Tag: पिथौरागढ़

गुड़ की भेलि में लिपटे अखबार का एक दिन

गुड़ की भेलि में लिपटे अखबार का एक दिन

संस्मरण
मेरे हिस्से और पहाड़ के किस्से भाग—44 प्रकाश उप्रेती आज किस्सा- “ईजा और अखबार” का.  ईजा अपने जमाने की पाँच क्लास पढ़ी हुई हैं. वह भी बिना एक वर्ष नागा किए. जब भी पढ़ाई-लिखाई की बात आती है तो ईजा 'अपने जमाने' because वाली बात को दोहरा ही देती हैं. हम भी कई बार गुणा-भाग और जोड़-घटाने में ईजा से भिड़ पड़ते थे लेकिन ईजा चूल्हे से “कोय्ली” (कोयला) निकाल कर जमीन में लिख कर जोड़-घटा, गुणा-भाग तुरंत कर लेती थीं. अक्सर सही करने के बाद ईजा की खुशी किसी अबोध शिशु सी होती थी. हम कहते थे- “क्या बात ईजा, एकदम सही किया है”. ईजा फिर अपने जमाने की पढ़ाई वाली बात दोहरा देती थीं. ज्योतिष तब अखबार से कोई लेना-देना नहीं था. अक्सर “गुड़ की भेली” अखबार में लपेट कर आती थी. इतना ही अखबार की उपयोगिता ईजा समझती थी लेकिन जब भी शाम को केदार के बाज़ार because जाते थे तो देखते थे कि कुछ लोग चाय पी रहे होते, कुछ हुक्का ...
उत्‍तराखंड में कीवी की बागवानी…

उत्‍तराखंड में कीवी की बागवानी…

खेती-बाड़ी
डॉ. राजेन्द्र कुकसाल कीवी फल (चायनीज गूजबेरी) का उत्पति स्थान चीन है, पिछले कुछ दशकों से ये फल विश्वभर में अत्यन्त लोकप्रिय हो गया है. न्यूजीलैण्ड इस फल के लिए प्रसिद्ध है, क्योंकि इस देश ने कीवी फल को व्यवसायिक रूप दिया इसका उत्पादन व निर्यात न्यूजीलैंड में बहुत अधिक है. कीवी फल भारत में 1960 में सर्वप्रथम बंगलौर में लगाया गया था लेकिन बंगलौर की जलवायु में प्रर्याप्त शीतकाल (चिलिंग) न मिल पाने के कारण सफलता नहीं मिली. वर्ष 1963 में राष्ट्रीय पादप अनुवांशिक संसाधन ब्यूरो, क्षेत्रीय संस्थान के शिमला स्थित केन्द्र फागली में कीवी की सात प्रजातियों के पौधे आयातित कर लगाये गये जहां पर कीवी के इन पौधों से सफल उत्पादन प्राप्त किया गया. उत्तराखंड में वर्ष 1984-85 में भारत इटली फल विकास परियोजना के तहत राजकीय उद्यान मगरा टेहरी गढ़वाल में इटली के वैज्ञानिकों की देख.रेख में इटली से आयतित कीवी क...
‘वड’ झगडै जड़

‘वड’ झगडै जड़

संस्मरण
मेरे हिस्से और पहाड़ के किस्से भाग—43 प्रकाश उप्रेती आज बात “वड” की. एक सामान्य सा पत्थर जब दो खेतों की सीमा निर्धारित करता है तो विशिष्ट हो जाता है. 'सीमा' का पत्थर हर भूगोल में खास होता है. ईजा तो पहले से कहती थीं कि-because “वड झगडै जड़” (वड झगड़े का कारण). 'वड' उस पत्थर को कहते हैं जो हमारे यहाँ दो अलग-अलग लोगों के खेतों की सीमा तय करता है. सीमा विवाद हर जगह है लेकिन अपने यहाँ 'वड' विवाद होता है. पहाड़ में वाद-विवाद और 'घता-मघता' (देवता को साक्षी मानकर किसी का बुरा चाहना) का एक कारण 'वड' भी होता था. ईजा के जीवन में भी वड का पत्थर किसी न किसी रूप में दख़ल देता था . ज्योतिष जब भी परिवार में भाई लोग “न्यार” (भाइयों के बीच बंटवारा) होते थे तो जमीन के बंटवारे में, वड से ही तय होता था कि इधर को तेरा, उधर को मेरा. 'पंच', खेत को नापकर बीच because में वड रख देते थे. यहीं से तय हो जाता था...
पहाड़ों में ‘छन’ की अपनी दुनिया

