Tag: रेखा उप्रेती

डॉक्टर रेखा उप्रेती के यात्रा संस्मरण ‘क्षितिज पर ठिठकी सॉंझ’ का लोकार्पण

डॉक्टर रेखा उप्रेती के यात्रा संस्मरण ‘क्षितिज पर ठिठकी सॉंझ’ का लोकार्पण

साहित्यिक-हलचल
हिमांतर ब्यूरो, नई दिल्ली दिल्ली विश्वविद्यालय के इंद्रप्रस्थ कॉलेज के हिंदी विभाग में एसोसिएट प्रोफेसर डॉक्टर रेखा उप्रेती के यात्रा संस्मरण 'क्षितिज पर ठिठकी सॉंझ' का रविवार को वसुंधरा में लोकार्पण हुआ. किताब में रेखा उप्रेती ने अपने यूरोप-यात्रा के संस्मरणों को शामिल किया है. 20 दिनों की इस यात्रा के दौरान लेखिका ने जो 15 संस्मरण लिखे थे, because वो किताब में शामिल हैं. यह किताब 120 पन्नों की है, जिसे परिकल्पना प्रकाशन ने छापा है. लोकार्पण और परिचर्चा कार्यक्रम में अभिनेता और रंगकर्मी भूपेश जोशी ने रेखा उप्रेती के संस्मरणों का पाठ किया. साहित्यकार कुसुम जोशी ने किताब में शामिल यात्रा-संस्मरणों के बारे में कहा कि ये संस्मरण इतने रोचक हैं, कि पाठक भी लेखक के साथ यात्रा के पलों को जीने लगता है.  यूरोप में भी लेखिका अपना पहाड़ खोज रही होती हैं. अपने गांव और बचपन को याद कर रही होती है...
गागर में सागर भरती है ज्ञान पंत की कविता

गागर में सागर भरती है ज्ञान पंत की कविता

पुस्तक-समीक्षा
कॉलम: किताबें कुछ कहती हैं… रेखा उप्रेती ज्ञान पंत जी की फेसबुक वॉल पर सेंध लगाकर कुछ ‘कणिक’ चख लिए तो ‘टपटपाट-सा’ पड़ गया. जिज्ञासा स्वाभाविक थी, ‘किताब’ कहाँ से मिलेगी!! संकेत समझ कर ज्ञान दा ने झट ‘भिटौली’ वाले स्नेह के साथ अपने दोनों काव्य-संग्रह भिजवा दिए... ‘कणिक’ और ‘बाटुइ’... कुमाउनी में रचित इन दोनों रचनाओं से गुज़रना अपने पहाड़ को फिर से जी लेने जैसा है. ज्ञान दा के भाव-बोध की जड़ें पहाड़ के परिवेश में गहरें धँसी हैं. प्रवासी-मन की पीड़ा इन कविताओं के केंद्र में है. पहाड़ में न रह पाने की पहाड़-सी पीड़ा उन्हें रह-रह कर सालती नज़र आती है. गाँव जाकर होटल में रहने की विवशता, अपने ही ‘घर’ जाने के लिए किसी बहाने की दरकार, पहाड़ के ‘अपने घर’ की राह भूल जाने और ‘अपने ही गाँव’ में भटक जाने का पछतावा, “आपनैं/ गौं में/ पौण भयूँ”, “पहाड़ में/ नि खै सक्यूँ/ मैं/ ले” की कचोट और यह बिडम्बना भी क...
करछी में अंगार

