- सुनीता भट्ट पैन्यूली
काले घनीभूत बादल उभर आये थे
आसमान में, सुकून भरी अपने हिस्से की बारिश में भीगने का स्वप्न संजोने लगीं थी कुछ बेदार आंखें…, इन्हीं स्वप्नों को हकीकत में बदलने का ख़्याल सबसे जुदा कुनबों से उन बेख़ौफ़ चुनिंदा दिलों में कुंडली मारकर बैठ गया…घने हो आये तिरते बादलों के रलने-मिलने में.कुंडली
दबे-पांव, चुपके-चुपके
पहाडों में आन्दोलन उमगने लगा था. अपने अधिकार, अपने पुर, अपनी संस्कृति, अपनी वैखरी, अपना खान-पान एक ही रंग में पुते हुए सब के शरीर और आत्माओं का स्वप्न के ऊंचे-ऊंचे महलों से उतरकर जमीन पर खुरदुरी रूपरेखा तैयार करना गलत भी न था.कुंडली
बारहवीं कक्षा में ही हल्के-फुलके कानों को सुकून देते शब्दों के बुलबुले अनायास ही रंगीन शरारे छोड़ने लगे थे आंखों में… आधुनिक होगा अपना उतराखंड नई ट्रेन, मोटर कार, मल्टीप्लेक्स बिल्डिंग, फ्लाईओवर,
माल, आधुनिक तकनीकी समृद्ध हास्पिटल, स्कूल युनिवर्सिटीज ईज़ाद होंगी अपने उत्तराखंड में जो दूर के ढोल सुहावने जैसा था हम किशोरवय के लिये और आज जबकि हकीकी ज़मीन तैयार कर ली है इन्सानी जिस्म को जीने का सलीका सिखाती इन नवोन्मेष के साधनों ने.कुंडली
उन्हीं दिनों आन्दोलन के हो-हल्ला में
एक कृषकाय सहपाठी जो कि पड़ोस में ही रह रहा था जोश से लबालब भरा हुआ कभी अक्रामक कभी शोला उगलती उसकी आंखें उलाहना देता हुआ हमारे नैपथ्य दिमाग और निश्चेत देह को… उठो एकजुट हो जाओ…. सहभागी बनो आंदोलन में बार-बार दोहराता… और कहता जो भी तुमसे बन पड़ता है उत्तराखंड आंदोलन की धीमी सुलगती प्रथम चिंगारियों का प्राथमिक रुप बनो तुम…! और कुछ नहीं तो आंदोलनकारियों को चाय ही पीला दो हम सुबह-सुबह प्रभात फेरी के लिये आयेंगे कम से कम बीस से तीस प्याली चाय बनाकर तैयार रखना यह कहकर हमें उत्साहित करता वह… क्या सुखद कभी न भूलने वाली सुबहें थीं वह…. सभी मोहल्ले वालों ने तय किया था कि हर दिन एक-एक परिवार आंदोलनकारियों को चाय पिलाकर आंदोलन में अपनी मूक सहभागीदारी दर्ज़ करेगा…कुंडली
आज भी याद हैं वह स्वर्णिम दिन सुबह -सुबह सर्दी के आने की धीमी दस्तक देती वह दशहरे व नवरात्रि वाली सहर व गुनगुनी सबा और जोश-ख़रोश से पुर उत्तराखंड नारा-ए-तकबीर…!
