भारतीय परंपरा जल में ‘नारायण’ का वास मानती है

भारत की जल संस्कृति-4

  • डॉ. मोहन चन्द तिवारी

(प्रस्तुत लेख 12 मार्च, 2014 को ‘उत्तराखंड संस्कृत अकादमी, हरिद्वार द्वारा ‘आईआईटी’ रुडकी में आयोजित विज्ञान से जुड़े छात्रों,शिक्षकों और जलविज्ञान के  विद्वानों के समक्ष मेरे द्वारा दिए गए वक्तव्य- “प्राचीन भारत में जल विज्ञान, जल संरक्षण और जल प्रबंधन” का सारगर्भित संशोधित  रूप है.पिछले वर्ष 11-12 अगस्त 2019 को ‘नौला फाउंडेशन’ द्वारा उत्तराखंड की सांस्कृतिक नगरी द्वाराहाट और असगोली ग्राम में आयोजित द्विदिवसीय राष्ट्रीय कार्यशाला ‘मन की बात जल की बात’ के जल विषयक महत्त्वपूर्ण निष्कर्षों को भी इस लेख में समाहित किया गया है.)

जल संकट सम्बन्धी वर्त्तमान समस्याओं को लेकर पिछले वर्ष 11-12 अगस्त, 2019 में उत्तराखंड की सांस्कृतिक नगरी द्वाराहाट में ‘नौला फाउंडेशन’ की ओर से ‘मन की बात जल की बात’ शीर्षक से आयोजित एक राष्ट्रीय स्तर की कार्यशाला का उद्घाटन करते हुए अंतर्राष्ट्रीय ख्यातिप्राप्त इतिहासकार और पुरातत्वविद् पद्मश्री डा.यशोधर मठपाल ने एक महत्त्वपूर्ण बात कही कि- “भारतीय संस्कृति जल को विष्णुभाव से देखती है. आज भी हम सब मानते आए हैं कि जल में ‘नारायण ‘का वास है इसलिए आम आदमी जल को कभी गंदा नहीं करता. उत्तराखंड की संस्कृति में जब बहु पहली बार विवाह करके ससुराल आती है तब उसके द्वारा सबसे पहले नौले और धारे का पूजन कराया जाता है. इसलिए आज आम आदमी को जल के बारे में शिक्षित करने की उतनी जरूरत नहीं है. जरूरत है तो उन बड़े लोगों पर अंकुश लगाने की जो पानी को गंदा और प्रदूषित करते हैं और उसका दुरुपयोग कर रहे हैं. उन्होंने कहा कि आज जलसंकट के लिए आम आदमी कम जिम्मेदार है बल्कि बड़े बड़े होटल और फैक्टरी वाले व्यवसायी इसका अंधाधुंध दोहन कर रहे हैं. आज गंगोत्री का अमृत तुल्य जल भी बड़ी बड़ी फैक्ट्रियों के जहरीले कैमिकल्स के कारण पूरी तरह प्रदूषित हो चुका है.”

पद्मश्री डा. यशोधर मठपाल द्वाराहाट में जल विषयक कार्यशाला का उद्घाटन भाषण देते हुए.

डा.यशोधर मठपाल ने वर्त्तमान जल संकट के बारे में चेतावनी देते हुए कहा कि “उत्तराखंड से लोगों का आज भारी मात्रा में पलायन हो रहा है जिससे यहां बाहर से आने वाले उद्योगपति और विदेशी पर्यटकों से जल संकट की समस्या और भी भीषण हो सकती है क्योंकि आने वाले समय में इन बड़े बड़े  उद्योगपतियों द्वारा भारी मात्रा में भूमिगत जल का दोहन किया जाएगा, जिसके कारण प्राकृतिक जलस्रोत और भी सूख सकते हैं.”

एक आम आदमी की सोच जो जल को ईश्वर भाव से देखती है और  सरकार तथा जल संरक्षण से जुड़ी तमाम संस्थाएं उन्हीं को जागरूक करने में लगी हैं और दूसरा पानी का व्यावसायिक दोहन करने वाला वर्ग है जो जल को एक संसाधन मानकर उसका भारी मात्रा में दुरुपयोग कर रहा है और साथ ही नदियों को भी प्रदूषित कर रहा है.जल के सम्बंध में उपभोक्तावादी सोच रखने वाला यही वर्ग वर्त्तमान जलसंकट के लिए मुख्य रूप से जिम्मेदार है.

