Tag: गढ़वाली भाषा

दृढ़ इच्छा शक्ति से मिला मुकाम : महेशा नन्द

दृढ़ इच्छा शक्ति से मिला मुकाम : महेशा नन्द

पुस्तक-समीक्षा
डॉ. अरुण कुकसाल ‘गांव में डड्वार (अनाज मांगने की कटु प्रथा) मांगने गई मेरी मां जब घर वापस आई तो उसकी आखें आसूओं से ड़बडबाई हुई और हाथ खाली थे. मैं समझ गया कि आज भी निपट 'मरसा का झोल' ही सपोड़ना पड़ेगा.... गांव में शिल्पकार-सर्वण सभी गरीब थे इसलिए गरीबी नहीं सामाजिक भेदभाव मेरे मन-मस्तिष्क को परेशान करते थे.... मैं समझ चुका था कि अच्छी पढ़ाई हासिल करके ही इस सामाजिक अपमान को सम्मान में बदला जा सकता है. पर उस काल में भरपेट भोजन नसीब नहीं था तब अच्छी पढ़ाई की मैं कल्पना ही कर सकता था. पर मैंने अपना मन दृड किया और संकल्प लिया कि नियमित पढ़ाई न सही टुकड़े-टुकड़े में उच्च शिक्षा हासिल करूंगा. मुझे खुशी है कि यह मैं कर पाया. आज मैं शिक्षक के रूप में समाज के सबसे सम्मानित पेशे में हूं..... पर जीवन में भोगा गया सच कहां पीछा छोड़ता है. अतीत में मिली सामाजिक ठ्साक वर्तमान में भी उतनी ही चुभती है. तब मे...
अपनी संस्कृति से अनजान महानगरीय युवा पीढ़ी

अपनी संस्कृति से अनजान महानगरीय युवा पीढ़ी

समसामयिक
अशोक जोशी पिछले कुछ सालों से मैं उत्तराखंड के बारे में अध्ययन कर रहा हूं और जब भी अपने पहाड़ों के तीज-त्योहारों, मेलों, मंदिरों, जनजातियों, घाटियों, बुग्यालो, वेशभूषाओं, मातृभाषाओं, लोकगीतों, लोकनृत्यों, धार्मिक यात्राओं, चोटियों, पहाड़ी फलों, खाद्यान्नों, रीति-रिवाजों के बारे में पढ़ता हूं तो खुद को गौरवान्वित महसूस करता हूं कि मैंने देवभूमि उत्तराखंड के गढ़देश गढ़वाल में जन्म लिया है. शिक्षा, स्वास्थ्य, रोजगार जैसे संसाधनों के अभाव में हमारे लोग रोजी—रोजी की तलाश में महानागरों की ओर पलायन किया है. समय के साथ-साथ पहाड़ों से पलायन इस कदर होने लगा कि गांव—गांव के खाली होने लगे। हमारे पहाड़ की समृद्ध मातृ भाषा (गढ़वाली—कुमाऊंनी), सहयोगात्मक लोक परंपराएं, पहाड़ी भोज्य पदार्थ (आलू, मूली की थींचवाणी, गहत का फाणू, भट की भट्टवाणी आदि) धार्मिक क्रियाकलाप (रामलीला, पांडवलीला, मंदिरों में नव...
पहाड़ की संवेदनाओं के कवि कन्हैयालाल डंडरियाल

पहाड़ की संवेदनाओं के कवि कन्हैयालाल डंडरियाल

संस्मरण
पुण्यतिथि (2 जून) पर विशेष चारु तिवारी  हमारे कुछ साथी उन दिनों एक अखबार निकाल रहे थे. दिनेश जोशी के संपादन में लक्ष्मीनगर से ‘शैल-स्वर’ नाम से पाक्षिक अखबार निकल रहा था. मैं भी उसमें सहयोग करता था. बल्कि, संपादक के रूप में मेरा ही नाम जाता था. यह 2004 की बात है. हमारे मित्र शिवचरण मुंडेपी कर्इ लोगों से परिचय कराते थे. उन्होंने मेरा परिचय एक ऐसे व्यक्ति से कराया जो गढ़वाली भाषा का चलता-फिरता ज्ञानकोश थे. उनका नाम था- नत्थी प्रसाद सुयाल. सुयाल जी का गढ़वाली भाषा के प्रति समर्पण और श्रद्धा देखने लायक थी. उन्होंने गढ़वाली भाषा के प्रचार-प्रसार के लिये बहुत काम किया. उन दिनों उन्होंने डंडरियाल जी के कविता संग्रह ‘अंज्वाल’ को बड़े मनोयोग से नये कलेवर में प्रकाशित किया था. यह संग्रह भी उन्होंने मुझे दिया. उनकी असमय निधन हो गया था. उन्हें विनम्र श्रद्धांजलि देते हुये कृतज्ञता प्रकट करता ह...