Tag: Ranikhet

उत्तराखंड के सुप्रसिद्ध पर्यटन नगर रानीखेत में अयोजित हुआ साहित्य समागम

उत्तराखंड के सुप्रसिद्ध पर्यटन नगर रानीखेत में अयोजित हुआ साहित्य समागम

अल्‍मोड़ा
सी एम पपनैं रानीखेत. छावनी परिषद रानीखेत के बहुद्देशीय सभागार में विगत सप्ताह कविजन हिताय एवं सांस्कृतिक समिति के सौजन्य से साहित्यकार डॉ दिवा भट्ट की अध्यक्षता तथा मुख्य अतिथि कमांडेंट ब्रिगेडियर कुमाऊं रेजिमेंट सेंटर संजय कुमार यादव विशिष्ट सेवा मेडल की भव्य उपस्थिति तथा दिल्ली विश्वविद्यालय सहित विदेशों में विजिटिंग प्रोफेसर रहे डॉ कर्ण सिंह चौहान, डॉ कपिलेश भोज, डॉ दिनेश कर्नाटक, डॉ शैलेय, डॉ वैभव सिंह, डॉ दिनेश कुमार, डॉ पंकज शर्मा के सानिध्य में प्रभावशाली व यादगार साहित्य समागम के अंतर्गत 'उपन्यास में युवा चिन्तन की दिशा' विषय पर परिचर्चा एवं काव्य गोष्ठी का आयोजन किया गया. साहित्य समागम का श्रीगणेश कुमाऊं रेजिमेंट सेंटर के कमांडेंट ब्रिगेडियर संजय कुमार यादव तथा देश के विभिन्न प्रदेशों से आए आमंत्रित साहित्यकारों के कर कमलों दीप प्रज्वलित कर किया गया. छावनी इंटर कॉलेज की छा...
मैं उस पहाड़ी मुस्लिम स्त्री की हवा से  मुखातिब हो रही हूं…

मैं उस पहाड़ी मुस्लिम स्त्री की हवा से  मुखातिब हो रही हूं…

संस्मरण
दुर्गाभवन स्मृतियों से नीलम पांडेय ‘नील’ जब हम किसी से दूर हों रहे होते हैं, तब हम उसकी कीमत समझने लगते हैं. कुछ ऐसा ही हो रहा है आज भी. कुछ ही पलों के बाद हम हमेशा के लिए यहां से दूर हो जाएंगे. so फिर शायद कभी नहीं मिल पाएंगे इस जगह से. कितना मुश्किल होता है ना, अपना बचपन का घर छोड़ना, तब और मुश्किल होती है, जब हम उसको हमेशा के लिए छोड़ रहे हों. कारण बहुत रहे, मैं कारण पर नहीं जाना चाहती हूं, उसका जिक्र फिर कभी करूंगी. किन्तु आज मन कह रहा है कि- बचपन मुठ्ठी भर अलविदा लेते because जाना गर लौट रहे हो, जीवन की शरहदों because में खामोशी बहुत है रोज आकर  लौटso रही थी, जो हवाएं  मेरे द्वार से मुझे but ही खटखटाकर, देखना किसी रोज गुम  हो because जाएंगी मुझे सुलाकर. मैं सबसे ऊपर वाले खेत के so मुहाने पर बैठकर सोच रही हूं, बचपन मेरे छल जो because मुझे बचपन में लगते रहे हैं और पू...
सौ साल के इस टूटते हुए ‘दुर्गाभवन’ की स्मृतियां