दरअसल, आज भारत में जल को लेकर दो तरह की सोच रखने वाले लोग हैं. एक आम आदमी की सोच जो जल को ईश्वर भाव से देखती है और  सरकार तथा जल संरक्षण से जुड़ी तमाम संस्थाएं उन्हीं को जागरूक करने में लगी हैं और दूसरा पानी का व्यावसायिक दोहन करने वाला वर्ग है जो जल को एक संसाधन मानकर उसका भारी मात्रा में दुरुपयोग कर रहा है और साथ ही नदियों को भी प्रदूषित कर रहा है.जल के सम्बंध में उपभोक्तावादी सोच रखने वाला यही वर्ग वर्त्तमान जलसंकट के लिए मुख्य रूप से जिम्मेदार है. पर विडंबना यह है कि वर्त्तमान प्रौद्योगिकी का इस्तेमाल करके भूमिगत जल का निर्ममता से दोहन करने वाले इस वर्ग के विरुद्ध न तो राज्य सरकारें कोई कदम उठाती हैं और न ही स्वनाम धन्य आज के जलवैज्ञानिकों को इस जल के दुरुपयोग के सम्बन्ध में ही कोई चिंता है. आज केंद्र सरकार के पास जलशक्ति मंत्रालय तो है किंतु जल संरक्षण की कोई राष्ट्रीय नीति उसके पास नहीं है,जिससे कि इस तरह जल के अपव्यय पर रोक लगाई जा सके. जबकि भारत सरकार के ‘नीति आयोग’ द्वारा दो साल पहले ही सन् 2018 में जारी रिपोर्ट के द्वारा यह चेतावनी भी दी जा चुकी है कि जल संकट की दृष्टि से देश इस समय सबसे बुरे दौर से गुजर रहा है. ‘नीति आयोग’ की इस रिपोर्ट के अनुसार देश के भूजल में लगातार आ रही गिरावट के कारण वर्ष 2030 तक जल का संकट एक भीषण संकट का रूप लेने वाला है.

इसी वर्त्तमान जल संकट के संदर्भ में भारत की पुरातन काल से चली आ रही जल संस्कृति की चर्चा करते हुए डा.मठपाल ने कहा कि महाभारत में जब भीष्म पितामह शरशय्या पर पड़े थे तो उस समय भगवान् श्रीकृष्ण उनसे मिलने युद्धभूमि में आए. तब भीष्म पितामह ने भगवान् कृष्ण की स्तुति विष्णुरूप में करते हुए कहा-

“यस्य केशेषु जीमूताः नद्यः सर्वांगसन्धिषु.
कुक्षौ समुद्रश्चत्वारस्तस्मै तोयात्मने नमः..”
            -महाभारत,शांतिपर्व, 47.61

अर्थात् जिनके मस्तक में केशों की जगह मेघ हैं,शरीर की संधियों में नदियां प्रवाहित होती हैं और उदर में चारों समुद्र विद्यमान हैं,उन जलरूप परमात्मा को प्रणाम है.भगवान् विष्णु के केशों में बादलों की, शरीर के जोड़ों में नदियों की और उदर में समुद्र की जो परिकल्पना महाभारत में आई है,पुराणों में वही श्लोक भगवान शिव की स्तुति के रूप में कहा गया है. (कूर्मपुराण,पूर्वभाग,10.68)

वैदिक ऋषियों के जल को अलौकिक और दिव्य मानने के इस विचार को परवर्ती भारतीय वाङ्गमय में भी उसी तरह से मान्यता मिलती रही किन्तु पौराणिक युगधर्म के अनुसार उसका किञ्चित स्वरूप बदल गया. ऋग्वेद में जिस जल की ‘आपो देवता’ के रूप में स्तुति की जाती थी,उसी जल की पुराणों और क्लासिकल संस्कृत साहित्य में ‘नारायण’ के रूप में वंदना की जाने लगी.