पहाड़ों में ‘छन’ की अपनी दुनिया

संस्मरण
मेरे हिस्से और पहाड़ के किस्से भाग—42 प्रकाश उप्रेती आज बात "छन" की. छन मतलब गाय-भैंस का घर. छन के बिना घर नहीं और घर के बिना छन नहीं.  पहाड़ में घर बनाने के साथ ही छन बनाने की भी हसरत होती थी. एक अदत छन की इच्छा हर कोई पाले रहता है. ईजा को घर से ज्यादा छन ही अच्छा लगता है. उन्हें बैठना भी हो तो छन के पास जाकर बैठती हैं. छन की पूरी संरचना ही विशिष्ट थी. ईजा के लिए छन एक दुनिया थी जिसमें गाय-भैंस से लेकर 'किल' (गाय-भैंस बांधने वाला), 'ज्योड़' (रस्सी), 'अड़ी' (दरवाजे और बाउंड्री पर लगाने वाली लकड़ी) 'मोअ' (गोबर), 'कुटो'(कुदाल), 'दाथुल' (दरांती),  'डाल' (डलिया), 'फॉट' (घास लाने वाला),  'लठ' (लाठी), 'सिकोड़' (पतली छड़ी) और 'घा' (घास) आदि थे. इन्हीं में ईजा खुश रहती थीं. हम कम ही छनपन जाते थे लेकिन ईजा कभी-कुछ, कभी-कुछ के लिए चक्कर लगाती ही रहती थीं. हमें 'किल घेंटने' के लिए जरूर कहती थीं- "...
जीवन का अँधेरा दूर करने वाला ‘लम्फू’

जीवन का अँधेरा दूर करने वाला ‘लम्फू’

संस्मरण
मेरे हिस्से और पहाड़ के किस्से भाग—36 प्रकाश उप्रेती आज बात रोशनी के उस सीमित घेरे की जहां से अंधेरा छटा. जीवन की पहली किताब उस रोशनी के नाम थी जिसे हम 'लम्फू' कहते थे. 'लम्फू' मतलब लैम्प. वह आज के जैसा लैम्प नहीं था. उसकी रोशनी की अदायगी निराली थी. पढ़ाई से लेकर लड़ाई तक लम्फू हमसफर था. ईजा और लम्फू दोनों रोशनी देते रहे लेकिन उनके इर्द-गिर्द अंधेरा बड़ा घेरा बनाता गया. दिन ढलते ही लम्फू में मिट्टी का तेल डालना, उसकी बत्ती   को ऊपर करना, रोज का नियम सा था. ईजा जब तक 'छन' (गाय-भैंस बांधने की जगह) से आती हम 'गोठ'(घर का नीचे का हिस्सा), 'भतेर' (घर का ऊपर का हिस्सा) में लम्फू जला कर रख देते थे. लम्फू रखने की जगह भी नियत थी. भतेर में वह स्थान 'गन्या' (दीवार का कुछ हिस्सा बाहर को निकला और ऊपर से थोड़ा समतल) होता था. वहाँ से पूरे भतेर में रोशनी पहुँच जाती थी. गोठ में चूल्हे के सामने की दीवार...
बादल फटने की त्रासदी से कब तक संत्रस्त रहेगा उत्तराखंड?

