एक क्रांति का नाम – नईमा खान उप्रेती

पुण्यतिथि पर विशेष

  • मीना पाण्डेय

नईमा खान उप्रेती एक क्रांति का नाम था. एक तरफ उत्तराखंड के लोक गीतों को राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय पटल पर लाने के लिए उन्होंने मोहन उप्रेती जी के साथ मिलकर एक बड़ी भूमिका निभाई. दूसरी ओर रंगमंच और लोक कलाओं में महिला भागीदारी के प्रति तत्कालीन समाज की जड़ मान्यताओं को पीछे छोड़ पहले पहल एक जीता-जागता उदाहरण बनी.

नईमा खान उप्रेती का जन्म 25 मई, 1938 को अल्मोड़ा के एक कटटर मुस्लिम परिवार में हुआ. उनका परिवार अल्मोड़ा के बड़े रईस परिवारों में एक था. उनके पिता शब्बीर मुहम्मद खान ने उस समय की तमाम सामजिक रूढ़ियों को दरकिनार कर एक क्रिस्चियन महिला से विवाह किया. पिता के प्रगतिशील विचारों का प्रभाव नईमा पर पड़ा. उन्हें बचपन से ही गाने का शौक था. परिवार में भी संगीत के प्रति अनुराग रहा.

मध्यम कद काठी, धुला रंग, छोटी पोनी में समेटे अर्द्ध खिचड़ी बाल और ऐनक से झांकती दो आँखों का पैनापन. उघड़ती सांसो के अवरोध के बावजूद वो एक बहाव में बोलतीं थीं. सत्तर की उम्र में भी उनके चेहरे मोहरे और अंदाज से अनायास ही नवयुवती के रूप में उनके अनुपम सौन्दर्य और जुझारू व्यक्तित्व का अनुमान लगाया जा सकता था.

सन 2000 या 2001 की बात रही होगी. मोहन उप्रेती शोध संस्थान, अल्मोड़ा के कार्यक्रम में उन्हें मुख्य अतिथि के रूप में आना था. ख़राब स्वास्थ्य  के कारण उनके आने को लेकर अनिश्चितता बनी हुई थी. मगर वे आयीं और वहीँ पहली बार मैंने  उन्हें मंच  गाते  हुए सुना-

‘पारा भिड़ा को छे भागि तू 
मुरली बाजी गे….. मुरली बाजी गे.’

उसके बाद तो वे मेरे सम्पादन में निकलने वाली पत्रिका ‘सृजन से’ की संरक्षिका भी रहीं. अक्सर उनसे उनके मयूर विहार, दिल्ली स्थित निवास पर मिलना होता था. करीब से उनके व्यक्तित्व और कार्यों को देखा और एक लम्बे सार्थक और उतने ही संघर्षपूर्ण जीवन के अनुभवों को सुनती रही.

नईमा खान उप्रेती का जन्म 25 मई, 1938 को अल्मोड़ा के एक कटटर मुस्लिम परिवार में हुआ. उनका परिवार अल्मोड़ा के बड़े रईस परिवारों में एक था. उनके पिता शब्बीर मुहम्मद खान ने उस समय की तमाम सामजिक रूढ़ियों को दरकिनार कर एक क्रिस्चियन महिला से विवाह किया. पिता के प्रगतिशील विचारों का प्रभाव नईमा पर पड़ा. उन्हें बचपन से ही गाने का शौक था. परिवार में भी संगीत के प्रति अनुराग रहा. शुरुवाद में वे शौकिया फ़िल्मी गाने गुनगुनाया करती थीं. उन्होंने इंटर तक की शिक्षा अल्मोड़ा एडम्स गर्ल्स इंटर कॉलेज से पास की. वहीं एक संगीत शिक्षक के रूप में मोहन उप्रेती जी से उनकी प्रथम भेंट हुई. मोहन जी को उनकी आवाज पसन्द आई. उसी दौरान प्रसिद्ध घसियारी गीत  “घा काटना जानू हो दीदी, घा कॉटन जानू हो’ का संगीत भी मोहन जी ने बनाया और नईमा जी को ही वह गीत पहली बार गाने का अवसर मिला. यह महज संयोग ही कहा जा सकता है कि आगे चलकर जिस मोहन उप्रेती से उन्होने प्रेम विवाह किया, एक प्रतियोगिता के दौरान वे उनसे काफी रुष्ट हो गई थीं. हुआ यह था कि हमेशा गाने में प्रथम आने वाली नईमा  को निर्णायक के तौर पर मोहन जी ने द्वितीय स्थान दे दिया था. इस तरह दौनों सम्पर्क में आए और नजदिकियां बढ़ने लगी.

