हिमालयी सरोकारों की तरफ बढ़ते क़दमों के निशान बिखेरती पत्रिका!

     

मनोज इष्टवाल

अभी कल ही की तो बात है जब कैनाल रोड स्थित एक कैफ़े में हिमांतर पत्रिका के तीसरे एडिशन का लोकार्पण हुआ. हिमांतर की टीम चूंकि इसे पर्यटन या फिर यूँ कहें यात्रा because विशेषांक के रूप में 86 पृष्ठों का एक दस्तावेज जब सामने लाया तो मन मचलता हुआ उसके मुख पृष्ठ पर गया, जहाँ खड़ी पहाड़ी चट्टान पर एक शख्स आसमान की ओर बाहें फैलाए खड़ा मानों बादलों में छुपी दूसरी चोटी कोप ललकार रहा हो कि देख इस फतह के बाद अगली फतह तुझ पर निश्चित है. सच कहूँ तो यात्राएं होती ही ऐसी हैं एक के बाद एक…. शिवालिक श्रेणियों से मध्य हिमालय और मध्य हिमालय से लेकर उतुंग हिमालय तक.

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लगभग 30 लोगों के एक समूह का ऐसा विकल्प जो प्रश्न खड़ा करे कि क्या “हिमांतर” के साहस के आगे भी कुछ दुस्साहसी खड़े हैं? होंठ मुस्कराकर गोल हुए और सीटी बजाने लगे because क्योंकि तब तक “उत्तरा” और “पहाड़” ने आकर अपनी जुबान खोल दी. लेकिन ये सुखद था कि मात्र नौ माह के अपने सफर में यह पत्रिका उन अक्सों के साथ प्रतिबिम्ब के रूप में खड़ी होने का साहस कर रही है जिन्हें हम अर्जुन की “उत्तरा” समझते हैं या फिर भीम का पहाड़. नौ माह तो बच्चा गर्भ में कुलबुलाकर जन्म ही लेता है.

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हिमांतर ने सिर्फ अपना लोकार्पण ही नही करवाया बल्कि लगभग तीन घंटे की अपने ऊपर मैराथन चर्चा करवाकर अपने वजूद को साबित करने की हर सम्भव कोशिश की व उस पर because वह खरी भी उतरी. यह सुनना सुखद था कि हिमांतर की टीम पूरी पत्रिका का एक सालाना संयुक्तांक निकाले, ठीक वैसे ही जैसे डॉ. शेखर पाठक अपने पहाड़ का अंक निकालकर उसे पहाड़ की तरह खड़ा करके चुनौती देते हैं कि अब बता तेरी रजा क्या है.

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हिमांतर के इस यात्रा बिशेषांक में कुल 15 यात्रावृत्त सम्मिलित हैं. डॉ अरुण कुकसाल से शुरू होकर ललित फुलारा पर थम जाने वाली इन यात्राओं में कई रोमांचक पहलु व दर्शनीय स्थानों का जिक्र आपको साथ साथ हिमालयी वादियों, घाटियों, हवाओं और फिजाओं के साथ साथ प्रकृति के विभिन्न रूप विन्हासों के साथ-साथ ग्रामीण because जन मानस उसकी लोक संस्कृति के मूल्य व लोक के कथा सागर तक डुबकियां लगाने को मजबूर कर देता है. कभी आप ठेठ लोक समाज के मध्य ढोल की थाप सुनने तो कभी आप काल-कल्वित घाटियों व पहाड़ों को नापते क़दमों के बीच दिल दहला देने वाले इत्तेफाकों से रूबरू होंगे तो कभी स्वर्णिम पहाड़ों के बीच चांदी की चमक में हरी साड़ी में लिपटे बुग्यालों का माधुर्य आपको समोहित करता आपकी दिनचर्या व अनुभवों में ताजगी भर देगा.