सौ साल के इस टूटते हुए ‘दुर्गाभवन’ की स्मृतियां

संस्मरण
हर परिवर्तन के साक्षी बने हुए हैं हिमाच्छादित हिमालय शिव स्वरूप नीलम पांडेय ‘नील’ काफी समय बाद बस से यात्रा की. because यात्रा देहरादून से रानीखेत की थी. मैदान से पहाड़ों की बसों में बजाए जाने  वाले गीत कुछ इस प्रकार होते हैं, एक उदाहरण के तौर पर जैसे देहरादून से हरिद्वार तक देशी छैल छबीले गीत, हरिद्वार से नजीबाबाद तक निरपट धार्मिक गीत, नजीबाबाद से हल्द्वानी तक 80 के दशक के रोमांटिक गीत और हल्द्वानी से रानीखेत तक सिर्फ पहाड़ी गीत. पूरी रात, मैं इन गीतों से लगभग ऊब चुकी थी because और अब पूरी रात की यात्रा के बाद बस पहुंचने वाली ही थी. पूरी रात बहुत पहले यहां रात्रि को because चौकीदार घुमा करता था. ‘जागते रहो-जागते रहो’ की आवाज सुनाई देती थी, लेकिन शायद अब ऐसा कुछ नहीं है.  मुझे लगा साढ़े पांच बजे के बाद शायद कुछ लोग सुबह की सैर पर निकलते तो होंगे, लेकिन  कोई प्राणी सड़क पर दिख...
काकड़ीघाट: स्वामी विवेकानंद, ग्वेल ज्यू और चंदन सिंह जंतवाल

काकड़ीघाट: स्वामी विवेकानंद, ग्वेल ज्यू और चंदन सिंह जंतवाल

ट्रैवलॉग
ललित फुलारा यह काकड़ीघाट का वही because पीपल वृक्ष है, जहां स्वामी विवेकानंद जी को 1890 में ज्ञान की प्राप्ति हुई थी. असल वृक्ष 2014 में ही सूख गया था और उसकी जगह इसी स्थान पर दूसरा वृक्ष लगाया गया है, जिसे देखने के लिए मैं अपने एक साथी के साथ यहां पहुंचा था. काकड़ीघाट पहुंचते ही हमें चंदन सिंह जंतवाल मिले, जिन्होंने अपनी उम्र 74 साल बताई. वह ज्ञानवृक्ष से ठीक पहले पड़ने वाली चाय की दुकान के so सामने खोली में बैठे हुए थे, जब हमने उनसे पूछा था कि विवेकानंद जी को जिस पेड़ के नीचे ज्ञान की प्राप्ति हुई थी, वह कहां है? सामने ही चबूतरा था, जहां लोग ताश और कैरम खेल रहे थे. विशालकाय पाकड़ वृक्ष को देखते ही मेरा साथी झुंझलाया 'यह तो पाकड़ है... पीपल कहां है?' काकड़ीघाट जंतवाल जी मुस्कराये because और आगे-आगे चलते हुए हमें इस वृक्ष तक ले गए. तब तक मैंने ज्ञानवृक्ष का बोर्ड नहीं पढ़ा था और उ...
आमा बीते जीवन की स्मृतियों को दोहराती होंगी

आमा बीते जीवन की स्मृतियों को दोहराती होंगी

संस्मरण, साहित्‍य-संस्कृति
नीलम पांडेय वे घुमंतु नही थे, और ना ही बंजारे ही थे। वे तो निरपट पहाड़ी थे। मोटर तो तब उधर आती-जाती ही नहीं थी। हालांकि बाद में 1920 के आसपास मोटर गाड़ी आने लगी लेकिन शुरुआत में अधिकतर जनसामान्य मोटर गाड़ी को देखकर डरते भी थे, रामनगर से रानीखेत (आने जाने) के लिए बैलगाड़ी और पैदल ही सफर करने की लंबी कठिन यात्रा को जब वे पूरा कर लेते तो वापस लौटते हुए, एक दो रात्रि चैन का पड़ाव रानीखेत में भी गुजारा करते थे। आने—जाने की इसी प्रक्रिया में पड़ाव के साथ-साथ कुछ जगह रहने के ठिकाने भी बनते गए। उनके पास मेरे लिए पढ़ने के आलावा भविष्य बनाने का अचूक उपाय भी था, जो एक लोक गीत के रूप में मुझे रटाया भी गया था "बानरे आंखी छिलूकै की राखी, बौज्यू मै बनार कैं दिया, बानर जांछ हांई फांई बौजयू मैं बानर कै दिया," मां को विश्वास हो गया था इस गीत और पारम्परिक कहानियों से मैं पांचवीं पास भी कर लूं तो ...