हिंदी का विश्व और विश्व की हिंदी

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विश्व हिन्दी दिवस (10 जनवरी) पर विशेष 

प्रो. गिरीश्वर मिश्र 

वाक् या वाणी की शक्ति किसी से भी छिपी नहीं है. ऋग्वेद के दसवें मंडल के वाक सूक्त में वाक् को राष्ट्र को धारण करने और समस्त सम्पदा देने वाले देव तत्व के रूप में चित्रित करते हुए बड़े ही सुन्दर ढंग से कहा गया है : अहं राष्ट्री संगमनी वसूनाम्. यह वाक की जीवन और सृष्टि में भूमिका को रेखांकित करने वाला प्राचीनतम भारतीय संकेत है. हम सब यह देखते हैं कि दैनंदिन जीवन के क्रम में हमारे अनुभव वाचिक कोड बन कर एक ओर स्मृति के हवाले होते रहते हैं तो दूसरी ओर स्मृतियाँ नए-नए सृजन के लिए खाद-पानी देती रहती हैं . अनुभव, भाषा, स्मृति और सृजन की यह अनोखी सह-यात्रा अनवरत चलती रहती है और उसके साथ ही हमारी दुनिया भी बदलती रहती है. यह हिंदी भाषा का सौभाग्य रहा है क़ि कई सदियों से वह कोटि-कोटि भारतवासियों की अभिव्यक्ति, संचार और सृजन के लिए एक प्रमुख और सशक्त माध्यम का कार्य करती आ रही है . वह बृहत्तर समाज के जीवन में उसके दुःख-सुख, हर्ष-विषाद और राग-विराग की विभिन्न छटाओं के साथ जुड़ी रही. संवाद को सम्भव बनाते हुए हिंदी ने देश के स्वतंत्रता संग्राम में जान भरने का काम भी किया था और हर कदम पर आगे बढ़ कर सबको जोड़ती रही.

ऐतिहासिक दृष्टि से देखें तो यही पता चलता है कि हिंदी में रचे गए साहित्य का समाज के साथ समकालिक रिश्ता बना रहा और वह समाज को प्रेरित-अनुप्राणित करता रहा. यदि भक्त कवियों की वाणी जो कबीरदास, सूरदास, तुलसीदास, मीराबाई, जायसी तथा रैदास आदि द्वारा मुखरित हो कर  कठिन क्षणों में आत्मिक और नैतिक बल दे कर समाज को शक्ति दी थी तो बीसवीं सदी के आरम्भ में शुरू हुई हिंदी की पत्रकारिता भी कुछ कम तेजस्वी न थी . वह ‘स्वाधीन भारत’ का उद्घोष करते हुए अंग्रेजों की गुलामी के खिलाफ जन-जागरण का कार्य करती रही और समाज के मानस का निर्माण करती रही . इस तरह देश भक्ति, स्वराज्य और स्वतंत्र भारत की संकल्पना को गढ़ने और आम जन तक पहुँचाने में हिंदी की विशेष भूमिका थी जिसे देश के अधिकाँश नायकों ने अनुभव किया था. सन 1914 में कविवर मैथिलीशरण गुप्त की भारत भारती का प्रकाशन हुआ था.

आज सर्जनात्मक साहित्य की दृष्टि से हिंदी समृद्ध दिखती है. प्रिंट और इलेक्ट्रानिक मीडिया में हिंदी की उल्लेखनीय उपस्थिति है जो संभवतः पाठकों और दर्शकों की बड़ी संख्या के कारण है. शास्त्रीय (अकादमिक) साहित्य की दृष्टि से जरूर हिंदी की स्थिति संतोषजनक नहीं कही जा सकती क्योंकि अकादमिक दुनिया के मन में हिंदी को लेकर संशय की एक गाँठ बनी हुई है और अंग्रेजी का ही प्राबल्य बना हुआ है.

निराला जी ने 1930 में ‘प्रिय स्वतन्त्र-रव अमृत मन्त्र नव भारत में भर दे’ के गान से नए भारत की परिकाल्पना की थी. जहां स्वतंत्रता संग्राम में हिन्दी की बहुमूल्य भूमिका थी वहीं इस विराट घटना ने हिंदी साहित्य में भी संवेदना, प्रस्तुति और विषय विस्तार की दृष्टि से प्रभावित और समृद्ध किया. आज सर्जनात्मक साहित्य की दृष्टि से हिंदी समृद्ध दिखती है. प्रिंट और इलेक्ट्रानिक मीडिया में हिंदी की उल्लेखनीय उपस्थिति है जो संभवतः पाठकों और दर्शकों की बड़ी संख्या के कारण है. शास्त्रीय (अकादमिक) साहित्य की दृष्टि से जरूर हिंदी की स्थिति संतोषजनक नहीं कही जा सकती क्योंकि अकादमिक दुनिया के मन में हिंदी को लेकर संशय की एक गाँठ बनी हुई है और अंग्रेजी का ही प्राबल्य बना हुआ है.