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सच कहूँ तो मुझ जैसा घुमंतू तो इन यात्राओं के साथ उस हर फूटस्टेप्स के साथ आगे बढ़ रहा था जो मैंने ज्यादात्तर यात्राओं में मापे हैं. कई बार लगता कि यह व्यक्ति उस धार, because उस बुग्याल व उस भेडाल को कैसे भूल गया. अरे कैसे वह बादलों के उस सम्मोहन से जुदा हो गया जहाँ ओंस की बूँदें बुलबुले की भांति आपके कपड़ों का श्रृंगार करती आपके माथे चेहरे का मेकअप करती मानों कह रही हो… अभी थके तो नहीं ना.

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डॉ. अरुण कुकसाल को पढने से पहले आपने अगर उनके लेख की लम्बाई देख ली तो मैं गारंटी देता हूँ कि आप फिर पढ़ लेंगे फुर्सत में कहकर आगे बढ़ जायेंगे लेकिन वह लोक जो because आपकी हथेली पर गुदगुदी लगाकर मानो कह रहा हो कि अएक बार आखरों में घुसकर तो देख मैं तुझे इस विस्मय से बाहर नहीं निकलने दूंगा उसे आप मिस कर दोगे. न आप झबरू कुत्ता देख पायेंगे, न एक छोटा सा नौनिहाल, न छौना, न घास काटती ईजा और न अरु मामा व भूपेश का संवाद ही सुन समझ पायेंगे.

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“सुन्दरढुंगा ग्लेशियर यात्रा का रहस्य व रोमांच” जानने के लिए आपको डॉ अरुण कुकसाल का पांच पृष्ठों का यह लेख तो पढ़ना ही पढेगा. भूपेश व अरु मामा के साथ स्टोरी कब because भोजपत्र-रिंगाल के जंगलों से गुजरती कठिया भेड़ के कठुलिया बुग्याल, बैलुनी टॉप, नंदा खाट, मैक्तोली पीक, देवकुंड होती हुई सुंदरगाड पहुँच जाती है पता नहीं चलता. सच कहूँ अगर आप ट्रैकर्स हैं तो आपकी नजर पक्का आपके रुखसेक व लाठी को ढूँढने लगेगी कि कब मैं भी जाकर पहुंचू.

 

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तमसा व यमुना के बीच का क्षेत्र अगर आपने नहीं घूमा तो क्या घूमा. जौनसार बावर- जौनपुर-रवाई व पर्वत से बढती यात्राएं या तो जाकर या तो केदारकांठा होकर सरू ताल रूकती हैं या फिर रुपिन-सुपिन की गोद में बसे हर की दून, देवक्यारा, भराडसर, सलारी-मलारी के दोणी-भित्तरी या फिर हिमाचल से सटे चाईशिल…. because लेकिन हम यात्राओं में जो सबसे अहम चीजें खो देते हैं वह है इस क्षेत्र का लोक समाज, लोक संस्कृति व उसके ताने बाने. दिनेश रावत की यात्रा आपको “पहाड़ अनदेखे-अनजाने गाँवों की यात्रा” कराते हुए साठी-पान्शाही (कौरव-पांडव) के त्रेतायुगीन दर्शन तो करवाएगी ही साथ ही साथ ठेठ ग्रामीण बोलचाल के उन शब्दों व शब्द सम्पदा से गेंदुडा (गेंदुआ) भी खिलवाएगी जो कंठप्रिय व कर्णप्रिय होंगे.

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कभी ढोल के बोलों में गाथाएँ तो कभी आँगन में क़दमों की आहटों के साथ बाजूबंद व कहीं दूर आपको लामण व छोड़े गाते नारी के हृदय को लगने वाले सुर सुनाई देंगे. सचमुच because यात्राएं यही तो होती हैं जो याद बनकर एक युग से दूसरे युग तक विचरण करती हैं. कुमाऊं को संक्षिप्त जानने की इच्छा हो तो हवाहवाई यात्री बन आप डॉ. विजया सती के साथ उनके लेख अर्थात यात्रा वृत्त “कुमाऊं के प्रवेश द्वार से अंतिम छोर तक” जरुर जाएँ या पढ़ें.

