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भीमल के सामने फेल हैं बड़ी कंपनियों का शैंपू, सुनें आकांक्षा की जुबानी

भीमल के सामने फेल हैं बड़ी कंपनियों का शैंपू, सुनें आकांक्षा की जुबानी

उत्तराखंड हलचल
देहरादून: अगर आप भी बड़ी-बड़ी कंपनियों के शैंपू यूज करते हैं, तो इस लड़की से सुन लीजिए और तय कीजिए कि क्या आप सही कर रहे हैं। इनका नाम आकांक्षा है और दिल्ली में फार्मा सेक्टर में नौकरी करती हैं। इनको इनकी दादी और मां की कहानियों ने अपने पहाड़ी शैंपू भीमल के बारे में बताया। भीमल का शैंपू आज बाजार में अलग-अलग कंपनियों का मौजूद है। लेकिन, इनको दिशा धियाणी में मिलने वाला शैंपू पसंद है। आकांक्षा के अनुसार दिल्ली में अन्य तरह के शैंपू की झाग भी नहीं बनती है। केमिकल के कारण बाल खराब हो रहे थे। उनको पता चला कि भीमल का शैंपू देहरादून में बालावाला स्थित दिशा धियाणी में मिलता है। वो यहां छुट्टियों में अपने भाई के पास आई थी। पहली बार शैंपू यूज किया तो उनको काफी लाभ मिला। उनका कहना है कि दिल्ली में उनकी दोस्तों ने उनसे उसके बालों के बारे में पूछा, तो उन्होंने भीमल के शैंपू के बारे में बताया। उनकी दोस्तों...
उत्तराखंड का परंपरागत रेशा शिल्प

उत्तराखंड का परंपरागत रेशा शिल्प

साहित्‍य-संस्कृति
चन्द्रशेखर तिवारी प्राचीन समय में समस्त उत्तराखण्ड में परम्परागत तौर पर विभिन्न पादप प्रजातियों के because तनों से प्राप्त रेशे से मोटे कपड़े अथवा खेती-बाड़ी व पशुपालन में उपयोग की जाने वाली सामग्रियों का निर्माण किया जाता था. पहाड़ में आज से आठ-दस दशक पूर्व भी स्थानीय संसाधनों से कपड़ा बुनने का कार्य होता था. ट्रेल (1928) के अनुसार उस काल में पहाड़ के कुछ काश्तकार लोग कुछ जगहों पर कपास की भी खेती किया करते थे.ज्योतिष कुमाऊं में कपास की बौनी किस्म से कपड़ा बुना जाता था. कपड़ा बुनने के इस काम को तब शिल्पकारों की उपजाति कोली किया करती थी. हाथ से बुने इस कपड़े को 'घर बुण’ के नाम से जाना जाता था. टिहरी रियासत में कपड़ा बुनने वाले बुनकरों को because पुम्मी कहा जाता था. भारत की जनगणना 1931, भाग-1, रिपोर्ट 1933 में इसका जिक्र आया है. उस समय यहां कुमाऊं के कुथलिया बोरा व दानपुर के बुनकर तथा गढ़वाल क...