अमृत पर्व कुम्भ: सनातन संस्कृति, परम्परा और ज्ञानामृत चेतना से पुनः संवाद….

  • डॉ. मोहन चंद तिवारी

नववर्ष 2022 के अवसर पर, जब देश अपनी आजादी के 75वें अमृत महोत्सव की वर्षगांठ भी मना रहा है, यह बताते हुए अपार हर्ष हो रहा है कि इस नए वर्ष में मेरी because चिर प्रतीक्षित पुस्तक “अमृत पर्व कुम्भ: इतिहास और परम्परा” देश के लब्धप्रतिष्ठ प्रकाशन, ईस्टर्न बुक लिंकर्स, दिल्ली के माध्यम से सुधीजन पाठकों के करकमलों में शीघ्रातिशीघ्र पहुंचने वाली है.

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हमारे देश के बुद्धिजीवियों और सन्त महात्माओं ने आदिकाल से चली आ रही  कुम्भ परम्परा को महज एक धार्मिक मेले की नजरिए से ही देखा है, जिसका आयोजन चार तीर्थ स्थानों पर तीन सालों के अंतराल पर किया जाता है. किन्तु इस कुम्भ अवधारणा के पीछे नदियों के संरक्षण, प्रकृति संरक्षण,  नदीमातृक संस्कृति और पर्यावरण चिंतन because और अखंड राष्ट्रीय एकता का जो विचार हजारों वर्षों से इस भारत देश को राष्ट्रीय अस्मिता के भाव से जोड़ रहा था उसे आज भुला दिया गया है, जिसके कारण नदियों की मातृभाव से पूजा करने वाला हमारा यह देश नदी प्रदूषण और जल संकट की भीषण समस्या को झेल रहा है.

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वर्त्तमान पुस्तक का एक मुख्य प्रयोजन हैbecause ब्रह्मांड चेतना से जुड़ी इस भारतीय कुम्भ की सनातन संस्कृति की परम्परा और उसके ज्ञानामृत चेतना से पुनः संवाद करना.

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अमृतपर्व कुम्भ ‘भारतराष्ट्र’ की पहचान से जुडा नदीमातृक संस्कृति के उपासकों का एक सांस्कृतिक लोकपर्व है. इस पर्व क॓ साथ विभिन्न कालखण्डों के इतिहास की अनेक बिखरी हुई कड़ियां जुड़ी हैं. वेदों के अनुसार मन्त्रद्रष्टा ऋषि वसिष्ठ और अगस्त्य का जन्म कुम्भ से ही हुआ था. वैदिक मन्त्रों में ‘चतुर्धा कुम्भ’ का प्रयोग ‘विष्टारि’ यज्ञ के चार प्रकार के घड़ों और ‘पूर्ण कुम्भ’ का प्रयोग अक्षयकाल की अवधारणा का वाचक है.

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बारह अध्यायों और 431 पृष्ठों में लिखी गई इस पुस्तक में वैदिक काल से लेकर आधुनिक काल तक कुम्भपर्व के इतिहास और उसके आस्थामूलक आध्यात्मिक, आधिदैविक,आधिभौतिक because और कृषि वैज्ञानिक पक्षों पर विवेचनात्मक प्रकाश डाला गया है. पुस्तक में हरिद्वार, प्रयागराज, नासिक और उज्जैन इन चार प्रमुख कुम्भ मेलों के साथ-साथ छह क्षेत्रीय कुम्भ मेलों और पड़ोसी देश नेपाल के ‘चतराधाम’ कुम्भ सहित ग्यारह कुम्भ मेलों के बारे में भी विस्तृत जानकारी दी गई है.

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हाल ही में मिथिला प्रान्त से उपलब्ध पाण्डुलिपि ‘रुद्रयामलोक्तामृतीकरणप्रयोग’ के आधार पर पुस्तक में पहली बार कुम्भ की उत्पत्ति, उसके पौराणिक और ज्योतिषशास्त्रीय स्वरूप का because पुनर्मूल्यांकन करते हुए दो प्रकार के कुम्भ मेलों का सैद्धान्तिक वर्गीकरण प्रस्तुत किया गया है. पहली ‘चतुर्धाकुम्भ’ परम्परा के अंतर्गत हरिद्वार, प्रयाग, नासिक और उज्जैन इन चार बड़े कुम्भ मेलों तथा उनके दर्शनीय स्थलों की जानकारी दी गई है और दूसरी ‘द्वादशकुम्भ’ परम्परा के अनुसार तमिलनाडु के रामेश्वरम और कुम्भकोणम, बिहार के सिमरिया धाम, उत्तरप्रदेश के वृन्दावन धाम, छतीसगढ़ के राजिम और हरियाणा के ब्रह्मसरोवर में आयोजित होने वाले छह क्षेत्रीय कुम्भ मेलों के पौराणिक और ज्योतिषशास्त्रीय स्वरूप के बारे में प्रकाश डाला गया है.