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सच कहूँ तो मंजू काला के यात्रावृत्त ने मुझे केदारकांठा का वह भयावक सफर याद दिला दिया जब “मौत ने मुझे जिन्दगी बख्शी” . उनके यात्रा वृत्त में एक शब्द “लार्ड ऑफ़ द रिंग” because ने मेरा सिर पूरी तरह रिंगा (घुमा)दिया. मैं विस्मित था कि ये इस पूरे सफर में कहाँ पर होगा. मजबूरन मुझे उनके लिखे आठ पृष्ठों के इस लेख को एक सांस में पढ़ना पढ़ा. मुंह से सांस के साथ… उफ्फ निकला. संतोष हुआ कि मैंने किसी “लार्ड ऑफ़ द रिंग” स्थान को मिस नहीं किया. मुझे दिल ही दिल उनके लिखे लेख व यात्रावृत्त में ग्रामीण परिवेश का घालमेल व सामंजस्य की चर्चा की तारिफ करनी पड़ी. ढोल से लेकर बोल तक के सारे शब्द याद रखते हुए मैं पलटकर उनके टाइटल “केदारकांठा रूप कथा देवजानी तु लार्ड ऑफ़ द रिंग” पर आ अटका.

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सुन साहिबा सुन प्यार की धुन….. इसी पहाड़ के प्यार ने तो अपना बेशुमार लुटा डाला. चाहे वह राम तेरी गंगा मैली में अभिनेत्री मंदाकिनी का किरदार रहा हो या असल जिन्दगी में because पहाड़ी विल्सन का… वह फेड्रिक विल्सन जो एक फौजी भगोड़ा था व इस्लामाबाद से भटकता हुआ गढवाल राजा के हर्षिल आकर पहाड़ी विल्सन राजा कहलाया व जिसने अपने नाम से सिक्के तक चलाये. डॉ मुन्ना कुमार पांडे की यात्रा “गढ़वाल का नीलम: हर्षिल” हमें इस सबको समझाती हुआ हुई आगे बढती है.

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“कीड़े की खोजयात्रा” में निकले डॉ लोकेश डसीला के इस यात्रा वृत्तांत में आपको बिल्कुल भी नहीं लगेगा कि सिर्फ कीड़ा जड़ी का बादशाह चीन ही है और भारत उसका मूकदर्शक. कीड़े के साथ जितनी एकाग्रता इनकी यात्रा में है वह अतुलनीय है.

हिमांतर के मुख पृष्ठ का साक्षी because बूढ़ापेस्ट हंगरी का एक यात्री पीटर शागि “हंगरी से उत्तराखंड की बिहंगम” यात्रा पर निकलते हैं व इस दौरान कई सभ्यताओं का मिश्रण कर खट्टे मीठे अनुभवों को बयाँ कर नीता अम्बानी के हैलीकॉप्टर से सिर टकराते अपनी कहानी को ट्विस्ट देते दिखाई देते हैं. हरियाणा के विक्की निम्बल “बाइक से बदरीनाथ: भय मिश्रित रोमांच का सफर” करते आगे बढ़ते हैं तो देश की पहली सोलो फिमेल ट्रेवलर डॉ. कायनात काजी हरिद्वार व ऋषिकेश के आपसी सम्बन्धों की पोल खोलती हुई लिखती हैं- “हरिद्वार की यात्रा बिना ऋषिकेश पूरी नहीं होती”

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होनी और अनहोनी के बीच जूझती लखनऊ के अधिवक्ता की लखनऊ से केदारनाथ की यात्रा का बरनन करते हुए आगे बढ़ते हैं. वहीँ नीलम पांडे “नील” ऋषिकेश की शिवालिक पहाड़ियों को पार करती मध्य हिमालय की और बढती आकर तोताघाटी में उलझ पड़ती हैं. बेचारे ठेकेदार तोता सिंह रांगड़ को भला कौन भूल सकता है जिसने because अपनी जिन्दगी की पूरी कमाई यहाँ सड़क निकालने में लगा दी हो लेकिन उस लोक जाने के बाद भी अपना नाम अजर अमर कर गए. अब प्रताप नगर के स्व. तोता सिंह रांगड़ की इस तोताघाटी में “नील” ने क्या अनुभव् किया उसके लिए हमें उनका यात्रा वृत्त “तोताघाटी का अजनबी मुसाफिर” अवश्य पढ़ना चाहिए.