करछी में अंगार

संस्मरण
‘बाटुइ’ लगाता है पहाड़, भाग—16 रेखा उप्रेती कुछ अजीब-सा शीर्षक है न… नहीं, यह कोई मुहावरा नहीं, एक दृश्य है जो कभी-कभी स्मृतियों की संदूकची से बाहर झाँकता है… पीतल की करछी में कोयले का अंगार ले जाती रघु की ईजा… जल्दी-जल्दी कदम बढ़ाती… अपने घर की ओर जाती ढलान पर उतर रही है, बहुत सम्हल कर… कि करछी से अंगार गिरे भी नहीं और बुझे भी नहीं. चूल्हा कैसे जलेगा वरना… तीस-चालीस साल पहले जो पहाड़ में रह चुके हैं या बचपन पहाड़ों में बिताया है, उनके लिए यह दृश्य अपरिचित नहीं होगा. चूल्हे में आग बचाकर रखना या ज़रुरत पड़ने पर दूसरे घरों से आग जलाने के लिए जलता कोयला ले जाना, उस वक़्त की ज़रुरत भी थी और सीमित संसाधनों के बीच एक ऐसी जीवन-शैली का उदाहरण भी, जहाँ मामूली से मामूली वस्तु भी ‘यूज़ एंड थ्रो’ की ‘कैटेगरी’ में नहीं थी. मुझे याद है सुबह का भोजन बन जाने के बाद अधजली लकड़ियों को बुझा कर अलग रख दिया ज...
पहाड़ का बादल

पहाड़ का बादल

संस्मरण
‘बाटुइ’ लगाता है पहाड़, भाग—13 रेखा उप्रेती “जोर का मंडान लग गया रे! जल्दी-जल्दी हिटो” संगिनियों के साथ धुर-धार से लौटती टोली के कदम तेज हो उठते. ‘मंडान’ मतलब चारों तरफ़ से बादलों का घिर आना. बौछारों की अगवानी से पूर्व आकाश में काले मेघों का चंदोवा… घसियारिनें अपनी दातुली कमर में खोस लेतीं, लकडियाँ बीनती काखियाँ गट्ठर बाँधने लगतीं, खेतों में निराई-गुड़ाई करती जेड्जा कुटव चलाना छोड़ देती… पर कितनी ही दौड़ लगा लें, घर पहुँचने तक इन सबका भीग कर फुत-फुत हो जाना तय होता. मंडान देखकर घर में भी हका-हाक शुरू… आँगन में सूखते धान, बड़ियाँ, मिर्चें उठानी हैं, टाल में से सूखी लकडियाँ उठाकर गोठ रखनी हैं, पुआल के लुटों से गट्ठर उठाकर छान में रखना है. मल भितेर के पाख में रोशनी देने के लिए बना जा’व बंद करने के लिए उसका पाथर खिसकाना है. आँगन में जहाँ-जहाँ पाख से बारिश की बंधार लगेगी, उसके नीचे बर्तन धर...
जबही महाराजा देस में आए …

जबही महाराजा देस में आए …

संस्मरण
‘बाटुइ’ लगाता है पहाड़, भाग—12 रेखा उप्रेती “बारात आ गयी !!” यह वाक्य हमारे भीतर वैसा ही उत्साह जगाता जैसे ओलंपिक्स में स्वर्ण-पदक जीतने की सूचना … उत्साह का बीज तो किसी बुआ या दीदी का ‘ब्याह ठहरते’ ही अँखुआ जाता. घर की लिपाई-पुताई, ऐपण, रंग्वाली पिछौड़, सुआल-पथाई, धुलिअर्घ की चौकी जैसे कई काज घर और गाँव की महिलाओं की हका-हाक लगाए रखते और हम बच्चों के लिए ‘कौतिक’ जैसा माहौल बनाते… हमारे हिस्से कुछ काम आते, जिनमें सबसे महत्वपूर्ण था- ओलंपिक की मशाल लेकर भागने जैसा गौरव-पूर्ण दायित्व-गाँव-भर में सबको न्यूतना… किस घर को कैसे न्यौतना है यह अच्छी तरह समझना होता. लड़की वाले की हैसियत के हिसाब से न्यौते का स्वरूप अलग-अलग होता. बड़ा गाँव था हमारा… ऐसा कम ही होता कि लड़की की शादी में पूरे गाँव को “च्युल-न्यूत” मिले. यूँ तो लड़की चाहे किसी घर की हो, उसके विदा होने तक सारा गाँव एक परिवार...