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पुस्तक केवल चार बड़े कुम्भमेलों से ही because केंद्रित न रहकर द्वादश कुम्भों की उपेक्षित और लुप्त होती लोक परम्परा के साथ भी शास्त्रीय और वैचारिक संवाद प्रस्तुत करती है.

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दरअसल,’भारतराष्ट्र’ की भौगोलिक एकता और अखंडता के आधारभूत ये लुप्त हो चुके बारह कुम्भ पर्वों को पिछले एक दशक से करपात्री स्वामी चिदात्मन देव महाराज के द्वारा सम्पूर्ण भारत को because एक वैज्ञानिक खगोलीय और नदीमातृक तीर्थस्नान की सनातन संस्कृति से जोड़ने का जो धार्मिक अभियान चलाया जा रहा है,पुस्तक में उस के शास्त्रीय स्वरूप की भी विशद विवेचना की गई हैं.

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वस्तुतःप्राचीन काल से ही बारह स्थानों पर आयोजित होने वाले कुम्भों का धार्मिक दृष्टि से उतना ही महत्त्व है, जितना कि वर्त्तमान चार कुम्भों का. इनकी पौराणिक और ज्योतिषशास्त्रीय मान्यताएं भी चार कुम्भों से जुड़ी समुद्रमंथन से निकले अमृतघट की घटना से प्रेरित हैं. पुस्तक में because वर्त्तमान में आयोजित होने वाले चार कुम्भों और उपेक्षित द्वादश कुम्भों की मूल अवधारणा और उनके पौराणिक स्वरूप का पहली बार शास्त्रीय एवं तुलनात्मक विवेचन प्रस्तुत किया गया है.

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पुस्तक में मिथिला से प्राप्त दुर्लभ संस्कृत पांडुलिपि “रुद्रयामलोक्तामृतीकरणप्रयोग” के आधार पर जाह्नवी नदी के निकट शाल्मलीवन  (सिमरिया धाम ) की पहचान कुम्भ की आदि जन्मस्थली के because रूप में की गई है, साथ ही नवोद्घाटित मोहिनी आख्यान और भगवान् विष्णु द्वारा अमृतघट से बारह नदियों में प्रवाहित किए जाने वाले अमृत बिंदुओं के पौराणिक आख्यान की प्रासंगिकता पर भी विशेष प्रकाश डाला गया है.

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पुस्तक में कुम्भ मेलों में सम्मिलित होने वाले शैव, वैष्णव,और उदासीन सम्प्रदाय के तेरह परम्परागत अखाडों और किन्नर अखाड़े सहित कुल चौदह अखाड़ों के धार्मिक स्वरूप,उनके इतिहास,आचार मीमांसा आदि के बारे में भी विस्तार से चर्चा की गई है. कुम्भपर्व के समग्र स्वरूप और उसके अधुनातन तथ्यात्मक इतिहास की घटनाओं और because सूचनाओं से युक्त यह शोधपूर्ण कृति को भारतीय संस्कृति के अध्येताओं और कुम्भपर्व के शोधार्थियों के लिए भी जानकारीपूर्ण बनाने का प्रयास किया गया है. आशा है कुम्भ पर्व पर आस्था रखने वाले सुधीजनों को यह पुस्तक पसंद आएगी. सभी देशवासियों को इस अमृत महोत्सव वर्ष की हार्दिक शुभकामनाएं!

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(लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय के रामजस कॉलेज से एसोसिएट प्रोफेसर के पद से सेवानिवृत्त हैं. एवं विभिन्न पुरस्कार व सम्मानों से सम्मानित हैं. जिनमें 1994 में ‘संस्कृत शिक्षक पुरस्कार’, 1986 में ‘विद्या रत्न सम्मान’ और 1989 में उपराष्ट्रपति डा. शंकर दयाल शर्मा द्वारा ‘आचार्यरत्न देशभूषण सम्मान’ से अलंकृत. साथ ही विभिन्न सामाजिक संगठनों से जुड़े हुए हैं और देश के तमाम पत्रपत्रिकाओं में दर्जनों लेख प्रकाशित.)

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