बादल फटने की त्रासदी से कब तक संत्रस्त रहेगा उत्तराखंड?

उत्तराखंड हलचल
डॉ. मोहन चन्द तिवारी उत्तराखंड इन दिनों पिछले सालों की तरह लगातार बादल फटने और भारी बारिश की वजह से मुसीबत के दौर से गुजर रहा है.हाल ही में 20 जुलाई को पिथौरागढ़ जिले के बंगापानी सब डिवीजन में बादल फटने से 5 लोगों की मौत हो गई, कई घर जमींदोज हो गए और मलबे की चपेट में आने की वजह से 11 लोगों के बह जाने की खबर है.नदियां उफान पर हैं.इससे पहले 18 जुलाई को भी पिथौरागढ़ जिले में बादल फटने की दर्दनाक घटना हुई है.पहाड़ से अचानक आए जल सैलाब से कई घर दब गए,पांच घर बह गए और तीस घर खतरे की स्थिति में हैं.गोरी नदी में जलस्तर बढ़ने से सबसे ज्यादा नुकसान मुनस्यारी में हुआ.वहां एक पुल पानी में समा गया. आखिर ये बादल कैसे फटते हैं? ये उत्तराखंड के इलाकों में ही क्यों फटते हैं? बादल फटने का मौसम वैज्ञानिक मतलब क्या है? इन तमाम सवालों पर मैं आगे विस्तार से चर्चा करुंगा. लेकिन पहले यह बताना चाहुंगा कि उत्तर...
बहुत ही लोकप्रिय थी बेरीनाग की चाय!

बहुत ही लोकप्रिय थी बेरीनाग की चाय!

खेती-बाड़ी
‘मालदार’ दान सिंह बिष्ट प्रकाश चन्द्र पुनेठा जिला पिथौरागढ़ के पूर्व दिशा में 36 किलोमीटर दूर काली नदी के किनारे झूलाघाट नाम का कस्बा है. काली नदी हमारे देश भारत और नेपाल के मध्य अंतर्राष्ट्रीय सीमा रेखा का कार्य करती है. काली नदी के किनारे हमारे कस्बे को झूलाघाट कहते है. और काली नदी के पार नेपाल के कस्बे को जूलाघाट कहा जाता है. हमारे जिले पिथौरागढ़ के झूलाघाट कस्बे में हमारे देश की स्वतंत्रता से पूर्व, क्वीतड़ गाँव निवासी देव सिंह बिष्ट एक छोटी सी दुकान में घी का व्यवसाय करते थे. झूलाघाट में घी व्यवसाय करने से पूर्व, देव सिंह बिष्ट के पूर्वज नेपाल के जिला बैतड़ी के निवासी थे. बाद में नेपाल के जिला बैतड़ी से आकर पिथौरागढ़ के क्वीतड़ गाँव में बस गए थे. सन् 1906 में देव सिंह के घर क्वीतड़ में उनके पुत्र दान सिंह का जन्म हुआ था. म्यांमार से वापस पिथौरागढ़ आने के बाद दान सिंह अपने पिता के ...
‘प्यारी दीदी, अपने गांव फिर आना’

‘प्यारी दीदी, अपने गांव फिर आना’