“मैंने उन्हें अल्मोड़े में जब पहली बार सुना था तब मैं 6 -7 वर्ष का रहा हूँगा. पर उनका सुरीला स्वर मेरी स्मृति में सदा बना रहा है. अपने प्रेम और कमिटमेंट के लिए उन्हें जिस पीड़ा और संत्रास से गुजरना पड़ा होगा, उसकी मात्र कल्पना की जा सकती है. जिस तरह चार दशक तक वह अपने प्रण पर अटल रहीं वह प्रेम की अद्भुत मिसाल है.  वह भी एक ऐसे समाज में जो अपने पाखण्ड और रूढ़िवादिता के लिए प्रसिद्ध है.” -पंकज बिष्ट 

उसके बाद यूनाइटेड आर्टिस्ट संस्था और 1955 में लोक कलाकार संघ के साथ जुड़कर दोनों ने साथ में कई गाने गाये. उन्होंने आकाशवाणी के माध्यम से भी उनकी आवाज पसन्द की गई. लोक गायक के तौर पर नईमा व मोहन जी की जोड़ी उस समय की सबसे लोकप्रिय जोड़ी रही.  बाद में दिल्ली आकर उन्होंने राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय में दाखिला लिया. आगे चलकर वे कई महत्वपूर्ण पदों पर रहीं.

आश्चर्य होता है जिस समाज में लड़कियों का नृत्य व् नाटक जैसे माध्यमों से जुड़ना गलत समझा जाता था उसी समाज में रहते हुए नईमा जी न केवल लोक गीत और रंगमंच के क्षेत्र में अपने लिए जगह बनाती हैं वरन अन्य महिलाओं के लिए भी प्रेरणा बनती हैं. नईमा जी के प्रेम और उसके लिए किये गए लम्बे संघर्ष पर बात करते हुए एक पत्र के माध्यम से वरिष्ठ कथाकार और समयांतर के संपादक पंकज बिष्ट लिखते हैं -“मैंने उन्हें अल्मोड़े में जब पहली बार सुना था तब मैं 6 -7 वर्ष का रहा हूँगा. पर उनका सुरीला स्वर मेरी स्मृति में सदा बना रहा है. अपने प्रेम और कमिटमेंट के लिए उन्हें जिस पीड़ा और संत्रास से गुजरना पड़ा होगा, उसकी मात्र कल्पना की जा सकती है. जिस तरह चार दशक तक वह अपने प्रण पर अटल रहीं वह प्रेम की अद्भुत मिसाल है.  वह भी एक ऐसे समाज में जो अपने पाखण्ड और रूढ़िवादिता के लिए प्रसिद्ध है.”

“अक्टूबर 1979 को मेरे पिता का इंतकाल हो गया. मैं बिलकुल अकेली हो गई. उप्रेती जी भी कब्रिस्तान आए. मैं अपनी माँ और पिता की कब्रों  के पास बैठकर फुट-फूटकर रो रही थी तभी नजाने इनके दिल में क्या ख्याल आया, इन्होनें कब्र के सामने मेरे सर पर हाथ रखा और कहा हमें शादी कर लेनी चाहिए. मुझे उस समय ऐसा लगा मानो वो मेरी माँ और पिता से इस बात की इजाजत ले रहे हों.”