शिक्षा के माध्यम के रूप में हिंदी की स्वीकृति और उपयोग न होने से हिंदी की सामग्री की गुणवत्ता भी नकारात्मक रूप से प्रभावित हो रही है पर उससे भी अधिक चिंता की बात यह है हिंदी की पृष्ठभूमि से आने वाले छात्र छात्राओं की प्रतिभा का विकास बाधित हो रहा है. दस बारह प्रतिशत लोगों द्वारा बोली समझी जाने वाली अंग्रेजी की बलि वेदी पर ज्ञान, प्रतिभा और योग्यता आदि की लगातार अनदेखी करते रहना किसी भी तरह से क्षम्य नहीं ठहराया जा सकता. सरकारी क्षेत्र में हिंदी को ‘राज भाषा’ घोषित करने के बावजूद उसे पूर्वप्रचलित अंग्रेजी के अनुवाद के काम के लिए सुरक्षित कर दिया गया और यह तरकीब  राज-काज में वर्ग विशेष की सामर्थ्य बनाए रखने और प्रजा को तंत्र से दूर रखने में सफल रही. भाषा भेद से मन की दूरियाँ भी बढ़ती हैं और पहचान भी बदलती है.

स्मृति और भाषा के बीच जैसे बड़ा गहरा रिश्ता है उसी तरह स्मृति हमारी अपनी पहचान से भी जुड़ी हुई है. विश्व के अनेक देशों में फैले भारत मूल के लोगों का हिन्दी से लगाव और भारतीय संस्कृति के संरक्षण में रूचि इसकी पुष्टि करती है. विदेशों के कई विश्व विद्यालय हिन्दी के अध्यापन और अनुसंधान में लगे हुए हैं. हिन्दी भाषी जन समुदाय संख्या बल को देखते हुए एक बड़े बाजार का अवसर भी दिखता है और हिन्दी के प्रसार को बल मिलता है. नागपुर में 10 से 12 जनवरी को आयोजित पहले विश्व हिन्दी सम्मलेन से हिन्दी के अंतर राष्ट्रीय स्वरूप पर चर्चा और हंडी के संबर्धन के लिए उपाय करने की कोशिश शुरू हुई. अब तक ग्यारह विश्व हिन्दी सम्मलेन आयोजित हो चुके हैं जिनमें से अधिकाँश भारत से बाहर विदेशों में हुए हैं.

हिन्दी के प्रति रूचि बढाने में इस उपक्रम ने महत्वपूर्ण भूमिका अदा की है. हिंदी को संयुक्त रात्र संघ की मान्य विश्व भाषा के रूप  में मान्यता दिलाना एक प्रमुख उद्देश्य रहा है पर अनेक कारणों से यह प्राप्त नहीं हो सका है. यह प्रगति जरूर हुई है कि राष्ट्रसंघ के ट्विटर हैंडिल पर हिन्दी में समाचार शुरू हो चुके हैं. संयुक्त राष्ट्रसंघ में अटल जी तथा  सुषमा स्वराज जी ने अपने वक्तव्य हिंदी में दिए. वर्त्तमान प्रधान मंत्री मोदी अंतरराष्ट्रीय मंचों पर प्राय: हिंदी का ही प्रयोग करते हैं यह देख भारतीयों को अच्छा लगता है. पर इन सबका सीमित परिणाम ही होता है.

यहाँ पर यह उल्लेख करना उचित होगा कि सभ्यता के स्तर पर भारतीय अस्मिता को ओझल होने से बचाने में भाषा पर ध्यान देना आवश्यक है. पहचान बदलने के लिए भाषा को बदलना एक प्रभावी तरकीब बन जाती है जो स्मृतियों को गढ़ती चलती  है. हिंदी लोक-भाषा रही पर जब सभ्रांत या अभिजात को संवाद की ज़रूरत हुई तो उनको भी इसके शरण में आने के अतिरिक्त कोई चारा नहीं होता था. यह स्थिति आज भी है.