कुंडली
हंसी-खुशी घर में उपलब्ध सबसे अच्छे
बोन-चाईना और स्टील के चाय के कप के सेट बक्से से निकाले जाते और कुछ पड़ोसियों से मांगकर लाये जाते…, जनवरी की कड़कड़ाती सुबह और आंदोलनकारियों के लिये अदरक की कुटी हुई महकती चाय…!कुंडली
कुछ को स्टील के कप में कुछ को बोन चाईना में कुछ को कुल्हड़नुमा कोकोला रंग के कप में…
तसल्ली होती थी किसी बड़े अभियान के चरमोत्कर्ष के
आगाज़ में छोटा सा प्राथमिक हिस्सा बनकर..! यक़ीनन उन आंदोलनकारियों को ग़र्मजोशी और एकजुटता का अहसास तो दिलाता ही होगा हमारा बरामदे में खड़े होकर टेबल के ऊपर कई सारी ट्रे में चाय से भरे कपों के साथ उन सभी पृथक उत्तराखंड राज्य की मांग करते विदग्ध हृदयों का खड़े होकर बेसब्री से इंतज़ार करना.कुंडली
यह क्रम चलता रहा..हम चाय पिलाते रहे लोग जुटते रहे… कारवां बढ़ता रहा बाद में शहर की सड़कों पर मंथर गति से रेंगती आदिम पंगतीयां सर्प सम इतनी लंबी हो गयीं कि
ओर-छोर दिखाई न पड़ता था और आंदोलन घर -घर जाकर चाय पीने से तब्दील होकर मीटिंग, धरना स्थल, शहरों के बीचों-बीच बैनर में संगठित हो एक ही जगह पर ठिठक गया… और सुबह शाम धरना स्थल पर लोगों का मजमा जुड़ने लगा उत्तराखंड आंदोलन के समर्थन में.कुंडली
इसी नारों के शोर में भीड़ में से कई आवाजों में से ख़ास एक थे संजय बिडालिया भाई साहब जिनका अक्रामक और रोष भरा व्यवहार आंदोलन की सजगता के प्रति एक ऊंची धुंए की
रेख के रूप में विशिष्ट रूप में उभर रहा था तंज कसने लगे कि लड़कियां हो तो क्या हुआ ?गांवों में स्त्रियां दावाग्नि बनी उत्तराखंड आंदोलन को गांव-गांव में सुलगा रही हैं तुम भी आओ कल से जुलूस में… ऐसे नहीं चलेगा.कुंडली
असमय वाहन दुर्घटना में वह भाई साहब
आज हमारे बीच नहीं हैं मगर उनका अक्रामक व उर्ज्वसित होकर जुलूस का नेत्रत्व कर हाथ ऊपर झटक-झटकर नारे लगाना और पीछे-पीछे हमारा चिल्लाना आज भी रोमांचित कर देता है मन-मष्तिक को… नारेबाजी के इस उपक्रम में उनकी गले की नसें मानो जिनमें सभी उत्तराखंड वासियों का रोष इकट्ठा होकर समवेत स्वर में बहने लगा हो किसी बिगड़ी हुई नदी की मानिंद….कुंडली
बारिश में भीगते हुए कीचड़ में हम और मटियामेट
सूट-सलवार और जूते, मगर अपनी स्वतंत्रता की चाह में दिमाग कोसों दूर था अपने रख-रखाव से… ख़ैर आंदोलन की शैशवावस्था में मुश्किल से एक महीना या पंद्रह दिन याद नहीं ठीक से… पढाई, इम्तिहान का बोझ भी था सिर पर और घर वालों के कहने पर हम सभी स्वतंत्र राज्य हासिल करने का जूनून अपने बस्ते में बंद कर, हम सभी लक्ष्मणपुर, विकासनगर कस्बे की पहाड़ी लड़कियां अपने -अपने घरों और स्कूल की हो गयीं.कुंडली
कालांतर में वह कृषकाय मोहन रावत नाम था उसका आज ज्ञात नहीं कहां है? बरबस मन होता है उसकी कुशलक्षेम जानने का… ने उस समय बताया कल दिल्ली जा रहे हैं आंदोलन
का बिगुल बजाकर सरकार को नींद से जगाने के लिए और फिर हमने अपने घरों में टीवी में सुना मुज़फ्फरनगर में लाठीचार्ज, बदसुलूकी, शीलभंग स्त्रियों का गन्नों के खेत में, पुलिस की बर्बरता, जिन-जिन को व्यक्तिगत जानते थे और जिनको नहीं भी जानते थे उन सभी की चिंता होने लगी… पूरे दिन की गहमागहमी और चिंता में अगले दिन मोहन रावत ने घर पर आकर अपने पुलिस द्वारा आगे न जाने देकर आधे से ही वापस लौटने आने की जानकारी दी.और फिर खटीमा..मसूरी हत्याकांड…
रक्तरंजित न्यूज पेपर लाशों, गोलियों
आग के शोलों से पटा हुआ घर के दरवाजे पर बेतरतीब पड़ा हुआ उदासी मल जाता था हमारे चेहरों पर.आज धुमिल कोहरे सी यादें हैं
स्मृतियों में…. आंदोलन में सहभागिता नहीं हुई हमारी, कुछ भी सहयोग नहीं दे पाये स्वतंत्र उत्तराखंड के निर्माण में मगर कहीं दिल के कोने में सूकून भी है कि हमारी चाय ने उन नौजवान जोशीलों की नसों के लहू का रंग और प्रगाढ़ कर दिया होगा नये उत्तराखंड राज्य के निर्माण और उसके विकास की मुहिम, क्रांति और आंदोलन की आग में कूदने हेतु….सभी उत्तराखंड आंदोलनकारियों
को शत शत नमन..!!(लेखिका साहित्यकार हैं एवं विभिन्न पत्र—पत्रिकाओं में अनेक रचनाएं प्रकाशित हो चुकी हैं.)