जल मात्र प्राकृतिक संसाधन नहीं, हिमालय प्रकृति का दिव्य वरदान है

भारत की जल संस्कृति-3

  • डॉ० मोहन चन्द तिवारी

“शं ते आपो हेमवतीः शत्रु ते सन्तुतव्याः.
शंते सनिष्यदा आपः शत्रु ते सन्तुवर्ष्या..
               – अथर्ववेद 19.2.1

अर्थात् हिमालय से उत्पन्न होकर तीव्र गति से बहने वाली जलधाराएं और वर्षा द्वारा नदियों में प्रवाहित होने वाले जल प्रवाह,ये सभी जलस्रोत शुभकारक एवं कल्याणकारी हों.

अथर्वर्वेद के ऋषि की जल विषयक यह प्रार्थना बताती है कि अनादि काल से ही उत्तराखंड सहित समूचे भारत का व्यवस्थित जलप्रबंधन हिमालय पर्वत से संचालित होता आया है,जिसमें ऊंची पर्वत श्रेणियों से उत्पन्न होने वाली नदियों,हिमनदों,गहरी घाटियों और भूमिगत विशाल जलचट्टानों की अहम भूमिका रहती है.

जलस्रोतों का जन्मदाता होने के कारण भी वैदिक जल चिंतकों की हिमालय के प्रति अगाध श्रद्धा रही है.इसीलिए उन्होंने  आधुनिक जलवैज्ञानिकों की तरह जल को महज एक प्राकृतिक संसाधन नहीं माना, बल्कि हिमालय प्रकृति के दिव्य वरदान के रूप में इसकी वंदना की है.बस यही एक बहुत बड़ा अंतर है आधुनिक जलवैज्ञानिकों की सोच में और भारत के प्राचीन जलवैज्ञानिकों की मान्यताओं में.

वैदिक साहित्य में जल देवता सम्बन्धी मंत्र इसके प्रमाण हैं कि प्राचीन जलचिन्तकों ने जल को एक दिव्य आस्थाभाव से देखा. ऋग्वेद के मंत्रों में यह प्रार्थना की गई है कि ये मातृतुल्य नदियां लोगों को मधु और घृत के समान पुष्टिवर्धक जल प्रदान करें-

“सरस्वती सरयुः सिन्धुरुर्मिभिर्महो
महीरवसाना यन्तु वक्षणीः.
देवीरापो मातरः सूदमित्न्वो
घृत्वत्पयो मधुमन्नो अर्चत..” – ऋ.,10.64.9

ऋग्वेद के ‘आपो देवता’ सूक्त में जल को माता की संज्ञा दी गई है.क्योंकि जल से ही सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड की सृष्टि हुई है तथा इसी जल के प्राकृतिक संरक्षण,संवर्धन और नियंत्रण द्वारा इस पृथ्वी का पर्यावरण संतुलित रहता है-

“ऋषे जनित्रीर्भुवनस्य पत्नीरपो वन्दस्व
सवृधः सयोनीः.” – ऋ.,10.30.9

जल और जीवन एक-दूसरे के पर्याय हैं.जल के बिना जीवन की कल्पना नहीं की जा सकती है. इसलिए भारतीय परंपरा में जल के अविरल, निर्मल और शुद्ध स्वरूप को विशेष महत्त्व दिया गया है.

ऋग्वेद में कहा गया है कि जल संसार के सभी प्राणियों का वैसे ही पालन-पोषण करता है जैसे माता अपने बच्चों का दुग्धपान द्वारा पालन-पोषण करती है-

“यो वः शिवतमो रसस्तस्य भाजयतेह नः.
उशतीरिव मातरः..” – ऋ.,10.9.2

वस्तुतः जल जीवन का प्राणतत्त्व है. इसलिए,वेदों में इसे अमृत कहा गया है-

“अप्सु अंत: अमृतं,अप्सु भेषजम्”
                -ऋग्वेद,1.23.248

अर्थात् जल में अमृत है,इसमें स्वास्थ्य के लिए लाभकारी औषधि गुण विद्यमान हैं.जल और जीवन एक-दूसरे के पर्याय हैं.जल के बिना जीवन की कल्पना नहीं की जा सकती है. इसलिए भारतीय परंपरा में जल के अविरल, निर्मल और शुद्ध स्वरूप को विशेष महत्त्व दिया गया है.अथर्ववेद के ‘पृथ्वीसूक्त’ में जल की शुद्धता को स्वस्थ जीवन के लिए नितान्त आवश्यक माना गया है और मातृ स्वरूपा भूमि से स्वच्छ जल प्रवाहित करने की प्रार्थना की गई है-

