कुमाऊं की ओखलियों में संरक्षित है वैदिक सभ्यता का इतिहास

  • डॉ. मोहन चंद तिवारी

मेरे लिए दिनांक 28 अक्टूबर,2020 का दिन इसलिए भी महत्त्वपूर्ण है कि इस दिन रानीखेत-मासी मोटर मार्ग में लगभग 40 कि.मी.की दूरी पर स्थित सुरेग्वेल के निकट ‘मुनिया चौरा’ में पुरातात्त्विक महत्त्व की महापाषाण कालीन तीन ओखलियों के पुनरान्वेषण में मुझे सफलता मिल पाई. सुरेग्वेल से एक किमी दूर ‘मुनिया चौरा’ गांव के पास एकदम खड़ी चढ़ाई वाले अत्यंत दुर्गम और बीहड़ झाड़ियों के बीच पहाड़ की चोटी पर because हजारों वर्षों से गुमनामी के हालात में स्थित इन ओखलियों तक पहुंचना बहुत ही कठिन कार्य था.अलग अलग पत्थरों पर खुदी हुई ये महापाषाण काल की तीन ओखलियां चारों ओर झाड़ झंकर से ढकी होने के कारण भी जन सामान्य के लिए अज्ञात ही बनी हुई थीं.

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पर दिनांक 28 अक्टूबर,2020 को मैं मुनिया because चौरा के निवासी श्री बचीराम छिमवाल और अपने जोयूं ग्राम के बंधुओं श्री लीलाधर तिवारी,श्री दिनेश तिवारी और गौरव सती के सामूहिक प्रयासों के फलस्वरूप साहस जुटा कर इन ओखलियों तक पहुंचने और उनके चित्र लेने में सफल रहा.

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‘मुनिया चौरा’ गांव से लगभग 300 मी. खड़ी पहाड़ी के शिखर ‘जेठाकोट’ की धार में स्थित ये तीन ओखलियां पिछले कितने हजार वर्षों से यहां विद्यमान हैं,किसी इतिहासकार because और पुरात्त्ववेत्ता को कुछ नहीं मालूम. कुछ पुराने बुजुर्ग लोग और इस पहाड़ की घास काटने वाली पर्वतारोहण में कुशल महिलाएं ही इन ओखलियों के बारे में थोड़ा बहुत जानती हैं, किन्तु नई पीढ़ी के लोगों को इन ओखलियों की कोई जानकारी नहीं है.

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‘मुनिया चौरा’ ग्राम के निवासी श्री बचीराम छिमवाल ने बताया कि इन ओखलियों को पांडवों द्वारा बनाया गया माना जाता है.उन्होंने बताया कि उनके पूर्वज रामनगर के निकट बसे ढिकुली ग्राम से आकर यहां ‘मुनिया चौरा’ ग्राम में बसे हैं. किन्तु ये ओखलियां उससे भी बहुत पहले की बनी  हैं,जिसका प्राचीन इतिहास किसी को because नहीं मालूम. ‘मुनिया चौरा’ की ही निवासी माधवी देवी ने बताया कि जब से उनका विवाह हुआ वह घास काटते हुए इन ओखलियों को देखती आई है. उसने अपने बुजुर्गों के मुख से सुना है कि यहां पहाड़ की चोटी में पहले नैला गांव के पुजारी रहते थे. उनकी एक गाय ओखलियों के पास घास चरती थी उसके बाद वह रात को नैथना के जंगल के एक पत्थर के लिंग में दूध चढ़ाने जाती थी.

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एक दिन उसके मालिक ने गाय का पीछा किया तो उस पत्थर के लिंग को देखा जिस पर वह गाय रोजाना अपना दूध चढ़ाने जाती थी. गाय के मालिक ने गुस्से में आकर उस लिंग पर कुल्हाड़ी से प्रहार किया तो वहां प्रस्तर खंड से ‘नैथना देवी’ प्रकट हो गई. बाद में नैला ग्राम के लोगों को इस लिंग के दैवी चमत्कार का पता चला तो because उन्होंने वहां मन्दिर की स्थापना की, जो आज भव्य नैथना मन्दिर के रूप में प्रसिद्ध है. नैला ग्राम के लोगों ने ही कालांतर में नैथना गांव के पाठकों को देवी का पुजारी नियुक्त किया. इस प्रकार माधवी देवी के द्वारा बताए गए जनश्रुतियों में प्रचलित इस वृत्तांत के अनुसार इन नवोद्घाटित ‘मुनिया चौरा’ की ओखलियों के साथ नारसिंही देवी के रूप में प्रतिष्ठित नैथना देवी शक्तिपीठ का प्राचीन इतिहास भी जुड़ा है.