मैंने अपने पिछले लेख “भारत की जल संस्कृति-3” में वैदिक कालीन जल संस्कृति की विस्तार से चर्चा करते हुए बताया है कि  वैदिक संस्कृति में जल की माता के रूप में वंदना की जाती रही है. वैदिक चिंतकों के अनुसार जल संसार के सभी प्राणियों का वैसे ही पालन-पोषण करता है जैसे माता अपने बच्चों का दुग्धपान द्वारा पालन-पोषण करती है.वैदिक जलचिन्तकों के अनुसार जल को अलौकिक और दिव्य मानने का यह चिंतन इस वैज्ञानिक युग में भी प्रासंगिक है क्योंकि आज विज्ञान या प्रौद्योगिकी जल को विविध रूपों में रूपांतरित या स्थानांतरित तो कर सकती है,उसका जलवैज्ञानिक विश्लेषण भी कर सकती है किंतु वह जल संकट के समाधान की दृष्टि से जल की एक अतिरिक्त बूंद भी पैदा नहीं कर सकती. इसलिए वैदिक जल वैज्ञानिकों द्वारा समूचे विश्व को यह संदेश दिया गया है कि यदि कोई भी राष्ट्र अपना भौतिक एवं आध्यात्मिक विकास चाहता है तो उसे सर्वप्रथम ब्रह्माण्ड को संचालित करने वाले ‘ऋत’ यानी प्राकृतिक नियमों और ‘सत्य’ यानी नैतिक मूल्यों की रक्षा को अपना प्रधान ‘राष्ट्र धर्म’ बनाना होगा.क्योंकि इन्हीं प्राकृतिक नियमों का पालन करने से हमें प्रकृति परमेश्वरी द्वारा सहज रूप से निर्मल और अविरल जल की प्राप्ति हो सकती है-

“तानि धर्माणि प्रथमान्यासन”
          -ऋग्वेद‚ 10.90.16

वैदिक ऋषियों के जल को अलौकिक और दिव्य मानने के इस विचार को परवर्ती भारतीय वाङ्गमय में भी उसी तरह से मान्यता मिलती रही किन्तु पौराणिक युगधर्म के अनुसार उसका किञ्चित स्वरूप बदल गया. ऋग्वेद में जिस जल की ‘आपो देवता’ के रूप में स्तुति की जाती थी,उसी जल की पुराणों और क्लासिकल संस्कृत साहित्य में ‘नारायण’ के रूप में वंदना की जाने लगी.

समूचे भारतीय वाङ्गमय में जल के लिए सौ से भी अधिक पर्यायवाची शब्द प्रयुक्त हुए हैं,तथापि वेदों में जल के लिए सर्वाधिक प्रयोग ‘आपः’ शब्द का हुआ है.’आपः’ शब्द ‘आप्’ धातु से निष्पन्न है.’आप्’ धातु का प्रयोग व्यापक होने, फैलने एवं सर्वत्र विद्यमान रहने के अर्थ में प्रयुक्त होता है. दूसरे शब्दों में,जो सर्वव्यापी है,जो फैल सकता है और जो सर्वत्र विद्यमान है,वह ‘आपः’ कहलाता है.ये तीनों लक्षण सृष्टि के नियामक ब्रह्मा,विष्णु और महेश देवों के वाचक भी हैं.भारतीय परम्परा में जल अजर अमर है. वह सृष्टि के पहले विद्यमान था, वह वर्त्तमान काल में भी विद्यमान है और भविष्य में सृष्टि का विनाश होने के बाद भी विद्यमान रहेगा.इसलिए यह परंपरा जल में नारायण का वास मानती है.मनुस्मृति में नारायण की व्युत्पत्ति बताते हुए कहा गया है-

“आपो नारा इति प्रोक्ता आपो वै नरसूनवः.
ता यदस्यायनं पूर्व तेन नारायणः स्मृतः..”
                            -मनुस्मृति,1.1

अर्थात् ‘आपः’ (जल) को ‘नाराः’ कहा जाता है क्योंकि वे ‘नर’ से उत्पन्न हुए हैं,‘नर’ का मूल निवास ‘जल’ में है. इसीलिये जल में निवास करने वाले ‘नर’ को ‘नारायण’ कहा जाता है. स्पष्ट है कि वेदों में जिस जल को ‘आपो देवता’ कहा गया है,पौराणिक काल के जल चिंतकों ने उसे ‘नारायण’ मान लिया. वह स्वंयम्भू पुरुष ‘नर’ से उत्पन्न हुआ है इसलिये उसे ‘नार’ कहा जाता है.सृष्टि के पूर्व वह ‘नार’ (जल) ही भगवान् का अयन (निवास) था, इसलिए ‘नारायण’ कहा जाने लगा.जल में आवास होने के कारण भगवान् को ‘नारायण’ कहते हैं. इस प्रकार सृष्टि विज्ञान का आदि तत्त्व होने से भी भारतीय परंपरा में जल ईश्वर भाव से लोकआस्था का विषय बनता रहा है. यही कारण है कि उत्तराखंड हिमालय क्षेत्र में जितने भी प्राचीन जलकुंड,जलधारे,नौले या सरोवर मिलते हैं उन सभी स्थानों में विष्णु और उनके अवतारों की मूर्तियां व भित्तिचित्र मिलते हैं.अनेक नौलों में समुद्रशायी विष्णु का चित्र उकेरा हुआ मिलता है.अभिलेखों में जल को ‘ब्रह्म’ की संज्ञा देकर उसे चराचर जगत् का बीज कहा गया है.क्योंकि जल से ही सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड की सृष्टि हुई है तथा इसी जल के प्राकृतिक संरक्षण, संवर्धन और नियंत्रण द्वारा इस पृथ्वी का पर्यावरण भी संतुलित रहता है.समस्त प्राणियों की जीवन यात्रा जल से ही संचालित होती है-

