“इजा मैंले नौणि निकाई, निखाई”

घृत संक्रान्ति 16 अगस्त पर विशेष

  • डॉ. मोहन चंद तिवारी

‘घृत संक्रान्ति’ के अवसर पर समस्त देशवासियों और खास तौर से उत्तराखण्ड वासियों को गंभीरता से विचार करना चाहिए कि कृषिमूलक हरित क्रान्ति से पलायन करके आधुनिक औद्योगिक क्रान्ति के लिए की गई दौड़ ने हमें इस योग्य तो बना दिया है कि हम पहाड़ों की देवभूमि में देशी और विलायती शराब की नदियां घर घर और गांव गांव में बहाने में समर्थ हो गए हैं पर ये देश का कैसा दुर्भाग्य है कि हमारे देश के नौनिहालों को शुद्घ घी की बात तो छोड़ ही दें गाय और भैंस का ताजा और शुद्ध दूध भी नसीब नहीं है.

संक्रान्ति के दिन उत्तराखण्ड के कुमाऊं मंडल में प्रतिवर्ष  ‘घृत संक्रान्ति’ का लोकपर्व मनाया जाता है.  इस पर्व को अलग अलग स्थानों में ‘सिंह संक्रान्ति’, ‘घ्यू संग्यान’, अथवा ‘ओलगिया’ के नाम से भी जाना जाता है. मूलतः यह वर्षा ऋतु (चौमास) में मनाया जाने वाला ऋतुपर्व है, जब खेतीबाडी़ से जुड़े पशुपालक किसानों के घरों में दूध दही (ढिनाई) की बहार होती है.

16 अगस्त,भाद्रपद मास की संक्रान्ति के दिन उत्तराखण्ड के कुमाऊं मंडल में प्रतिवर्ष  ‘घृत संक्रान्ति’ का लोकपर्व मनाया जाता है.  इस पर्व को अलग अलग स्थानों में ‘सिंह संक्रान्ति’, ‘घ्यू संग्यान’, अथवा ‘ओलगिया’ के नाम से भी जाना जाता है. मूलतः यह वर्षा ऋतु (चौमास) में मनाया जाने वाला ऋतुपर्व है, जब खेतीबाडी़ से जुड़े पशुपालक किसानों के घरों में दूध दही (ढिनाई) की बहार होती है. ताजी ताजी निकाली गई नौणि तथा घी मक्खन की खुशबु से चारों तरफ का वातावरण महका होता है. गांवों में घर घर की महिलाएं इस घी संक्रान्ति के दिन अपने बच्चों के मुख और सिर में ताज़ा मक्खन मलती हैं और उनके स्वस्थ व दीर्घजीवी होने की कामना करती हैं.

कुमाऊं का कृषक वर्ग इस पर्व पर वर्षा के दिनों में होने वाले खाद्य पदार्थ-गाबे (अरबी के पत्ते) भुट्टे, दही,घी, मक्खन आदि की ‘ओलग‘ सबसे पहले ग्राम देवता को चढ़ाता है और उसके बाद ही इन्हें अपने उपयोग में लाता है. इसलिए इस पर्व को ‘ओलगिया’ संक्रान्ति भी कहते हैं. मंदिरों की देवमूर्तियों पर गाय के शुद्ध घी का टीका लगाया जाता है. लोग अपने मस्तक, हृदय स्थान, नाभि और घुटनों पर भी इस दिन शुद्ध घी को मलते हैं ताकि उनका तन मन और मस्तिष्क भी शुद्ध घी की तरह स्निग्ध‚ निर्मल, हृष्ट-पुष्ट और ओजस्वी हो. कुमाऊं के इलाके में इस दिन मक्खन अथवा घी के साथ बेडू़ रोटी (उड़द की दाल की पिट्ठी भरी रोटी) खाने का रिवाज है. लोकमान्यता है कि इस दिन घी न खाने वाले व्यक्ति को दूसरे जन्म में गनेल (घोंघे) की योनि प्राप्त होती है.

‘घ्यू संग्यान’ कुमाऊँ में समाज के विभिन्न वर्गों खेती और पशुपालन से जुड़े लोगों, शिल्प और दस्तकारी जुड़े व्यवसायियों,गैर काश्तकारों तथा व्यापारियों को भी आपस में जोड़ने वाला सामाजिक पर्व था इस पर्व में समाज के हर वर्ग तथा राजदरबार को विशेष महत्त्व और सम्मान देने का प्रेरणादायी भाव भी स्पष्टतया नजर आता था.

