क्रांति और भ्रांति के बीच उलझी देश की जनता!

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भावना मासीवाल

इस वर्ष हम सभी देशवासी आज़ादी के पिचहत्तरवें वर्ष में प्रवेश कर रहे हैं. आजादी के यह वर्ष हम सभी के जीवन में बहुत सारे विरोध-प्रतिरोध को लेकर आया है. सामाजिक न्याय और व्यक्तिगत आजादी जैसे प्रश्न मुखर होकर उभरें हैं. ऐसा नहीं है कि इससे पूर्व तक यह प्रश्न मुखर नहीं थे. यह प्रश्न आजादी से पूर्व भी थे लेकिन उस समय तक देश की आजादी एक प्रमुख मुद्दा और उससे भी अधिक वह एक जज्बा बनकर देश की रंगों में दौड़ रहा था. आज स्थितियाँ और समय बदल गया है. आज आजादी मिले चौहत्तर वर्ष पूरे हो गए है.

महात्मा गाँधी

‘सारे जहाँ से अच्छा हिंदोस्ता हमारा’ का उद्बोधन भी मुहम्मद इकबाल के साथ चला गया है. ‘हम एक है’ कहने का भावबोध भी आज टुकड़ों-टुकड़ों में बटा हुआ देखा जा रहा है. कहीं व्यक्ति का अपमान हो रहा है तो कहीं देश का. हमसे पूर्व की पीढ़ी ने जिस युग को जिया वो देश की आजादी के लिए कुछ भी कर गुजरने का युग था. हम जिस युग में जी रहे हैं वह आपसी टकराहटों का युग है. यह टकराहट व्यक्ति, समाज, राष्ट्र हर जगह देखी जा रही है.

सरदार पटेल

सिफारिशों और चाटुकारिता की इस दुनियां में जब सभी काम मंत्री जी के रास्ते हो रहे हैं तो चलो किताबों से अधिक उन पर मेहनत की जाए बाकी तो मंत्री जी रास्ते बना ही देंगे. हमारे देश के युवा आज इस सोच के साथ भटक रहे हैं. क्योंकि हमने देश की कार्य करने की सामाजिक व्यवस्था को ही ऐसा बना दिया है.

जवाहरलाल नेहरू

आज हमारे पास पीछे देखने को तो बहुत कुछ है लेकिन वर्तमान और भविष्य आशंकाओं से घिरा हुआ है. क्योंकि हमने और हमारे पूर्वजों ने तमाम असहमतियों के बावजूद जिस एकता को देखा था. आज वह दूर-दूर तक नदारद है. आज व्यक्ति से लेकर समाज, समाज से लेकर राष्ट्र तक कई विचारधाराओं में विभाजित है. वैचारिक विभेद तो पहले भी जवाहरलाल नेहरू, सरदार पटेल, महात्मा गाँधी, डॉ भीमराव अम्बेडकर जैसे विचारकों के मध्य मौजूद थे. मगर तमाम वैचारिक मतभेदों के बावजूद उनमें कई निर्णयों में सहमतियाँ भी थी. वहीं यदि नब्बे के बाद की राजनीति को देखे तो वैचारिक और राजनीतिक दोनों ही स्तरों पर नफ़रत ही अधिक देखने को मिली है.

चक्कर

राष्ट्र हित व्यक्ति हित में बदल गए. व्यक्तिक और राजनीतिक हित ही सामाजिक समस्याओं को देखने का नया चश्मा बना दिए गए. आज राजनीति में विचार, व्यवहार और ईमान का कोई महत्व नहीं रहा. आज ताकत और धन का ही राजनीति में बोलबाला है. यही कारण है कि आज राजनीति सत्ता से लेकर घर के संबंधों तक से खेलती देखी जा रही है.

गलियारों में

युवा जो देश का भविष्य है वह भी राजनीति के अँधेरे गलियारों में चक्कर लगाकर अंत में थक कर दम तोड़ रहा है. विद्यालयी छात्रों से लेकर कॉलेज, विश्वविद्यालय तक के छात्रों में राजनीति के प्रति बढ़ता आकर्षण उन्हें सत्ता और ताकत की तरफ खींच रहा है. हमारे देश में हर आम आदमी जानता है कि वह शिक्षा के माध्यम से चाहे कितना ही बड़ा पद क्यों न प्राप्त कर ले? लेकिन एक अदने से मंत्री के सामने उसका अपना कोई वजूद नहीं होता है और यदि मंत्री महोदय को किसी कारण गुस्सा आ गया तो बरसों की मेहनत से मिली नौकरी को छिनने या तबादला करने में अधिक समय नहीं लगेगा. हमारे आसपास ऐसी बहुत सी घटनाएँ घटी हैं जिनमें इस तरह के दृश्य स्पष्ट देखे गए हैं.

अँधेरे

हमारे युवा भी तो इसी देश के नागरिक हैं, फिर वह कैसे इन दृश्यों से अर्थों को ग्रहण नहीं करेंगे. उसी का प्रभाव है कि आज कल छात्रों में बड़ा अधिकारी बनने से अधिक मोह मंत्री या मंत्री का चेला बनने का है. इसमें भी ‘एक पन्त दो काज’ की मानसिकता काम करती है. सिफारिशों और चाटुकारिता की इस दुनियां में जब सभी काम मंत्री जी के रास्ते हो रहे हैं तो चलो किताबों से अधिक उन पर मेहनत की जाए बाकी तो मंत्री जी रास्ते बना ही देंगे. हमारे देश के युवा आज इस सोच के साथ भटक रहे हैं. क्योंकि हमने देश की कार्य करने की सामाजिक व्यवस्था को ही ऐसा बना दिया है.

वह भी राजनीति के

हम कभी वैश्विक संबंधों में अमेरिका और रूस की ओर देखते हैं तो कभी अफगानिस्तान और तालिबान की स्थितियों को देखते हैं, कभी अपने देश के भीतर लोगों को कोविड से जूझते और मरते देखते हैं तो कभी इसी में जातिवाद, धार्मिक उन्माद, यौनिक हिंसा से जूझती हमारे देश की बेटी से लेकर बुजुर्ग महिलाओं को देखते हैं.

देश का भविष्य है

आज देश की जनता क्रांति और भ्रांति के बीच उलझी हुई आजादी के 75वें वर्ष में प्रवेश कर रही है और हम युवा इतिहास के नोस्टाल्जिया से निकलकर वर्तमान और फिर वर्तमान से भविष्य की आशंकाओं से जूझ रहे हैं. हम कभी वैश्विक संबंधों में अमेरिका और रूस की ओर देखते हैं तो कभी अफगानिस्तान और तालिबान की स्थितियों को देखते हैं, कभी अपने देश के भीतर लोगों को कोविड से जूझते और मरते देखते हैं तो कभी इसी में जातिवाद, धार्मिक उन्माद, यौनिक हिंसा से जूझती हमारे देश की बेटी से लेकर बुजुर्ग महिलाओं को देखते हैं.

युवा जो

हमारे देश के भीतर ही इतनी टूटन है जो हमें भविष्य की बहुत सारी आशंकाओं से घेर लेती है. इन सब शंकाओं और आशंकाओं के बीच हम पुनः अपने इतिहास को देखते हैं और उस जज्बें और वीर जवानों को सलाम करते हैं जिनकी वजह से आज हम सभी आज़ादी के 75वें वर्ष में प्रवेश का उल्लास मना रहे हैं.

(डॉ. भावना मासीवाल असिस्टेंट प्रोफेसर, राजकीय स्नातकोत्तर महाविद्यालय, मानिला  (अल्मोड़ा) हैं)

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