“शुद्धा न आपस्तन्वे क्षरन्तु.”
          -अथर्ववेद,12.1.30

पिछले आठ दस हजार वर्षों से भारत पर्यावरण संरक्षण‚ जल संग्रहण तथा जल प्रबन्धन से सम्बन्धित वैज्ञानिक तकनीकों के द्वारा अपनी जलसंकट की समस्याओं को सुलझाता आया है. पुरातत्त्व और अभिलेखों के ऐतिहासिक साक्ष्यों से भी यह ज्ञात होता है कि जल संरक्षण और जल भंडारण जैसी ‘वाटर हारवेस्टिंग’ प्रणाली वैदिक काल व सिंधुघाटी की सभ्यता के काल से लेकर आधुनिक काल तक ग्राम-नगर की पेयजल व्यवस्था और कृषि व्यवस्था की मूल आधार शिला रही है.

वैदिक चिंतकों ने जल को राष्ट्र की खुशहाली के लिए प्रकृति की ओर से दिया गया एक दिव्य वरदान माना है क्योंकि पृथ्वी में जल- सन्तुलन के कारण ही सरसता,उर्वरता और हरियाली बनी रहती है, वातावरण में स्वाभाविक उत्साह दिखाई पड़ता है और समस्त प्राणियों का जीवन आनन्दमय बना रहता है-

“वर्षेण भूमिः पृथिवी वृतावृता सानो दधातु भद्रया प्रिये धामनि धामनि..”
                  -अथर्ववेद,12.1.52

मेघों से प्राप्त होने वाले वर्षा जल के साथ सभी ऋतुओं की अनुकूलता होने की मान्यता भी वैदिक चिंतकों का एक प्रकृतिनिष्ठ  पर्यावरणवादी विचार है. इसलिए पुषादेव अर्थात् सूर्य देव से प्रार्थना की गई है कि वे यज्ञ के हेतुभूत सोमों (जलों) के साथ वसंत आदि छह ऋतुओं को बारी बारी से वैसे ही प्राप्त कराते रहें जैसे अनाज के लिए किसान बार बार खेत जोतते हैं-

“उतो स मह्यमिन्दुभिः षड़युक्तां अनु सेषिधत्. गोभिर्यवं न चकृर्षत्..”
                      -ऋग्वेद,1.23.15

यजुर्वेद में ‘राष्ट्र’ की परिभाषा से सम्बंधित  “आ ब्रह्मन्‌ ब्राह्मणो बह्मवर्चसी” मंत्र बहुत महत्त्वपूर्ण है.इसमें राष्ट्र के विधायक समाज के विभिन्न वर्गों के साथ साथ मेघों द्वारा समय समय पर वर्षाजल की प्राप्ति को भी खुशहाल राष्ट्र के लिए आवश्यक माना गया है. क्योंकि समय पर मेघों द्वारा वर्षा होने से ही राष्ट्र में फलों और अनाजों की समृद्धि हो पाती है-

“निकामे निकामे नः पर्जन्यो वर्षतु
फलवत्यो न ओषधयः पच्यन्ताम्‌
योगक्षेमो नः कल्पताम्.”
      -शुक्ल यजुर्वेद,22.22

दरअसल,भारत मूलतः एक कृषि प्रधान देश होने के कारण जलविज्ञान का पुरस्कर्ता देश भी रहा है. पिछले आठ दस हजार वर्षों से भारत पर्यावरण संरक्षण‚ जल संग्रहण तथा जल प्रबन्धन से सम्बन्धित वैज्ञानिक तकनीकों के द्वारा अपनी जलसंकट की समस्याओं को सुलझाता आया है. पुरातत्त्व और अभिलेखों के ऐतिहासिक साक्ष्यों से भी यह ज्ञात होता है कि जल संरक्षण और जल भंडारण जैसी ‘वाटर हारवेस्टिंग’ प्रणाली वैदिक काल व सिंधुघाटी की सभ्यता के काल से लेकर आधुनिक काल तक ग्राम-नगर की पेयजल व्यवस्था और कृषि व्यवस्था की मूल आधार शिला रही है. इन्हीं प्राकृतिक जलस्रोतों और परंपरागत ‘वाटर हारवेस्टिंग’ तकनीकों से इस देश का प्रत्येक गांव और शहर जल की दृष्टि से सदा आत्म निर्भर बना रहा है. किन्तु औद्योगिक विकास और महानगरों की अंधाधुंध विकास सम्बन्धी योजनाओं का जब से दौर चला और जल प्रबंधन का सरकारीकरण और केंद्रीकरण हुआ जलसंकट की समस्याएं विकट होती गईं.