“जलं हि प्राणिनः प्राणाः
जलं शस्यस्य जीवनम्.
न जलेन विना लोके
शस्यबीजं प्रजायते..”

वस्तुतः भारतीय वाङ्गमय में जल को ईश्वर मानने का विचार कोई धार्मिक अंधविश्वास जनित विचार नहीं बल्कि यह नदियों को शुद्ध रखने और जल संस्थानों की स्वच्छता और पवित्रता बनाए रखने का विचार है.भगवान् श्रीकृष्ण ने भी भगवद्गीता में स्वयं को नदियों में भागीरथी गंगा “स्रोतसामस्मि जाह्नवी”(10.31)तथा जलाशयों में समुद्र बताकर “सरसामस्मि सागर:”(10.24) जल के ईश्वरभाव को मान्यता दी है.भारतीय दृष्टि में जलस्रोत केवल निर्जीव जलाशय मात्र नहीं,अपितु वरुण देव तथा विभिन्न नदियों के रूप में उसमें अनेक देवियों की कल्पना की गई है. इसी कारण स्नान करते समय सप्तसिन्धुओं में जल के समावेश हेतु आज भी इस मंत्र द्वारा उन नदियों का आह्वान किया जाता है-

“गंगे च यमुने चैव गोदावरि सरस्वति.
नर्मदे सिंधुकावेरि जलेऽस्मिन् सन्निधिं कुरु..”

जल के प्रति इसी धार्मिक आस्था भाव का ही परिणाम है कि संस्कृत वाङ्मय के विभिन्न ग्रन्थों में वापी,कूप, तडाग आदि जलाशयों को धार्मिक दृष्टि से पुण्यदायी माना गया है –

“वापीकूपतडागानि देवतायतनानि च.
अन्नप्रदानमारामाः पूतधर्मश्च मुक्तिदम्..”
        – अग्निपुराण, 209.2

‘प्रासादमण्डन’ नामक वास्तुशास्त्र के ग्रन्थ में कहा गया है कि जो व्यक्ति जीव जन्तुओं और वृक्ष वनस्पतियों की जीवन रक्षा के लिए जलाशय का निर्माण करता है या दान स्वरूप देता है तो उसे इस लोक और परलोक में सुख की प्राप्ति होती है –

“जीवनं वृक्षजन्तूनां करोति य जलाश्रयम्.
दत्ते वा लेभेत्सौख्यमुर्व्यां स्वर्गे च मानवः..”
                     – प्रासादमण्डन, 8.95

पुराणकारों ने भूमिगत जल के संरक्षण और संवर्धन को प्रोत्साहित करने के लिए नए जलाशयों के निर्माण के अतिरिक्त पुराने तथा जीर्ण-शीर्ण जलाशयों की मरम्मत और जीर्णोद्धार को भी अत्यन्त पुण्यदायी कृत्य माना है-

“यस्तडागं नवं कृत्वा जीर्णं वा नवतां नयेत्.
सर्वं कुलं समुद्धृत्य स्वर्गलोके महीयते..”