जहां तक इस पर्व का प्राचीन कालीन इतिहास है,चन्द शासकों के काल में यहां के पशुपालक किसानों के द्वारा राज्य का   शासन चलाने वाले अधिकारियों को विशेष भेंट ‘ओलग’ दी जाती थी. जिन घरों में घी दूध का अभाव होता था तो ऐसे नाते रिश्तेदारों व पण्डित, पुरोहितों को भी ‘ओलग‘ देने का रिवाज था.

‘घ्यू संग्यान’ कुमाऊँ में समाज के विभिन्न वर्गों खेती और पशुपालन से जुड़े लोगों, शिल्प और दस्तकारी जुड़े व्यवसायियों,गैर काश्तकारों तथा व्यापारियों को भी आपस में जोड़ने वाला सामाजिक पर्व था इस पर्व में समाज के हर वर्ग तथा राजदरबार को विशेष महत्त्व और सम्मान देने का प्रेरणादायी भाव भी स्पष्टतया नजर आता था.

कुमाऊँ राजशाही के अंत तथा अंग्रेजों के अधिकार के बाद धीरे-धीरे ओग या भेंट देने की पुरानी प्रथा उस रूप में तो समाप्त हो गई, लेकिन ओलगिया त्यौहार के रूप में यह अभी भी मनाया जा रहा है. इस परम्परा में आज भी नयी बरसाती उपजों जैसे कद्दू, खीरा, कच्चे भुट्टे, तुरई आदि को स्थानीय लोक देवता या घर के देव स्थान (द्याप्तक थान) में अर्पित किया जाता है और उसके उपरान्त अपने उपभोग के लिए प्रयोग करना शुरू किया जाता है.

कई स्थानों पर घृत संक्रान्ति के दिन मेले भी जुड़ते हैं.पाली पछाऊं में नैथणा देवी के मंदिर के प्रांगण में इस दिन आज भी विशाल मेला लगता है.15 अगस्त की तारीख के आसपास आने के कारण कई संगठन घृत संक्रान्ति के दिन स्वतन्त्रता दिवस के उपलक्ष्य में ‘स्वराज्य’ प्राप्ति की वर्षगांठ भी मनाते हैं.

उत्तराखंड का हरेला पर्व लोकसंस्कृति को हरित क्रांति से जोड़ने वाले आर्य किसानों का महत्त्वपूर्ण त्योहार था.इसी प्रकार ‘घृत संक्रान्ति’ भी पशु पालक किसानों के दुग्ध पदार्थों की समृद्धि का पर्व है. दरअसल, उत्तराखंड में कृषि परक त्योहारों की जड़ें लोक संस्कृति के धरातल पर दूब के घास की जड़ों की तरह इतनी गहरी जमी हुईं हैं कि उतरायणी हो या हरेला, या फिर घी संक्रांति, सभी पर्व जब भी आते हैं तो चारों ओर हरियाली, खुशहाली तथा घृत के स्निग्धतापूर्ण सुवास से निराशामय वातावरण को भी हर्ष तथा उमंगों से तरोताजा कर देते हैं.

उत्तराखंड की लोकसंस्कृति अपने कृषि परक त्योहारों के लिए प्रसिद्ध रही है. उत्तराखंड का हरेला पर्व लोकसंस्कृति को हरित क्रांति से जोड़ने वाले आर्य किसानों का महत्त्वपूर्ण त्योहार था.इसी प्रकार ‘घृत संक्रान्ति’ भी पशु पालक किसानों के दुग्ध पदार्थों की समृद्धि का पर्व है. दरअसल, उत्तराखंड में कृषि परक त्योहारों की जड़ें लोक संस्कृति के धरातल पर दूब के घास की जड़ों की तरह इतनी गहरी जमी हुईं हैं कि उतरायणी हो या हरेला, या फिर घी संक्रांति, सभी पर्व जब भी आते हैं तो चारों ओर हरियाली, खुशहाली तथा घृत के स्निग्धतापूर्ण सुवास से निराशामय वातावरण को भी हर्ष तथा उमंगों से तरोताजा कर देते हैं. शायद यही कारण है कि युग की विषम परिस्थतियों में भी हम त्यौहार मनाना कभी नहीं भूलते और अतीत की सुनहरी यादों से जुड़े  गीत गाना और लिखना भी नहीं भूलते ताकि हमारी परंपराएं बची रहें और इस लोक संस्कृति का सिलसिला सदा चलता रहे.