छत्तीस गढ़ के साकेत बिहारी जब because लाखामंडल पहुँचते हैं तब उन्हें सत्य और तथ्य के बीच का द्वंद समझ आता है व वे गायत्री चालीसा पढ़ते हुए निकल पढ़े इस यात्रा पर… आपको भी इसका रोमांच लेना है तो हिमांतर का यह एडिशन खरीदिये व पढ़िए  “लाखामंडल: सत्य और तथ्य की द्वंद यात्रा”.

गढवाल क्षेत्र की यात्रा के बाद देहरादून की सुनीता भट्ट पैन्यूली आपको अचानक अपने सफरनामे के साथ कुमाऊं मंडल के एक छोर से पहाड़ी पर चढती हुई नैनीताल से because भवाली-भीमताल-देवीधुरा-बिहंग (बाणासुर किला)-लोहाघाट होकर चंदवंशी राजाओं की पहली राजधानी चम्पावत ले जाती हैं व वहां से फिर नीचे तराई में उतरकर टनकपुर जा पहुँचती हैं. उनकी यात्रा में उनके पतिदेव साथ साथ चले तो स्वाभाविक है कि यात्रा का आनन्द ही अलग रह होगा. “सफरनामा: लोहाघाट से नैनीताल तक.” पढने के लिए हिमांतर के इस अंक को आपको देखना ही होगा.

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पत्रिका के अंतिम पड़ाव की अंतिम यात्रा के रूप में अमर उजाला नोएडा के चीफ सब एडिटर “काकडीघाट जहाँ विवेकानंद को मिला आध्यात्मिक ज्ञान” के दर्शन कराते हैं. कुल because मिलाकर पूरी पत्रिका के 86 पृष्ठ आपके लिए एक ऐसा दस्तावेज साबित होते नजर आते हैं जिसे आप सम्भालकर रखने को जरुर लालायित होंगे ऐसा मेरा मानना है.

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बहरहाल “हिमांतर” because पत्रिका के “यात्रा विशेषांक” अंक का लोकार्पण बेहद शानदार रहा क्योंकि इसके लोकार्पण के साथ हिमान्तर टीम ने उन बिंदुओं पर भी परिचर्चा रखी थी जिससे यह उजागर हो सके कि आगे हिमान्तर की टीम को किस बिषय वस्तु पर किस तरह कार्य करना चाहिए जिससे यह पत्रिका ‘फेस इन द क्राउड’ बने सके।

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इस पत्रिका के लोकार्पण में  डॉ कमला पंत (शिक्षाविद व पूर्व निदेशिका साइंस व प्रद्योगिकी विभाग),डा० नंद किशोर हटवाल (साहित्यविद), वरिष्ठ साहित्यकार व डा. योगम्बर बर्त्वाल, because आकाश सारस्वत जिला शिक्षा अधिकारी (समग्र शिक्षा), वरिष्ठ साहित्यकार व रिसर्च एसोसिएट दून लाइब्रेरी डा. चंद्र शेखर तिवारी, हिमांतर के संपादक डा. प्रकाश उप्रेती, हिमांतर की सहसंपादक श्रीमती मंजू काला, पांचजन्‍य के आर्ट और डिजाइन डायरेक्टर शशी मोहन रवांल्टा,  साहित्यकार सुनीता भट्ट पैन्यूली इत्यादि द्वारा हिमांतर के इस तीसरे एडिशन का लोकार्पण किया गया.

(लेखक वरिष्‍ठ पत्रकार एवं himalayandiscover.com के सीईओ हैं)

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