वाल्मीकि रामायण में राज्य की ओर से सिंचाई व्यवस्था को सुचारु बनाने तथा जल प्रबन्धन को जन-जन तक पहुंचाने के लिए नदियों के तटों पर बांध बनाना और जल के बिखरे हुए स्रोतों को संचयित करने का महत्त्वपूर्ण उल्लेख आया है –

“बबन्धुर्बन्धनीयांश्च क्षोद्यान् संचुक्षुदुस्तथा.
अचिरेण तु कालेन परिवाहान् बहूदकान्..”
                – वा. रामायण, 2.80.10-11

रामायण में ही निर्जल प्रदेशों में नाना प्रकार के जलाशयों जैसे कुओं, बावड़ियों आदि के निर्माण द्वारा जलसंचयन को विशेष रूप से प्रोत्साहित किया गया है-

“निर्जलेषु च देशेषु खानयामासुरुत्तमान्.
उदपानान् बहुविधान् वेदिकापरिमण्डितान्..”
              – वा. रामायण,2.80.12

चौदहवीं शताब्दी के दक्षिण भारत स्थित पोरुममिल्ला नामक तडाक (सरोवर) में एक अभिलेख खुदा हुआ है,जिसमें जल को ‘ब्रह्म’ की संज्ञा देकर उसे चराचर जगत् का बीज कहा गया है.जल का आश्रय लेकर ही ब्रह्मा, विष्णु और महेश का आविर्भाव होता है-

“आपो वा इदं सर्वमित्याम्नायप्रमाणतः.
जलादेवान्नसंभूतिरन्नं ब्रह्मेति च श्रुतिः..
चराचरजगद्बीजं जलमेव न संशयः.
किं पुनर्बहुनोक्तेन जलाधिक्यं वदाम्यहम्..
गंगाधरो हरस्सोपि विष्णुरम्भोधिमन्दिरः.
ब्रह्माजलसंभूतस्तस्मात्सर्वाधिकं जलम्..”
           – पोरुममिल्ला अभिलेख, 23-25

चिंता की बात है कि जल की ब्रह्मा,विष्णु और महेश के रूप में उपासना करने और नदियों की मातृभाव से वंदना करने वाले इस देश में नदियों के साथ जिस तरह से दुर्व्यवहार किया जा रहा है,वह मनोवृत्ति भी वर्त्तमान जल संकट का एक बहुत बड़ा कारण है. औद्योगिक कचरे और गंदे नालों के द्वारा गंगा,यमुना आदि नदियों को इतना प्रदूषित किया जा चुका है कि इनका जल आज आचमन के योग्य नहीं बचा है.नदियों के इस जल प्रदूषण के लिए किसे दोषी ठहराया जाए? किसी न किसी रूप में इसके लिए हम सब जिम्मेदार हैं. किन्तु आज नदियों के प्रदूषित होने की मुख्य समस्या है नदियों में औद्योगिक कचरे और रसायनों के अपशिष्टों को छोड़ा जाना,जिसे वाटर ट्रीटमेंट उपकरणों से भी साफ करना मुश्किल होता है.नदियों में प्रवाहित किये गये घरों से निकलने वाले सीवर और गंदे नाले भी नदियों में प्रदूषण के स्तर को बढ़ा देते हैं.

केन्द्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड (सीपीसीबी), विज्ञान और पर्यावरण केंद्र (सीएसई) द्वारा पिछले कुछ वर्षों में किए गए सर्वेक्षणों से जो सांख्यिकी के आंकड़े सामने आए हैं,उसने नदी प्रदूषण की समस्या को सरकार के लिए भी गंभीर चिंता का विषय बना दिया है.इस सर्वेक्षण के अनुसार 445 नदियों का निरीक्षण करने से पता चला कि इनमें से एक चौथाई नदियां भी स्नान के योग्य नहीं है.यमुना नदी एक कचरे के ढेर का क्षेत्र बन चुकी है जिसमें दिल्ली का 57% से अधिक कचरा फेंका जाता है. गंगा को भारत में सबसे प्रदूषित नदी माना गया है. गंगा नदी में नियमित रूप से लगभग1 बिलियन लीटर कच्चे अनुपचारित सीवेज को प्रवाहित किया जाता है.गंगा नदी में प्रति 100 मिलीलीटर जल में 60,000 फ्रैकल कॉलिफॉर्म बैक्टीरिया होते हैं,जो मानव स्वास्थ्य के लिए बहुत खतरे के संकेत हैं. (माई इंडिया,4जुलाई,2017)

नदियों को बचाने की कोई सकारात्मक मुहिम ही इसमें बदलाव ला सकती है.औद्योगिक कचरे और सीवेज से आज नदियों को बचाने की तुरन्त आवश्यकता है.इस पर सरकार ही कठोर कानून बनाकर अंकुश लगा सकती है.आम जनता को भी चाहिए कि वह धार्मिक आयोजनों के अपशिष्ट और विभिन्न पूजा आयोजनों के समय मूर्तियों को नदियों में प्रवाहित न करे और नदियों के अविरल और निर्मल स्वरूप को अपनी अवांछित गतिविधियों से प्रदूषित न करे.