उत्तराखंड हलचल
गंगोत्री गर्ब्याल डॉ. अरुण कुकसाल ‘‘प्रसिद्ध इतिहासविद् डॉ. शिव प्रसाद डबराल ने ‘उत्तराखंड के भोटांतिक’ पुस्तक में लिखा है कि यदि प्रत्येक शौका अपने संघर्षशील, व्यापारिक और घुमक्कड़ी जीवन की मात्र एक महत्वपूर्ण घटना भी अपने गमग्या (पशु) की पीठ पर लिख कर छोड़ देता तो इससे जो साहित्य विकसित होता वह साहस, संयम, संघर्ष और सफलता की दृष्टि से पूरे विश्व में अद्धितीय होता’’ (‘यादें’ किताब की भूमिका में- डॉ. आर.एस.टोलिया) ‘गाना’ (गंगोत्री गर्ब्याल) ने अपने गांव गर्ब्याग की स्कूल से कक्षा 4 पास किया है. गांव क्या पूरे इलाके भर में दर्जा 4 से ऊपर कोई स्कूल नहीं है. उसकी जिद् है कि वह आगे की पढ़ाई के लिए अपनी अध्यापिका दीदियों रन्दा और येगा के पास अल्मोड़ा जायेगी. गर्ब्याग से अल्मोड़ा खतरनाक उतराई-चढ़ाई, जंगल-जानवर, नदी-नालों को पार करते हुए 150 किमी. से भी ज्यादा पैदल दूरी पर है. मां-पिता समझाते...
दो देशों की साझा प्रतिनिधि थीं कबूतरी देवी

दो देशों की साझा प्रतिनिधि थीं कबूतरी देवी

संस्मरण
पुण्यतिथि पर (7 जुलाई) विशेष हेम पन्त नेपाल-भारत की सीमा के पास लगभग 1945 में पैदा हुई कबूतरी दी को संगीत की शिक्षा पुश्तैनी रूप में हस्तांतरित हुई. परम्परागत लोकसंगीत को उनके पुरखे अगली पीढ़ियों को सौंपते हुए आगे बढ़ाते गए. शादी के बाद कबूतरी देवी अपने ससुराल पिथौरागढ़ जिले के दूरस्थ गांव क्वीतड़ (ब्लॉक मूनाकोट) आईं. उनके पति दीवानी राम सामाजिक रूप से सक्रिय थे और अपने इलाके में 'नेताजी' के नाम से जाने जाते थे. नेताजी ने अपनी निरक्षर पत्नी की प्रतिभा को निखारने और उन्हें मंच पर ले जाने का अनूठा काम किया. आज भी चूल्हे-चौके और खेती-बाड़ी के काम में उलझकर पहाड़ की न जाने कितनी महिलाओं की प्रतिभाएं दम तोड़ रही होंगी. लेकिन दीवानी राम जी निश्चय ही प्रगतिशील विचारधारा के मनुष्य रहे होंगे, जिन्होंने अपनी 70 के दशक में अपनी पत्नी में संगीत की रुचि को न केवल बढ़ावा दिया बल्कि उनको खुद लेकर आकाशवाण...
पप्पू कार्की: सुरीली आवाज का जादूगर

पप्पू कार्की: सुरीली आवाज का जादूगर

संस्मरण
चारु तिवारी हम लोग उन दिनों राजधानी गैरसैंण आंदोलन के लिये जन संपर्क करने पहाड़ के हर हिस्से में जा रहे थे. हमारी एक महत्वपूर्ण बैठक हल्द्वानी में थी. बहुत सारे साथी जुटे. कुमाऊं क्षेत्र के तो थे ही गढ़वाल के दूरस्थ क्षेत्रों से भी कई साथी आये थे. हमारे हल्द्वानी के साथी सीए सरोज आनंद जोशी ने कहा कि बैठक शुरू होने से पहले कुछ गीत गा लेंगे. हम अपने कार्यक्रमों को जनगीतों से ही शुरू भी करते हैं. उन्होंने कहा कि मैं कुछ अच्छे गाने वालों से बात करता हूं. बैठक शुरू होने से पहले हारमोनियम के साथ गीत बजा- ‘पहाडा ठंडो पांणी, सुण कसि मीठी वाणी छोड़न नी लागनी... हाय... छोड़न नी लागनी.’ वह पूरी तरह गीत में डूब कर. लय, सुर, मिठास और भाव-भंगिमा के साथ गाया गीत आज भी स्मृतियों में ज्यों का त्यों है. लगता है कहीं आसपास गीत गा रहा है पप्पू. उसमें शालीनता प्रकृति प्रदत्त थी. बहुत कोमल और बहुत उन्...