृतिक आपदाओं और पलायन पीड़ा से दुखी उत्तराखंड की जनता सरकार के इस फैसले से खुश नहीं है और उनसे आज तरह तरह के सवाल पूछ रही है. कहा जा रहा है कि इस अभियान के माध्यम से क्षेत्र की मूल समस्याओं से जनता को भटकाया जा रहा है. लोग सरकार से फरियाद कर रहे हैं की आज रामायण का युग नहीं है, हमारे गांवों को आज संजीवनी बूटी नहीं बल्कि अस्पतालों को डॉक्टर चाहिए,उन्हें जेनेरिक दवाएं चाहिए.
नेता जी
पर विडंबना यह है कि उत्तराखंड के पुरातन इतिहास और संस्कृति के उन्नयन और संवर्धन की दिशा में उत्तराखंड राज्य बन जाने के 15-16 वर्षों के बाद भी हमारी राज्य सरकारों ने न तो ‘केदारखण्ड’ के आधार पर गढ़वाल हिमालय और न ही ‘मानसखण्ड’ के आधार पर कुमाऊं हिमालय के पौराणिक इतिहास और भूगोल का विधिवत इतिहास लेखन की कोई योजना बनाई और न ही इस क्षेत्र के पुरातात्त्विक ऐतिहासिक अवशेषों के आधार पर वैदिक सभ्यता के अन्वेषण की दिशा में ही कोई राज्य स्तर पर प्रयास किया.
नेता जी
हालांकि व्यक्तिगत स्तर पर पद्मश्री यशोधर मठपाल जी ने उत्तराखंड के पुरातात्त्विक इतिहास अन्वेषण की दिशा में उल्लेखनीय शोधकार्य किया है. हिमालय अन्वेषण से जुड़ी परम विदुषी हेमा उनियाल जी द्वारा भी केदारखण्ड’ और मानसखण्ड’ पर किए गए शोधकार्य उत्तराखंड की पौराणिक धर्म और संस्कृति के क्षेत्र में किए गए महत्त्वपूर्ण कार्य हैं. मैंने स्वयं सन् 2006 में प्रकाशित अपनी पुस्तक “अष्टाचक्रा अयोध्या: इतिहास और परम्परा” में उत्तराखंड हिमालय को आर्यों के आदिनिवास और यहां रामसंस्कृति से जुड़े पौराणिक एवं पुरातात्त्विक साक्ष्यों के बारे में गवेषणात्मक दृष्टि से प्रकाश डाला है.
नेता जी
मैंने पन्द्रह-बीस वर्षों तक इस ‘द्रोणगिरि’ शक्तिपीठ का नियमित दर्शनार्थी बनकर तथा उसी दौरान क्षेत्र का पैदल भ्रमण करते हुए, शोधकर्ता के रूप में इस क्षेत्र के पार्श्ववर्ती नदी-पर्वतों और ऐतिहासिक स्थलों का स्कन्दपुराण के ‘मानसखण्ड’ में वर्णित ‘द्रोणगिरि’ पर्वत के भौगोलिक विवरणों से एवं रामायण कालीन कथा प्रसंगों से मिलान और पहचान करते हुए सन् 2001 में ‘द्रोणगिर: इतिहास और संस्कृति’ (उत्तरायण प्रकाशन‚ दिल्ली) नामक अपनी पुस्तक में तथ्यों और प्रमाणों द्वारा यह सिद्ध किया है कि हनुमान जी जिस द्रोणगिरि पर्वत पर ‘संजीवनी बूटी’ लेने गए थे वह रामायण कालीन पर्वत गढ़वाल के चमोली जिले में स्थित ‘द्रोणगिरि पर्वत’ नहीं बल्कि कुमाऊं स्थित अल्मोड़ा जिले के द्वाराहाट स्थित ‘द्रोणगिरि’ पर्वत है.