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उत्तराखंड के जाने माने पुरातत्त्वविद डॉ. यशोधर मठपाल ने 1995 में प्रकाशित ‘द रॉक आर्ट ऑफ कुमाऊं हिमालय’ नामक पुस्तक में जोयूं की ग्यारह और बाईस ओखलियों के साथ ‘मुनिया की ढाई’ में स्थित ओखलियों के बारे में भी पुरातात्त्विक जानकारी दी थी. किन्तु ‘मुनिया चौरा’ ग्राम के ऊपर ढाई में स्थित इन ओखलियों से वे तब अनभिज्ञ ही रहे थे. पहले मुझे because भी नाम साम्य के कारण भ्रम बना रहा था कि डॉ.मठपाल द्वारा ‘मुनिया की ढाई’ में खोजी गई ओखलियां ‘मुनिया चौरा’ की ही ओखलियां होंगी, किन्तु उनकी पुस्तक को ध्यान से पढ़ा तो ज्ञात हुआ कि जिन ओखलियों को मैं तीस- चालीस वर्ष पहले से देखता आ रहा हूं,ये ‘मुनिया चौरा’ की सद्योद्घाटित ओखलियां डॉ. मठपाल द्वारा सन् 1990 में अन्वेषित ‘मुनिया की ढाई’ की ओखलियों से बिल्कुल अलग हैं,जो द्वाराहाट से 19 कि.मी.दूर ‘काने-बिठोली’ पंचायत के अंतर्गत आती हैं (‘रॉक आर्ट ऑफ कुमाऊं’, पृ.52).

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संयोग से इन ओखलियों को खोजने के प्रयास में दो वर्ष पहले मुझे ‘मुनिया चौरा’ के गांव की आबादी के बीच सलेटी रंग की एक नई कपमार्क ओखली का भी पता चला, जिसकी चर्चा अनेक समाचार पत्रों में हुई है. कपमार्क मेगलिथिक ओखलियों के इन पुरातात्त्विक प्रमाणों से इतना तो निश्चित है कि ‘मुनिया चौरा’ का यह गांव अति प्राचीन काल से ही मातृदेवी के because उपासकों का गांव रहा था. वैदिक काल में ‘मुनिया चौरा’ की इन ओखलियों का प्रयोग यज्ञ के अवसर पर चावलों को कूटकर पुरोडाश बनाने,सोमयाग के अनुष्ठान आदि धार्मिक प्रयोजनों के अतिरिक्त किसानों द्वारा अनाज कूटने, तेल निकालने, दीपावली के अवसर पर च्युड़े कूटने आदि  कार्यों के लिए भी किया जाता रहा होगा.

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हमारे देश के पुरातत्त्वविदों और इतिहासकारों ने यद्यपि इन कपमार्क ओखलियों’ के ऐतिहासिक दृष्टि से मूल्यांकन के प्रति कोई विशेष रुचि नहीं ली. पर ‘मुनिया चौरा’ के because कपमार्क मेगलिथिक ओखलियों के ये पुरातात्त्विक अवशेष उत्तराखंड के आद्यकालीन मातृपूजा और आद्य कृषि सभ्यता के इतिहास की कड़ियों को भी जोड़ने वाले महत्त्वपूर्ण साक्ष्य हैं.

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पुरातात्त्विक दृष्टि से ठोस पाषाण खंड में खोदी गई ये मेगलिथिक श्रेणी की कपमार्क ओखलियां महाश्मकालीन अवशेषों के अंतर्गत आती हैं, जिनकी प्राचीनता का कालखंड तीन-चार हजार because सहस्राब्दी ईस्वी पूर्व तक निर्धारित किया जा सकता है. पर विडंबना यह रही है कि उत्तराखंड के पुरातत्त्व विभाग ने मुनिया चौरा समेत जोयूं की इन मेगलिथिक ओखलियों का न तो कभी संज्ञान लिया और न ही इनकी कार्बन डेटिंग ही की, जिससे कि इनकी प्राचीनता का सही सही आकलन किया जा सकता.

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वस्तुतः वैदिक कालीन कृषि सभ्यता because और उससे सम्बंधित जल संस्कृति के अति प्राचीन इतिहास का अवलोकन करें तो ज्ञात होता है कि पशु पालक कृषि व्यवस्था की  प्रारम्भिक अवस्था में कृषि उपज के लिए मातृ देवियों का सामूहिक रूप से आह्वान किया जाता था. ऋग्वेद में कहा गया है कि हमारी गायें जिस जल का सेवन करती हैं, उन जलों का हम स्तुतिगान करते हैं. अन्तरिक्ष एवं भूमि पर प्रवहमान उन जलों के लिए हम हवि अर्पित करते हैं-

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अपो देवीरूप ह्वये यत्र गावः पिबन्ति नः.
सिन्धुभ्यः कर्त्व हविः..” -ऋग्वेद,1.23.18

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शुक्ल यजुर्वेद में भी जल माताओं से because प्रार्थना की गई है कि हमें जल माताएं पवित्र करें-

आपो ऽअस्मान् because मातरः शुन्धयन्तु घृतेन नो घृतप्वः पुनन्तु.”-शुक्ल यजुर्वेद,4.2

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यहां वेद भाष्यकार महीधर ने ‘आपो मातरः’ because की व्याख्या जगत निर्मात्री तथा मातृवत जगत का पालन करने वाली जगदम्बा के रूप में की है.

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उधर उत्तराखंड में रानीखेत-मासी राजमार्ग में स्थित ग्राम सूरे,जोयूं, तकुल्टी और जालली घाटी के प्राचीन पुरातात्त्विक मन्दिरों और नौलों के प्राचीन अवशेषों में सामूहिक मातृशक्तियों के चित्र because अंकित मिलते हैं. सुरेग्वेल से ऊपर लगभग 1 कि.मी. की दूरी पर स्थित सूरे ग्राम के प्राचीन नौले में बने शिव मंदिर में विष्णु के दो अवतारों नृसिंह अवतार एवं वराह अवतार के साथ साथ काले पाषाण पर उकेरी गई तीन मातृ देवियों की भव्य मूर्तियों का साक्ष्य भी इसी ओर इंगित करते हैं कि उत्तराखंड की लोक संस्कृति के सन्दर्भ में जल माताओं के साथ कृषिकारक देवियों का घनिष्ठ सम्बन्ध रहता आया है.

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सुरेग्राम के नौले में विद्यमान इन तीन मातृदेवियों की पहचान भी पौराणिक काल की तीन मातृ देवियों – वैष्णवी शक्ति,माहेश्वरी शक्ति और नारसिंही शक्ति रूपा देवियों से की जा सकती है. because मूर्तिकला के विकास की दृष्टि से भी ये सभी पौराणिक मूर्तियां कत्युरी काल की प्रतीत होती हैं तथा सूरेग्राम वासियों ने जब कुछ वर्ष पूर्व यहां नौले का जीर्णोद्धार किया तब यहां स्थित शिव मंदिर के गर्भगृह में शिव और पार्वती की आधुनिक संगमरमर की मूर्तियों के अगल बगल में दो विष्णु अवतार की प्राचीन मूर्तियों के साथ मातृ देवियों की मूर्ति को भी स्थापित कर दिया. सूरे ग्राम के प्रत्यक्षदर्शी ग्रामवासियों के अनुसार ये काले पाषाण की प्राचीन मूर्तिया सदियों से इस नौले में विराजमान रही हैं, किन्तु इस शिव मंदिर में इन वैष्णव धर्म की मूर्तियों की स्थापना का रहस्य क्या है,किसी को नहीं मालूम.

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सन् 2017 में मैंने जालली और सूरेग्वेल क्षेत्र में स्थित मन्दिरों और उनकी स्थापत्यकला के इतिहास को जानने का प्रयास किया तो तकुल्टी के ज्योतिषाचार्य श्री शंकर दत्त जोशी जी के because अनुसार सूरे ग्राम की ये पौराणिक रहस्यमय वैष्णव मूर्तियां नीचे सुरेग्वेल के प्राचीन मंदिर के गर्भगृह की मूर्तियां हो सकती हैं. क्योंकि ऐसी ही काले पाषाण में उकेरी गई पौराणिक वैष्णव मूर्तियां विशेषकर समुद्रशायी विष्णु की मूर्ति जालली स्थित बिल्वेश्वर के शिव मंदिर में भी मिली है. यहां से कुछ दूरी पर स्थित ‘चौड़ा’ नामक गांव के नौले में भी अंकित समुद्रशायी विष्णु मूर्ति के प्रमाण मिलते हैं.

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अब प्रामाणिक रूप से सिद्ध हो चुका है कि because शिव जी के इस बिल्वेश्वर मंदिर की स्थापना  कत्युरी राजा मानदेव के समय चौदहवीं शताब्दी में की गई थी. मुख्य मंदिर तो विधर्मियों द्वारा ध्वस्त हो चुका है किंतु प्राचीन शिवलिंग और भैरव मंदिर वहां आज भी विद्यमान है,जिसकी स्थापत्य शैली  वर्त्तमान में द्वाराहाट के कत्युरी शैली के मन्दिरों से हूबहू मिलती है.

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ऐसा ही इतिहास यहां सुरेग्वेल मन्दिर का भी रहा था,जिसका निर्माण भी चौदहवीं शताब्दी में कत्युरी राजा मानदेव के काल में हुआ  प्रतीत होता है. प्राचीन मंदिर तो पूरी तरह because नष्ट हो चुका है,किन्तु उस प्राचीन मंदिर स्थापत्य के कत्युरी कालीन अवशेष इस सुरेग्वेल के प्रांगण में आज भी देखे जा सकते हैं.सम्भवतः उसी कत्युरी मन्दिर की प्राचीन मूर्तियों को सूरे ग्राम के निवासियों ने इस नौले के शिव मंदिर में स्थापित कर प्राचीन धरोहर को संरक्षित करने की दिशा में भी सराहनीय प्रयास किया है.

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19वीं-20वीं शताब्दी के दौरान प्रकाश में आए इन ओखलियों को सामान्य घटना नहीं माना जाना चाहिए. हालांकि पुरातत्त्वविद इन ओखलियों के ऐतिहासिक महत्त्व का वास्तविक मूल्यांकन नहीं कर पाए, किंतु मैं अपने अनेक लेखों में इन ओखलियों की व्याख्या वैदिक साहित्य के परिप्रेक्ष्य में करता आया हूं. वैदिक सभ्यता because और संस्कृति की दृष्टि से ये कपमार्क मेगलिथिक अवशेष बहुत महत्त्वपूर्ण हैं.

अत्यंत संतोष का because विषय है कि मेरे द्वारा  ‘मुनिया चौरा’ की चिर प्रतीक्षित तीन ओखलियों के पुनरान्वेषण का समाचार अमर उजाला, दैनिक जागरण और दैनिक भास्कर,आदि समाचार पत्रों में प्रमुखता से प्रकाशित हुआ है,जिसके कारण इन ओखलियों को लेकर अनेक तरह की प्रतिक्रियाएं भी मेरे सामने आईं हैं.

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दरअसल, उत्तराखंड में विशाल स्तर पर मिलने वाली कपमार्क ओखलियों को आधुनिक पुरात्त्वविदों ने आखेट युग की गतिविधियों से जोड़ने का प्रयास किया है, जो युक्तिसंगत नहीं,बल्कि because वैदिक साहित्य और संस्कृति के प्रति इन विद्वानों की अनभिज्ञता को ही प्रकट करता है.वैदिक साहित्य के ‘उलुखल सूक्त’ और उत्तरवर्ती वैदिक साहित्य में ऊखल से सम्बंधित ब्राह्मण ग्रन्थों के साक्ष्यों से ज्ञात होता है कि इन कपमार्क ओखलियों का वैदिक कालीन मातृपूजा की धार्मिक गतिविधियों के साथ घनिष्ठ सम्बन्ध रहा था. पितृपूजा और वृष्टि सम्बन्धी सोमयागों में भी इन ऊखल मूसल के माध्यम से धार्मिक अनुष्ठान किए जाते थे.

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‘मुनिया चौरा’ से लगभग एक-डेढ़ कि.मी.की दूरी पर जोयूं ग्राम के निकट ‘माई धार’ में भी आमने सामने की पहाड़ी पर ऐसी ही अत्यंत प्राचीन महाश्मकालीन ग्यारह और बाइस because ओखलियों का सम्बन्ध भी मातृपूजा के साथ रहा था. यहां धान की फसल का भोग शारदीय नवरात्रों में देवी को चढ़ाया जाता था तथा दीपावली के आने पर नए धान के च्युड़े चढ़ाने की परम्परा भी रही थी.

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उल्लेखनीय है कि दीपावली में गणेश और धन धान्य की देवी लक्ष्मी को चावल की खील चढ़ाने की प्रथा उत्तराखंड के आर्य किसानों की ही मूल परम्परा थी. कुमाऊं में नवरात्र के because अवसर पर अष्टमी के दिन देवी जगदम्बा को नई फसल का भोग चढ़ाया जाता है, जिसे कुमाऊंनी में ‘अंगनाव चढ़ाना’ कहते हैं. आज भी जोयूं ग्राम के निवासी आश्विन नवरात्र में इस परम्परा का निर्वाह करते आए हैं. नवरात्र के बाद धान को कई दिनों तक पानी में भिगोया जाता है, फिर उनको कढाई में रख कर आग में भुना जाता है. उसके बाद पत्थर की बनी ओखलियों में कूट कर च्युड़े बनाए जाते हैं.

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इन च्युड़ों को दीपावली के अवसर पर धन धान्य की देवी लक्ष्मी को चढ़ाया जाता है. उसके बाद इन च्युड़ों को देवी लक्ष्मी के प्रसाद के रूप में ग्रहण किया जाता है. वर्त्तमान में दीपावली के because अवसर पर देवी लक्ष्मी और गणेश को खील तथा खिलौने का प्रसाद चढ़ाने की परम्परा भी धान उत्पादक उत्तराखंड के आर्य किसानों की ही देन है.

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अब साहित्यिक और पुरातात्त्विक दोनों प्रकार के साक्ष्यों से पूरी तरह यह सच सामने आ चुका है कि वैदिक आर्यों का आदि निवास स्थान उत्तराखंड की यही देवभूमि हिमालय के भूभाग थे. इसी उत्तराखंड हिमालय की गिरि कंदराओं में वैदिक ऋषि मुनियों ने वैदिक मंत्रों का साक्षात्कार किया था और पर्यावरण की शांति हेतु तरह तरह के because सोमयाग आदि यज्ञानुष्ठान भी इन ओखलियों के माध्यम से किए जाते थे. ऋग्वेद,अथर्ववेद तथा ब्राह्मण ग्रन्थों में स्पष्ट रूप से ‘ऊखल मूसल’ से सम्बंधित अनेक मंत्र मिलते हैं. ब्राह्मण ग्रन्थों में भी ऊखल मूसल से सम्बंधित ऐसे धार्मिक अनुष्ठानों का वर्णन मिलता है,जिनमें धान कूटने पीसने और पुरोडाश पकाने के भी उल्लेख मिलते हैं, जिसकी चर्चा मैंने अपने एक स्वतंत्र शोधलेख में की है. मुनिया चौरा, जोयूं आदि उत्तराखंड के अनेक स्थानों में मिलने वाली ये कपमार्क मेगलिथिक ओखलियां उन्हीं धार्मिक गतिविधियों का पुरातात्त्विक प्रमाण प्रस्तुत करती हैं.

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किंतु विडम्बना यह है कि हमारे देश के इतिहासकार चाहे वे उपनिवेशवादी हों या फिर राष्ट्रवादी, ब्रिटिश काल से चली आ रही इतिहास चेतना का समर्थन करते हैं. यही कारण है कि आर्यों के because सांस्कृतिक और धार्मिक इतिहास से जुड़ी गतिविधियों से जुड़े उत्तराखंड के पुरातात्त्विक अवशेषों के ऐतिहासिक मूल्यांकन में इन आधुनिक पुरात्त्वविदों और इतिहासकारों की कोई रुचि नहीं और न ही उत्तराखंड राज्य के पुरातत्त्व विभाग को ही इन वैदिक आर्यों के अति दुर्लभ ऐतिहासिक अवशेषों के संरक्षण की ही कोई चिंता है.

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(लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय के रामजस कॉलेज से एसोसिएट प्रोफेसर के पद से सेवानिवृत्त हैं. एवं विभिन्न पुरस्कार व सम्मानों से सम्मानित हैं. जिनमें 1994 में ‘संस्कृत शिक्षक पुरस्कार’, 1986 में ‘विद्या रत्न सम्मान’ और 1989 में उपराष्ट्रपति डा. शंकर दयाल शर्मा द्वारा ‘आचार्यरत्न देशभूषण सम्मान’ से अलंकृत. साथ ही विभिन्न सामाजिक संगठनों से जुड़े हुए हैं और देश के तमाम पत्रपत्रिकाओं में दर्जनों लेख प्रकाशित.)

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