‘ग्लोबल वार्मिंग’ या जलवायु परिवर्तन के कारण वर्त्तमान काल में जो जलसंकट की स्थिति उत्पन्न हुई है,उसके लिए दैवी प्रकोप को दोष देना भी उचित नहीं अपितु सरकारों की अंध विकासवादी योजनाएं,वनों की अंधाधुंध कटाई और प्राकृतिक जल संसाधनों का निर्ममता पूर्ण दोहन ही इस जलसंकट के लिए मुख्य रूप से जिम्मेदार है.

जल को मात्र एक प्राकृतिक संसाधन मान कर उसके संरक्षण की चिंता करना और देश की दस हजार वर्ष से भी प्राचीन अनुभव सिद्ध जलविज्ञान की परम्पराओं के प्रति अनभिज्ञ और उदासीन रहने के कारण भी वर्त्तमान जलसंकट की समस्याएं बहुत गंभीर हुई हैं.

भारत जैसे कृषिप्रधान देश में ग्रामीणजन वैदिक जलविज्ञान की मान्यताओं के अनुरूप आज भी जल को विष्णुस्वरूप और पवित्र मानते हैं तथा नदियों और जलस्रोतों की मातृभाव से आराधना करते हैं. मगर उसी जल को शहरों और औद्योगिक क्षेत्रों में महज एक संसाधन मान लेने के कारण जल का बेरहमी से अपव्यय,जल प्रदूषण और बहुत अधिक मात्रा में जल के व्यापारीकरण की गतिविधियों के कारण देश में जलसंकट की समस्याएं बहुत गम्भीर हुई हैं. ‘ग्लोबल वार्मिंग’ या जलवायु परिवर्तन के कारण वर्त्तमान काल में जो जलसंकट की स्थिति उत्पन्न हुई है,उसके लिए दैवी प्रकोप को दोष देना भी उचित नहीं अपितु सरकारों की अंध विकासवादी योजनाएं,वनों की अंधाधुंध कटाई और प्राकृतिक जल संसाधनों का निर्ममता पूर्ण दोहन ही इस जलसंकट के लिए मुख्य रूप से जिम्मेदार है.

वस्तुतः आधुनिक जलविज्ञान और प्रौद्योगिकी के पास ‘ग्लोबल वार्मिंग’ के कारण उत्पन्न जल संकट का आज कोई समाधान नहीं है. केवल वैदिक काल से निरंतर चली आ रही परम्परागत प्राकृतिक जल संसाधनों के संरक्षण और संवर्धन द्वारा ही आज जल संकट का निवारण किया जा सकता है.

वेदमंत्रों में जल की अपरिमित शक्ति का विज्ञान वर्णित है,जिससे आधुनिक जलवैज्ञानिकों को भी आज सीख लेने की आवश्यकता है.वैदिक ऋषियों द्वारा दिए गए विज्ञाननिष्ठ चिंतन के द्वारा हम वर्तमान में भी जलप्रबंधन को उचित ढंग से नियोजित कर सकते हैं और संपूर्ण हिमालयी क्षेत्र की धरती में जो जलसंकट की स्थिति है,उसी हिमालय के जलस्रोतों से उसका कुशलता के साथ प्रबंधन और नियोजन भी कर सकते हैं.

हमारी तो हिमालय की प्रकृति परमेश्वरी से यही प्रार्थना है कि हमारी सदानीरा नदियां अविरल प्रवाह के साथ सदा प्रवाहमान रहें. समूचे भारत के जलस्रोत हिमालय में जल की परिपूर्णता बनी रहे,जिससे कि यह हिमालय संपूर्ण विश्व को जल प्रदान करता रहे और हमारा राष्ट्र पुरातन वैदिक राष्ट्र की भांति विश्व में श्रेष्ठ जलप्रबंधक का गौरव पुनः प्राप्त करे.

(लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय के रामजस कॉलेज से एसोसिएट प्रोफेसर के पद से सेवानिवृत्त हैं एवं विभिन्न पत्र—पत्रिकाओं में जल संकट को लेकर कई लेख प्रकाशित)

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