पर शासन और शिक्षा की भाषा के रूप में ब्रिटेन के औपनिवेशिक राज के दौर में अंग्रेज़ी को भारत में कुछ इस तरह रोपा और स्थापित किया गया कि उसने देश की मानसिकता, ज्ञान के अभ्यास और संस्कृति-चर्या सब कुछ को उलट-पलट दिया. इसका परिणाम हुआ कि हिंदी और अन्य भारतीय भाषाओं के प्रयोजन की दिशा बदल गई . यह सब ऐसे किया गया कि जो कुछ भारतीय था वह न केवल अपरिचित होता गया बल्कि उसके प्रति संदेह और अविश्वास भी बड़े पैमाने पर फैलता गया. इस बदलाव को संस्थागत रूप दे कर इस तरह चिर स्थायी बना दिया गया कि वह यथार्थ की सीमा बनता गया और हमारा निजी सांस्कृतिक विवेक खोता गया . यह सब तब हुआ जब ज्ञान के देशज स्रोत प्रचुर मात्रा में मौजूद थे और उपयोगी भी थे . प्राचीन इतिहास में भारत की आर्थिक-भौतिक उन्नति होने के अकाट्य साक्ष्य कुछ ऐसा ही प्रमाणित करते हैं. यह सब देश की भाषा में हुआ था और प्राप्त ग्रंथों तथा पांडुलिपियों की प्रचुर मात्रा इसकी पुष्टि करती हैं.

यह बात स्पष्ट हो चुकी गई कि भारत के सांस्कृतिक आत्म-विश्वास को सदैव के लिए डावाँडोल करने के लिए अंग्रेजों द्वारा कई उपाय किए गए. उनके द्वारा इतिहास से छेड़छाड़ की गई, सामाजिक रचना को तनावग्रस्त बनाया गया और लगातार घोर आर्थिक शोषण किया गया. संशय और संदेह ‘प्राचीन’ का पर्याय बन गया और ‘आधुनिक’ (यानी पश्चिमी!) को निर्विवाद और विश्वस्त घोषित कर दिया गया. इसे ‘वैज्ञानिक’ (साइंटिफिक) कह कर और भारतीय को ‘वैज्ञानिकेतर’ (नान साइंटिफिक) कह कर सबको निरुत्तर क़र दिया गया. आलोचक विवेक को छोड़ वैज्ञानिक मनोभाव (साइंटिफिक टेम्पर) को आँख मूँद कर आवश्यक करार दिया गया. विज्ञान को धर्म और ईश्वर की जगह दे दी गई और अब सारे विज्ञापन ‘वैज्ञानिक’ का ( झूठा !) सहारा ले कर व्यापार में नफ़ा कमाने को बढ़ावा दे रहे हैं.

इसी क्रम में आधुनिक होना ज़रूरी माना गया जिसके लिए प्राचीन को त्यागना भी ज़रूरी हो गया. तभी विकास और उन्नति सम्भव मानी जाने लगी .इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए स्वयं को देखने-समझने के लिए एक पराई दृष्टि को वैध और विश्वसनीय बना कर भारतीयों को थमा दिया गया. देश के स्वाधीन होने के लगभग तीन चौथाई सदी बीतने पर भी उसका खेल अभी तक बदस्तूर चल रहा है. पुराने और नए का समीक्षात्मक विवेक न रखते हुए पाश्चात्य का अंधानुकरण ही आधुनिक हो गया. आधुनिकता आत्म-परिष्कार न हो कर अनुकरण हो गई. आज यूरो-अमेरिकी विचार और सिद्धांत अंतिम सत्य माने जाते हैं और उनसे पुष्टि होने की प्रबल आकांक्षा सबके मन में रहती है. उनके ज्ञान को सार्वभौमिक ही नहीं सार्वकालिक मान कर समस्त पश्चिमी अकादमिक कार्रवाई के पीछे-पीछे चलने की आदत हो चुकी है. चूंकि आत्म-निर्भर होने की राह भाषा से ही गुजरती है और हिंदी तथा अन्य भारतीय भाषाएँ औपनिवेशिक मानसिकता से उबारने और स्वायत्त होने की संभावना बढाती हैं इन भाषाओं की उपेक्षा देश के हित में नहीं है.

(लेखक शिक्षाविद् एवं पूर्व कुलपतिमहात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय वर्धा हैं.)

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