कौन कह रहा है फैज़ साहब नास्तिक हैं?
ललित फुलारा
फैज़ साहब की मरहूम आत्मा अगर ये सब देख रही होगी तो जरूर सोच रही होगी कि मैं जब नास्तिक था और मार्क्सवादी था तो 'अल्लाह' काहे लिख दिया। अल्लाह लिखने से ही तो सारा खेल बिगड़ा है। मुझसे कोई कह रहा था कि इस शायरी/गाने को गुनगुनाने वाले लोग बस 'नाम रहेगा अल्लाह का' इसी वाक्य पर जोर देते हैं, खूब ताली पिटते हैं, आगे के ग्यारह शब्द बोलते ही नहीं है। बोलते भी हैं तो बेहद धीमी आवाज में ताकि उनका असल अर्थ समझ में न आए।
शायर, लेखक, साहित्यकार और दार्शनिक तो होते ही बुद्धि से चालाक हैं, उनके लिए रचनात्मकता ही सबकुछ है, रचे गए शब्द। अर्थ आप अपने हिसाब से निकालिए, बुत को शासक का बुत बताइए या फिर... मंदिर की मूर्ति।
अब बताइए जब बस नाम रहेगा अल्लाह का तो हमारा ईश्वर कहां जाएंगा? उनकी बात भी सही है। क्योंकि वो भी 'बस नाम रहेगा अल्लाह का' से खफा है, उसी तरह जैसे एक कट्टर मुस्लिम म...