Tag: इजा

ईज़ा शब्द अभिव्यक्ति की सीमा  से परे अनुभूति का रिश्ता  है  

ईज़ा शब्द अभिव्यक्ति की सीमा  से परे अनुभूति का रिश्ता  है  

आधी आबादी
भुवन चंद्र पंत ईजा के संबोधन में जो लोकजीवन की सौंधी महक है, उसके समकक्ष माँ, मम्मी या मॉम में रिश्तों के तासीर की वह गर्माहट कहां? ईजा शब्द के संबोधन में एक ऐसी ग्रामीण because महिला की छवि स्वतः आँखों  के सम्मुख उभरकर आती है, जो त्याग की साक्षात् प्रतिमूर्ति है, जिसमें आत्मसुख का परित्याग कर खुद को परिवार के लिए समर्पित होने का त्याग एवं बलिदान है, बच्चों की परवरिश के लिए समयाभाव के बावजूद उनकी खुशियों के लिए कोई कसर न छोड़ने वाली ईजा का कोई सानी नहीं. हमारी थोड़ा बच्चों की शरारत पर because मीठी झि़ड़की देने और उसी क्षण शिबौऽऽ कहकर उसके सर पर हाथ फिराने और मुंह मलासने वाली ईजा, जंगल से लौटकर झटपट बिना पानी की घूँट पीये बच्चे को अपने दूध पर लगाने वाली ईजा, पीठ पर बच्चे को बांधकर खेतों में निराई-गुड़ाई करने वाली ईजा, धोती से सिर बांधकर आंगन में ओखल कूटती ईजा, सुबह सबेरे गागर सिर प...
अपेक्षायें

अपेक्षायें

किस्से-कहानियां
लघु कथा डॉ. कुसुम जोशी  "ब्वारी मत जाया करना रात सांझ उस पेड़ के तले से... अपना तो टक्क से becauseरस्सी में लटकी और चली गई, पर मेरे लिये और केवल' के लिये जिन्दगी भर का श्राप छोड़ गई. श्राप तीन साल से एक रात भी हम मां बेटे चैन से नही सोये... but आंखें बंद होने को हों तो सामने खड़ी हो जाय... कसती है  "देखती हूं कैसे लाती हो दूसरे खानदान से ब्वारी...". अब ले तो आई हूं तुझे,  अपना और केवल का ध्यान रखना…. तारी ने सास धर्म का पालन करते हुये बहू को आगाह किया. “किसे पता… क्या दिमाग फिरा उसका… कुछ लोगों को सुख नही सहा जाता है ना, सोलह साल हो गये थे ब्याह के… गरभ से एक पत्थर तक न पड़ा… केवल ने सारे वैध… हकीम… शहर के बड़े डाक्टर तक एक कर दिये… बांझ थी वो.., फिर भी सबने दिल में पत्थर रख लिया था” सास कांप उठी थी चन्दा सास की बात सुन कर, soधीरे से बोली "ऐसा क्यों किया बड़ी ने"? "किसे पता...
“इजा मैंले नौणि निकाई, निखाई”

“इजा मैंले नौणि निकाई, निखाई”

लोक पर्व-त्योहार
घृत संक्रान्ति 16 अगस्त पर विशेष डॉ. मोहन चंद तिवारी ‘घृत संक्रान्ति’ के अवसर पर समस्त देशवासियों और खास तौर से उत्तराखण्ड वासियों को गंभीरता से विचार करना चाहिए कि कृषिमूलक हरित क्रान्ति से पलायन करके आधुनिक औद्योगिक क्रान्ति के लिए की गई दौड़ ने हमें इस योग्य तो बना दिया है कि हम पहाड़ों की देवभूमि में देशी और विलायती शराब की नदियां घर घर और गांव गांव में बहाने में समर्थ हो गए हैं पर ये देश का कैसा दुर्भाग्य है कि हमारे देश के नौनिहालों को शुद्घ घी की बात तो छोड़ ही दें गाय और भैंस का ताजा और शुद्ध दूध भी नसीब नहीं है. संक्रान्ति के दिन उत्तराखण्ड के कुमाऊं मंडल में प्रतिवर्ष  ‘घृत संक्रान्ति’ का लोकपर्व मनाया जाता है.  इस पर्व को अलग अलग स्थानों में ‘सिंह संक्रान्ति’, 'घ्यू संग्यान', अथवा 'ओलगिया' के नाम से भी जाना जाता है. मूलतः यह वर्षा ऋतु (चौमास) में मनाया जाने वाला ऋतुपर्...