दिल्ली स्थित ‘सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायरमेंट’ में प्रोग्राम मैनेजर सुष्मिता सेनगुप्ता ने नदियों के प्रदूषण से सम्बंधित अपने एक अध्ययन ( डाउन टू अर्थ,28 मई 2019) में जानकारी दी है कि ‘नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल ‘(एनजीटी) में अगस्त 2018 को केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड (सीपीसीबी) की एक रिपोर्ट के अनुसार गंगा नदी की 70 निरीक्षण केंद्रों पर जांच से पता चला कि उनमें से केवल 5 केंद्रों पर ही गंगा का पानी पीने योग्य था, जबकि केवल सात निरीक्षण केंद्र ऐसे थे,जहां का पानी नहाने के लिए उपयुक्त था.गंगा से सटे पांच राज्यों के प्रदूषण नियंत्रण बोर्डों द्वारा उपलब्ध कराए गए आंकड़ों के अनुसार मई 2018 में गंगा बेसिन शहरों में मल ‘कॉलिफॉर्म’ का स्तर 2,40000 प्रति 100 मि.लीटर पाया गया,जबकि तय मानकों के अनुसार इसे 2,500 प्रति100 मि.लीटर होना चाहिए था. प्रदूषण की ऐसी चिंताजनक स्थिति में सरकार को इस ओर विशेष ध्यान देना चाहिए कि शहरी और ग्रामीण दोनों क्षेत्रों में शौचालयों से निकलने वाले कचरे का प्रबंधन यदि अच्छी तरह से नहीं किया गया तो गंगा नदी को स्वच्छ करने का काम बेकार ही जाएगा.

वस्तुतः नदियों में होने वाला प्रदूषण पर्यावरण और अर्थव्यवस्था के साथ साथ मानव तथा अन्य जीवों के स्वास्थ्य के लिए भी एक बड़ा खतरा है. यह मनुष्यों में स्वास्थ्य संबंधी कई समस्याओं और रोगों को उत्पन्न करता है. नदियों का प्रदूषित जल जानवरों और पक्षियों के जीवन पर भी प्रतिकूल प्रभाव डालता है,जिससे जैव विविधता को भारी नुकसान हो सकता है.

हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि हमारी जीवन चर्या और अर्थव्यवस्था आज भी नदियों पर ही पूरी तरह से निर्भर है.हमारे देश में नदियां ही हैं जो हमें पेयजल, सिंचाई,बिजली और परिवहन की सुविधाएं प्रदान करती हैं और देश में बड़े पैमाने पर लोगों के लिए रोजगार का भी एक बड़ा स्रोत हैं. इसलिए हम अपनी नदियों के अस्तित्व को अपने उपभोक्तावादी आधुनिक जीवन दर्शन से नष्ट नहीं होने दे सकते हैं.सरकार नदी के प्रदूषण को रोकने के नाम पर पिछले कई वर्षों से भारी मात्रा में धन खर्च करती आई है. पर कुछ बदलाव नहीं हुआ है. नदियों को बचाने की कोई सकारात्मक मुहिम ही इसमें बदलाव ला सकती है.औद्योगिक कचरे और सीवेज से आज नदियों को बचाने की तुरन्त आवश्यकता है.इस पर सरकार ही कठोर कानून बनाकर अंकुश लगा सकती है.आम जनता को भी चाहिए कि वह धार्मिक आयोजनों के अपशिष्ट और विभिन्न पूजा आयोजनों के समय मूर्तियों को नदियों में प्रवाहित न करे और नदियों के अविरल और निर्मल स्वरूप को अपनी अवांछित गतिविधियों से प्रदूषित न करे.

(लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय के रामजस कॉलेज से एसोसिएट प्रोफेसर के पद से सेवानिवृत्त हैं. एवं विभिन्न पुरस्कार व सम्मानों से सम्मानित हैं. जिनमें 1994 में ‘संस्कृत शिक्षक पुरस्कार’, 1986 में ‘विद्या रत्न सम्मान’ और 1989 में उपराष्ट्रपति डा. शंकर दयाल शर्मा द्वारा ‘आचार्यरत्न देशभूषण सम्मान’ से अलंकृत. साथ ही विभिन्न सामाजिक संगठनों से जुड़े हुए हैं और देश के तमाम पत्र—पत्रिकाओं में दर्जनों लेख प्रकाशित।)

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