उन्होंने कटटरपंथी सोच को पीछे छोड़ एक हिन्दू ब्राह्मण से न केवल प्रेम किया बल्कि ताउम्र एक सच्ची सहधर्मिणी  की भांति उनके स्वपनों को जीती रही. इन दोनों के असाधारण प्रेम की अनूठी कथा सुनने-पढ़ने में चाहे कितनी ही रोचक लगे मगर उस प्रतिबद्धता के लिए 30 वर्षों के लम्बे संघर्ष और समर्पण की जिस ऊंचाई से उन्हें गुजरना पड़ा वो आसान नहीं था. अपने लम्बे चले  प्रेम के विवाह में परिवर्तित होने के सुख को सांझा करते हुए वे डॉ दीपा जोशी को दिए एक साक्षात्कार में बताती हैं   –

 “अक्टूबर 1979 को मेरे पिता का इंतकाल हो गया. मैं बिलकुल अकेली हो गई. उप्रेती जी भी कब्रिस्तान आए. मैं अपनी माँ और पिता की कब्रों  के पास बैठकर फुट-फूटकर रो रही थी तभी नजाने इनके दिल में क्या ख्याल आया, इन्होनें कब्र के सामने मेरे सर पर हाथ रखा और कहा हमें शादी कर लेनी चाहिए. मुझे उस समय ऐसा लगा मानो वो मेरी माँ और पिता से इस बात की इजाजत ले रहे हों.”

मगर विवाह के बाद जहाँ एक ओर विभिन्न प्रशासनिक पदों पर रहते हुए नईमा जी  संस्कृति व् रंगमंच के प्रति अपनी प्रतिबद्धता निभाती रहीं वहीँ दूसरी ओर व्यक्तिगत जीवन में उनका संघर्ष भी जारी रहा. मोहन उप्रेती के उनके प्रति अगाध प्रेम और समर्पण के बाद भी उनके परिवार ने नईमा जी को कभी  स्वीकार नहीं किया. पर्वतीय कला केंद्र में रहे सिने अभिनेता गोविन्द पांडे बताते हैं -” मुस्लिम होने के कारण उप्रेती जी के परिवार में उन्हें बहुत नाकारा गया, ये सच है. मोहन जी की माँ उनके यहां खाना नहीं खाया करती थीं. और उनके भाई वगैरह भी अच्छा व्यवहार नहीं करते थे. अंतिम समय तक भी उन्हें देखने कोई नहीं आता था.  तो ये दर्द तो नईमा जी के सीने में था कि मोहन उप्रेती जी के परिवार ने कभी उन्हें स्वीकार नहीं किया.’

ये विडम्बना ही है कि एक सम्पूर्ण जीवन लोक गीतों और संस्कृति को समर्पित करते ये कलाकार अपने जीवन काल में ही भुला दिए जाते हैं. न सरकार सुध लेती है न संस्थाएं. उनकी दूसरी पुण्यतिथि पर पसरा ये शून्य अखरता है. विनम्र श्रद्धांजलि

उनके करीबी और अंतिम दिनों में उन्हें सहयोग करने वाले अभिनेता गोविंद पांडे आगे बताते हैं – “एक समय था की जब बड़े बड़े मंत्री, एन एस डी के प्रोफेसर, चेयरमैन इनके घर पर बैठे रहते थे, उनसे मिलने के लिए तरसते थे और एक समय ये आया की उनके अपने परिवार वालों ने भी उन्हें नहीं देखा.”

नईमा उप्रेती के व्यक्तित्व में शिक्षित, स्वावलम्बी, योग्य और समर्पित स्त्री के विविध शेड्स रहे जो एक साथ विरले ही मिलते हैं. यही समर्पण उनके काम में भी दिखाई देता है. मोहन उप्रेती जी के साथ वे एक कलाकार और सहधर्मिणी दोनों भूमिकाओं में शत प्रतिशत नजर आती हैं.

ये विडम्बना ही है कि एक सम्पूर्ण जीवन लोक गीतों और संस्कृति को समर्पित करते ये कलाकार अपने जीवन काल में ही भुला दिए जाते हैं. न सरकार सुध लेती है न संस्थाएं. उनकी दूसरी पुण्यतिथि पर पसरा ये शून्य अखरता है. विनम्र श्रद्धांजलि

(लेखिका सीसीआरटी भारत सरकार द्वारा फैलोशिप प्राप्त व विभिन्न पुरस्कारों से सम्मानित हैं. देश की कई पत्र-पत्रिकाओं में कविता, कहानी एवं आलेख प्रकाशित. हिंदी त्रैमासिक साहित्यिक पत्रिका ‘सृजन से’ की संपादक तथा भातखंडे विद्यापीठ लखनऊ से कत्थक नृत्य में विशारद हैं)

Share this:

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *