‘जीवन जिससे पूर्ण सार्थक हो, वो मंजिल अभी दूर है’

प्रेरक व्यक्तित्व – डॉ. चरणसिंह ‘केदारखंडी’

  • डॉ. अरुण कुकसाल

मैं अचकचा गया हूं कि कहां पर बैठूं? कमरे के चारों ओर तो एक दिव्य और भव्य स्वरूप पहले ही से विराजमान है. मुझे सुखद आश्चर्य हुआ कि कमरे में करीने से because रखी पुस्तकें मेरे स्वागत में एक साथ मुस्करा दी हैं. मेरे हाथ श्रीअरविंद और श्रीमां के चित्रों की ओर स्वतः ही अभिवादन के लिए जुड़ गये हैं. मैं तुरंत सामने की किताब को सहला कर अपने को सहज करता हूं. हिन्दी, उर्दू, संस्कृत और अंग्रेजी की डिक्शनरियों की एक लम्बी कतार सामने के रैक पर सजी हैं. कमरे में दिख रही सभी किताबें धर्म के दायरे से बाहर निकलकर आध्यात्म का आवरण लिए हुये हैं.

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पल भर पहले मैं असमजस में रहा कि पहले किताबों से बातें करूं या केदारखंडी जी से. पर पल में ही संशय मिटा कि इन किताबों का अंश केदारखण्डी जी में किसी न किसी रूप में है, तो फिर उन्हीं से बातें पहली होनी चाहिए.

तो फिर, बात शुरू करते because केदारघाटी स्थित गुप्तकाशी के निकट तुलंगा गांव के इष्टदेव नृसिंह के प्रांगण में संचालित उस अद्भुत पाठशाला के अबोध बालक-विद्यार्थी से. गांव के गृहस्थ लेकिन, विचार-व्यवहार से संत श्री वीरसिंह पंवार इस पाठशाला को संचालित करते थे. सरकारी व्यवस्था से इतर इस पाठशाला की मस्ती गांव के बच्चों को घर से ज्यादा लुभाती थी. घरवालों की बातें और काम कि किसको चिन्ता? परन्तु, गुरूजी के बातों और पाठों को भूलना सवाल ही नहीं था.

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बात, सन् 1987 की थी. इसी पाठशाला का एक बालक जिसके पिता और दादा उसके पैदा होते ही स्वर्ग-सिधार गए, वह सीखता अक्षर ज्ञान था, पर अबोध मन-मस्तिष्क में because अनजाने ही जीवनीय ज्ञान को कुछ-कुछ समझकर संजोने भी लगा था.

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जीवन की बिडम्बना देखिए 2 नवम्बर, 1982 में जन्मे इस बालक से उसकी 7 साल की नादान उम्र में दादी का संरक्षण भी छिन गया. अब मां और जेठी मां का लाड़-दुलार तो था, लेकिन because दिनो-दिन दुष्कर होते आर्थिक अभाव भी मुहं-बायें साथ-साथ चलने लगे. बालमन ने समझाया कि आर्थिक अभावों के साथ रहना ही है तो फिर क्यों न उनसे दोस्ती कर ली जाए.

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‘अभाव में प्रभाव’ की नीति काम कर गई. बचपन से किशोरावस्था तक इस दोस्ताना रिश्ते ने लम्बा साथ दिया. कक्षा- 5 तक अपने तुलंगा गांव में, फिर 3 किमी. दूर राजकीय इंटर कालेज, ल्वारा में कक्षा- 6 से 12 तक की पढ़ाई मेघावी छात्र के रूप में सम्पन्न हुई. वर्ष- 2001 में 12वीं पास किया. फिर अपने मामा-मामी (श्री कुवंर सिंह रावत-श्रीमती रामरती रावत) के पास आकर गोपेश्वर में स्नातक और एमए की because पढ़ाई वर्ष-2006 में पूरी की. उसके बाद सन् 2008 तक महायोगी गुरु गोरखनाथ महाविद्यालय, बिथ्याणी, यमकेश्वर, पौड़ी (गढ़वाल) में अंग्रेजी का अध्यापन कार्य किया. नवम्बर, 2008 से वे राजकीय महाविद्यालय, जोशीमठ (नवीन नाम ज्योतिर्मठ) में अंग्रेजी का अघ्यापन कार्य कर रहे हैं. इस बीच वर्ष-2013 में श्रीअरविंद के जीवन दर्शन के केन्द्र में ‘सावित्री’ महाकाव्य पर पीएच.डी की उपाधि प्राप्त की.

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आर्थिक अभावों से इस दांतकाटी ज़िगरी because दोस्ती ने उस युवा को कष्ट तो बहुत दिए परन्तु जीवन में आत्मनिर्णय, आत्मनिर्भरता, आत्मविश्वास और आत्मसम्मान को आत्मसात करने की ओर भी अभिप्रेरित किया. यही जीवनीय पूंजी आज उस युवा याने डॉ. चरणसिंह ‘केदारखण्डी’ के बहुआयामी व्यक्तित्व का अहम हिस्सा है.

साहित्य और अघ्यात्म के अध्येयता डॉ. चरणसिंह ‘केदारखण्डी’ अंग्रेजी भाषा के सहायक प्रोफेसर हैं. विश्व प्रसिद्ध अनुपम कृतियां ‘सावित्री’ महाकाव्य, ‘द लाइफ डिवाइन’ और ‘द मदर’ के लेखक, सामाजिक चिन्तक और महायोगी श्रीअरविन्द के दर्शन पर डॉ. चरणसिंह ‘केदारखण्डी’ ने पीएच-डी की उपाधि हासिल की है. प्रो. सुरेखा डंगवाल, because (वर्तमान में कुलपति, दून विश्वविद्यालय) के निर्देशन में श्रीअरविन्द पर शोध उपाधि हासिल करने वाले डॉ. चरणसिंह ‘केदारखण्डी ’ प्रथम अध्येयता हैं. डॉ. केदारखंडी पुदुचेरी (पांडिचेरी) में श्रीमां द्वारा स्थापित विश्व आघ्यात्मिक संगठन ‘श्रीअरविन्द सोसाइटी’ के उत्तर-प्रदेश और उत्तराखंड राज्य के प्रतिनिधि पद का निर्वहन कर रहे हैं. और, श्रीअरविन्द अध्ययन केन्द्र, जोशीमठ के मुख्य संचालक की भूमिका में हैं. डॉ. केदारखण्डी देश के विश्वविद्यालयों और शीर्ष संस्थाओं में श्रीअरविन्द के दर्शन और योग पर व्याख्यान के लिए आमंत्रित किए जाते हैं.

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विभिन्न विषयों और संदर्भों में प्रतिष्ठित राष्ट्रीय और अंतर-राष्ट्रीय पत्र-पत्रिकाओं में डॉ. चरणसिंह ‘केदारखंडी’ के 500 से अधिक शोध आलेख प्रकाशित हुए हैं. ‘मूक वेदना का कालजयी कथानक’ because उनका प्रकाशित काव्य संग्रह है. उनकी शीघ्र प्रकाशित पुस्तकें ‘श्रीअरविन्द- जीवन साधना और संदेश’, ‘मैं लौट कर आऊंगा चिनार‘, ‘केदार हिमालय-समाज, संस्कृति और लोकजीवन’ तथा ‘डांसिंग विथ द मून’ हैं.

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डॉ. केदारखंडी का व्यक्तित्व और कृतित्व जीवन की गूढ़ता को जानने वाले कवि और अघ्येयता का है. विचार बन्धनों से मुक्त होकर सीमाओं से पार और कल्पनाओं के आगे जाकर वे मनुष्यता की अलख़ जगाये हैं. केदारखंडी के लेखन में विश्व के समस्त प्राणियों के जीवन पर एक जैसी दृष्टि है फिर चाहे वो जीवन चींटी का हो या आदमी का. because उनकी कवितायें बताती हैं कि ब्रह्माण्ड के निरंतर बदलावों से अलग रहकर किसी भी सभ्यता और संस्कृति  का कोई अस्तित्व नहीं है. इसलिए हमारी सामाजिक परम्पराओं में नवीन चेतना का निरंतर संचार होता रहना चाहिए. उनका मानना है कि पश्चिमी देशों की प्रौद्योगिकी और भारत के अध्यात्मिक ज्ञान का समन्वयन विश्व-कल्याण के लिए सर्वोत्तम रास्ता है.

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केदारखंडी बताते हैं कि ‘जीवन के विकट और घुमावदार रास्तों पर चल कर मैं यहां तक पहुंचा हूं. बचपन में ही मैं बखूबी समझ गया था कि जीवन के सीधे रास्ते कभी सार्थक मंजिलों तक नहीं पहुंचाते हैं. यह भी एक पड़ाव है, जीवन जिससे पूर्ण सार्थक हो, वो मंजिल because अभी दूर है. आर्थिक अभावों के कारण कक्षा- 6 से बीए पास करने तक हर साल यात्रा सीजन के 2 माह जब स्कूल-कालेज की छुट्टी रहती तो होटलों की नौकरी और खच्चर-घोड़े से यात्रियों को गौरीकुण्ड से केदारनाथ जाने-आने का काम करना मजबूरी थी. परन्तु, इसी आर्थिक मजबूरी ने हमेशा मेरे आत्मबल को मजबूत बनाये रखा. यही जीवनीय संघर्ष आज सशक्त भावना के साथ मेरी अन्तर-मन की शक्ति है.’

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‘इंटरमीडियेट में पढ़ते हुए शिक्षक परम आदरणीय सत्यनारायण सेमवाल ने अंग्रेजी भाषा और अध्यापन की तरफ रुचि जगाई. उनका शिक्षण आज भी मेरे शिक्षण का मुख्य आधार है. because उन्होने समझाया था कि यदि व्यक्ति की रुचि उसका रोजगार भी बन जाय तो जीवन में आंनद और वैभव स्वतः ही आयेगा. गुरुजी का यह मार्गदर्शी जीवन मंत्र मेरे भविष्य के प्रयासों का प्रेरक बना.’

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‘पढ़ाई-लिखाई और पारिवारिक मदद के लिए यात्रा – सीजन मेें रोज गौरीकुंड से केदारनाथ घोडों में जाते-आते यात्रियों के साथ पूरे दिन-भर रहना होता था. अधिकांश यात्रीगण अंग्रेजी because पढ़े-लिखे होते थे. इसलिए, इस काम को अंग्रेजी बोलने और सीखने के अवसर में भी मैंने तब्दील किया. रोज नये-नये यात्रियों से मिलना उनसे अंग्रेजी में बात करने की कोशिश ने मेरी अंग्रेजी को सुधारने में बहुत मदद की. साथ ही, मुझे उनसे दुनिया-जहान की जानकारी मिलती थी. इस प्रकार, यात्रियों से आर्थिक आधार ही नहीं मिला वरन जीवन में कुछ नया और बड़ा करने की प्रेरणा भी मिलती थी.’

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‘स्कूली समय से ही अंग्रेजी सीखने के लिए मैंने डिक्शनरी पढ़ना शुरू किया. डिक्शनरी से मोहब्बत जो शुरू हुई, वह आज तक बनी हुई है. नया सीखने की जिज्ञासा में यह मोहब्बत because और बड़ती जा रही है. मेरे पास डिक्शनरियों का एक समृद्ध संग्रह है. डिक्शनरियों ने मुझे शब्दों के अर्थ, मायने और कल्पनाशीलता को बड़ाने में मदद की, जो आज भी जारी है.

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अंग्रेजी अच्छी होने के कारण बीए मेें पढ़ते हुए ही लेखकों, शोधार्थियों और अघ्यापकों के लेख और शोध-पत्रों का मैं हिन्दी से अंग्रेजी और अंग्रेजी से हिन्दी में अनुवाद करने का काम करने लगा. यह भी आय और सम्मान का जरिया बन गया. मुझे लगा कि जीवन की मुश्किलें जितनी विकट दिखती हैं, उतनी होती नहीं है. अगर हममें धैर्य, because आत्मविश्वास और मेहनत का ज़ज्बा है, तो जीवन की हर मुश्किल छोटी है. मेरे इस अंग्रेजी सीखने के एक गुण ने मुझे जीवन की सही राह, सीख और आत्मविश्वास दिया. और, सबसे महत्वपूर्ण बात अंग्रेजी भाषा के ज्ञान ने श्रीअरविंद और श्रीमां के गूढ़ दर्शन को सहजता से समझने में भी साहयता की है. परिणामतया, मुझे उच्च शिक्षण उपाधि के साथ सही जीवन दृष्टि भी मिली.’

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‘वामपंथ की ओर झुकाव स्कूली शिक्षा के दौरान आर्थिक अभावों से जूझते हुए स्वतः ही हो गया था. मैं देखता कि मजदूरों और कमजोर लोगों के हितों और उन पर होने वाले अन्याय के लिए वामपंथी संगठन ही आगे रहते. काग्रेंस और भाजपा के निहित ऐजेण्डे होते और उनके स्थानीय नेता उसी के अनुरूप काम करते थे. because मैं सन् 2001 से 2006 तक एसएफआई का सदस्य और जिला उपाध्यक्ष रहा. इस दौरान कई आन्दोलनों में भाग लिया. स्थानीय नेतृत्व में वामपंथ की वैचारिकी और उसके व्यवहार के विरोधाभास ने मुझे उससे तटस्थ कर दिया. गोपेश्वर में अध्ययन करते हुए अध्येता डॉ. भगवती प्रसाद पुरोहित और श्रीमती मंगला पुरोहित ने एक सच्चे मार्गदर्शी की तरह मेरा साथ दिया. उनके ‘पंछी वाला डेरा’ का एक पंछी मैं भी था. आज भी वहां जाकर मन तृप्त और षांत हो जाता है.’

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‘श्रीअरविंद के जीवन-दर्शन को पीएच.डी. का विषय चुनना मेरे लिए जीवन की एक नई राह में प्रवेश करना था. यह श्रीअरविन्द के दर्शन को जानने, समझने और आत्मसात करने का because स्वर्णिम अवसर साबित हुआ. मेरा वर्ष-2011 में पहली बार श्रीअरविन्द आश्रम, पांडिचेरी जाना हुआ. लगा, एक नये, अभिनव और अद्भुत संसार को देख रहा हूं,. मन-मस्तिष्क की जिज्ञासा ने इस नयी दुनिया से और परिचय बढ़ाया. एक चरम आंनद की अनुभूति हुई. लगा, वर्षो का संघर्ष सफल हुआ और अब जाकर जीवन की ठौर मिली है. यही तो जीवन मैं अपनाना चाहता था. वहां देखा, हर कार्य और विचार का परफेक्शन पर फोकस है.

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हर व्यक्ति केवल काम ही नहीं कर रहा वरन उसे बेहतर से बेहतर करने में तल्लीन है. उसकी आत्मुग्धता इस बात से नहीं थी कि वह हुनरमंद या ज्ञानवान है, वरन इस बात पर थी कि वह because अपने काम के प्रति पूरी तरह समर्पित है. उसे कभी महसूस ही नहीं हो रहा था कि श्रीअरविन्द और श्रीमां उससे अलग हैं. वह जानता था कि वे उसके आत्मबल को बढ़ाने के लिए आस-पास मौजूद हैं. श्रीअरविंद के आश्रम में बीसवीं सदी के पूर्वान्ह् से ही स्त्री-पुरुषों के काम और विचारों की यह स्वतंत्रता आश्चर्यजनक थी.’

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केदारखण्डी का कहना है कि ‘श्री अरविंद विश्व में पूर्वी और पश्चिमी सभ्यता का मिलन स्थल थे. कैम्ब्रिज से पढ़े-लिखे वो भारतीय दर्शन से प्रभावित हुए. वे विश्व के पूर्वी और पश्चिमी because दर्शन के आपसी समावेश से एक व्यापक और सर्वग्राही मानवीय जीवन पद्धति विकसित करने के काम में जुट गए. उनका प्रबल विचार था कि अपनी अपूर्णताओं के साथ हमारी कशमकश और संघर्ष आदमी बने रहने की है. उन्होने धार्मिकता और आध्यात्मिकता के झीने आवरण को अलग किया.

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उन्होने बताया कि इन्सान बनो, because अपनी अंदर की प्रतिभा को पहचान कर धार्मिक होने से आगे आध्यात्मिक बनो. उन्होने विश्व के सभी धर्म-ग्रन्थों का अध्ययन और मनन किया. उनका कहना था कि हर स्थिति में उदार और सहज रहना आध्यात्मिकता का पहला लक्षण है. मैं शिक्षक हूं तो सबसे पहले पढ़ने और पढ़ाने से प्यार करूं. जीवन सीमित और निश्चित है. कब उसका अन्तिम छोर आ जाये. इसलिए, यही वर्तमान क्षण सर्वोत्तम है. उसी को अपना सर्वोच्च प्रदान कर दो.’

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केदारखण्डी मानते हैं कि ‘वर्ष-2013 की केदारनाथ आपदा ने हमें कई संदेश दिये हैं. अचानक आये संकट के समय व्यक्ति के मन-मस्तिष्क में तुरंत या तो भगवान जागेगा या शैतान. because हमने इस आपदा में आदमी को दोनों ही रूपों को देखा है. विश्वभर में तीर्थयात्रा ने एक संगठित व्यवसाय का रूप ले लिया है. इससे तीर्थस्थलों में अनावश्यक मानवीय हस्तक्षेप बड़ता जा रहा है. हमारी व्यावसायिक अपेक्षायें मंदिरों पर जरूरत से ज्यादा निर्भर हो गयी हैं, जो ठीक नहीं है. हमें यह भली-भांति समझना होगा कि बाजार के केन्द्र में बाडी अर्थात भौतिकता ही है. उसका सारा शोर-शराबा शरीर के भोग-विलास के लिए है. वहां, परमात्मा के लिए कोई जगह नहीं है.’

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केदारखण्डी जी को पिता का साया नसीब नहीं हुआ तो उन्होने बचपन से ही भगवान श्रीकेदारनाथ को अपने आघ्यात्मिक पिता की तरह माना. वो ही उनके जीवन में आगे बढ़ने की प्रेरणा और आजीविका के आधार रहे. प्राचीन गढ़वाल की पहचान केदारखण्ड से है. आज भी, गढ़वाल और गढ़वाली के विचार और व्यवहार की सर्वोच्च because पहचान केदारनाथ हैं. इसलिए, युवा-अवस्था में अपने नाम के आगे ‘केदारखण्डी’ शब्द को भी उन्होने जोड़ दिया. वे भाव-विभोर होकर कहते हैं कि ‘केदारनाथ में जन्म मिला और बद्रीनाथ के निकट ज्योतिर्मठ जैसी परम आघ्यात्मिक ऊर्जा की भूमि में अध्यापन तथा निरंतर रचनाशीलता का सौभाग्य किसी को ही मिल पाता है. और, उनमें एक सौभाग्यशाली मैं हूं.’

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बातचीत को विराम देते हुए डॉ. चरणसिंह ‘केदारखण्डी’ समग्रता में कहते हैं कि ‘अपने गांव में ‘चौखम्भा’ की भव्यता-दिव्यता को देखकर मैं बड़ा हुआ हूं. मैंने अपनी आराध्य भगवती राज-राजेश्चरी के मेले की मीठी जलेबियों का स्वाद चखा है, इसलिए आंचलिकता में मेरी जड़ें हैं और दृष्टि का विस्तार हर उस क्षितिज तक है, because जहां तक आकाश का प्रकाश है. मैं अंग्रेजी भाषा के फुलस्टॉप जैसी इस छोटी-सी दुनिया के हर छोर को आंखों में समेटना चाहता हूं ताकि एक दिन सुकून से खुद किसी छोर पर सिमट सकूं. सच कहूं तो शिकायत का कोई आधार नहीं है. जिन्दगी बहुत सुन्दर है और इसमें, बकौल रॉबर्ट ब्राउनिंग, ‘सर्वश्रेष्ठ तो अभी आना बाकी है’.’

तभी तो वे मानते हैं कि-

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अतीत से पिण्ड छूटे
तो समझूं कि becauseनया साल आया
तिमिर का because तिलिस्म टूटे
तो समझूं कि because उजाले का साल आया
गमों-गफ़लतों का because बाजार सिमटे
भूख का कारोबारbecause निपटे
तो मानूं कि नया because साल आया.
‘बचपन’ कहीं because रोता न दिखे
‘बुढ़ापा’ जिंदगी because ढ़ोता न दिखे
बेघरों और अनाथों because की तरह
कोई फुटपाथों पर because सोता न दिखे
पेट की आग कीbecause खातिर
किसी दुहिता की because आबरू न बिके
तो समझूं कि उत्सव का because साल आया.

– डॉ. चरणसिंह ‘केदारखण्डी’- ‘मूक वेदना का कालजयी कथानक’

(लखेक एवं प्रशिक्षक)

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