नेता जी
सन् 2001 में ‘दिल्ली संस्कृत अकादमी’ द्वारा बिन्सर, रानीखेत में आयोजित ‘प्रथम उत्तरांचल राष्ट्रीय वेद सम्मेलन ‘ में तत्कालीन मानव संसाधन मंत्री माननीय डा.मुरली मनोहर जोशी जी द्वारा इस पुस्तक का लोकार्पण किया गया तथा 500 से भी अधिक पुस्तकों की प्रतियां वहां विद्वानों को निशुल्क भेंट कर दी गई थी. वर्तमान में यह पुस्तक ‘आउट आफ प्रिंट’ है तथा केवल पुस्तकालयों में उपलब्ध हो सकती है. इस पुस्तक के प्रथम अध्याय में ‘द्रोणाद्रिमाहात्म्यम्’ शीर्षक से स्कन्दपुराण के ‘मानसखण्ड’ से 21 संस्कृत पद्यों का हिन्दी अनुवाद सहित ‘द्रोणगिरि पर्वत’ का जो माहात्म्य वर्णित है उसी पृष्ठभूमि में पुस्तक के दूसरे अध्याय में रामायणकालीन रामकथा के प्रसंगों तथा संजीवनी बूटी के वृत्तान्तों पर भी प्रकाश डाला गया है. कविरत्न डा.श्रीकृष्ण सेमवाल जी,सचिव, दिल्ली संस्कृत अकादमी ने ग्यारह संस्कृत पद्यों में इसकी ‘पुष्पाञ्जलि’ लिखी है और हिन्दी अकादमी के पूर्व सचिव डा.नारायण दत्त पालीवाल जी ने इसकी शुभाशंसा लिखी है.
नेता जी
दरअसल, सरकार को यदि रामायण कालीन संजीवनी की खोज करनी ही है तो सबसे पहले यह निर्णय करना चाहिए कि संजीवनी बूटी किस ‘द्रोणगिरि पर्वत’ पर ढूंढनी है गढ़वाल हिमालय में, कुमाउं हिमालय में या फिर कैलास हिमालय में? और हमारी इस खोज का आधार क्या है? केवल अंधविश्वास जनित किंवदन्तियाँ, या ठोस रामायण, महाभारत और पौराणिक परम्परा के ऐतिहासिक साक्ष्य?
नेता जी
मैं इस पोस्ट के माध्यम से संजीवनी बूटी के शोध और अनुसंधान में जुटे विद्वानों तक यह संदेश पहुंचाना चाहता हूं कि संजीवनी बूटी को खोजना है तो सबसे पहले हमें पुरातन ग्रंथों रामायण, महाभारत, पुराणों का विवेचनात्मक अध्ययन करना चाहिए. केवल टीवी चैनलों, किंवदंतियों और जनश्रुतियों के आधार पर लोगों को भ्रमित करना और उस पर किसी एक क्षेत्रवासियों के राजनैतिक तुष्टीकरण की नीयत से सरकारी धनराशि व्यय करना उचित नहीं.
नेता जी
दरअसल, सरकार को यदि रामायण कालीन संजीवनी की खोज करनी ही है तो सबसे पहले यह निर्णय करना चाहिए कि संजीवनी बूटी किस ‘द्रोणगिरि पर्वत’ पर ढूंढनी है गढ़वाल हिमालय में, कुमाउं हिमालय में या फिर कैलास हिमालय में? और हमारी इस खोज का आधार क्या है? केवल अंधविश्वास जनित किंवदन्तियाँ, या ठोस रामायण, महाभारत और पौराणिक परम्परा के ऐतिहासिक साक्ष्य? आजकल तो श्रीलंका की सरकार द्वारा पर्यटन को बढावा देने के प्रयोजन से वहां रुमाशुला, डोलुकंडा आदि स्थानों में भी ‘संजीवनी बूटी’ को खोजने का अभियान चलाया जा रहा है. यदि वहां से भी ‘संजीवनी बूटी’ मिल जाती है तो भी हमारे लिए शुभकारी ही होगा.
नेता जी
(लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय के रामजस कॉलेज से एसोसिएट प्रोफेसर के पद से सेवानिवृत्त हैं. एवं विभिन्न पुरस्कार व सम्मानों से सम्मानित हैं. जिनमें 1994 में ‘संस्कृत शिक्षक पुरस्कार’, 1986 में ‘विद्या रत्न सम्मान’ और 1989 में उपराष्ट्रपति डा. शंकर दयाल शर्मा द्वारा ‘आचार्यरत्न देशभूषण सम्मान’ से अलंकृत. साथ ही विभिन्न सामाजिक संगठनों से जुड़े हुए हैं और देश के तमाम पत्र—पत्रिकाओं में दर्जनों लेख प्रकाशित।)