‘घृत संक्रान्ति’ के अवसर पर माताओं के द्वारा अपने बच्चों के मुख और माथे पर ताज़ा मक्खन मलने की बात आई तो कुमाऊं के लोककवि केशर सिंह डंग्सेरा बिष्ट द्वारा ‘पहाड़कि चिट्ठि’ में लिखी गई कविता “इजा मैंले नौणि निकाई निखाई”, बरबस याद आ जाती हैं जिसमें नटखट कन्हैया और उनकी मां जशौदा के साथ हो रहा वार्त्तालाप अति सुमधुर है और आज ‘घ्यू संग्यान’ के साथ सांस्कृतिक संवाद भी स्थापित कर रहा है.अपनी ‘नौणि’ (मक्खन) की चोरी छिपाने के लिए मां यशोदा को सफाई देते हुए कन्हैया कह रहे हैं –

“इजा मैंले नौणि निकाई निखाई,
निखाई इजा! मैंलै नौणि निकाई.
“मैंल समझौ यू घर लै आपण,
बड़ ध्वकै में आई.
एक जसै दरवाज एक जसी मोहरी,
एक जसै कुड़ छु बनाई.
एक जसी मटकी एक जसी रौड़ी
एक जसी नौणि चिताई.
इजा मैंले नौणि निकाई निखाई,
निखाई इजा! मैंलै नौणि निकाई.”

कन्हैया की इस सफाई पर जशौदा कन्हैया को डांटते हुए कहती है-
“आपण घर में चोरि करनी के?
बता रे कृष्ण कन्हाई
द्यप्तों कणि लै भोग लगानी
गोधन अमृत ढिनाई
हात पर तौ तेरि नौणि जेड़ी रै,
पिड़पिड दिछै सफाई
ओ नौणि चौरा! सांचि-सांचि
तहां दे बताई..”

 

कन्हैया का अपनी माँ जशौदा को दिया गया जवाब भी बहुत निराला और रोचक है-
“इजा मैंलै नौणि निकाई निखाई,
निखाई इजा! मैंलै नौणि निकाई.
कुछ किरमिल नौणिक ऊपर
द्यका मैंलै लिपटाई
कि इजा मैंलै किरमिल गाड़ि बे निकाई
तब नौणि म्यर हात पर लागी,
पकड़ि ल्यैगे य ताई
ठिक्क बखत पर पूजिबेर मैंलै
नौणि बचाई नि बचाई? इजा!”

पर वर्तमान संदर्भ में चिन्ता की बात यह है कि मक्खन निकालने,घी बनाने तथा दुग्ध उत्पादन आदि ग्रामों को समृद्धि प्रदान करने वाले कारोबारों का भी आज औद्योगीकरण हो चुका है इसलिए ‘घृत संक्रान्ति’ जैसे लोकपर्व पहाड़ों में,जहां घी दूध की नदियां बहती थी,वहां भी अपनी प्रासंगिकता खोते जा रहे हैं. खेतीबाड़ी तथा पशुपालन के प्रति राज्य सरकारों की उपेक्षापूर्ण नीतियों के परिणाम स्वरूप ग्रामों से शहरों की ओर होने वाले निरंतर पलायन के कारण और उपभोक्तावादी पश्चिमी संस्कृति के मिले जुले दुष्प्रभाव से उत्तराखंड सहित समूचे देश के किसानों की परंपरागत खुशहाली आज बदहाली की अवस्था से गुजर रही है. इसलिए ‘घी संक्रान्ति’ जैसे क्षेत्रीय त्योहार भी सिसकियां भरते हुए अपने भाग्यविधाता कर्णधारों से पूछ रहे हैं कि – “कहां से लाएं शुद्ध देशी घी का मंगल टीका? जिसे अपने देवता के माथे पर लगा सकें और अपने बच्चों के मस्तक पर मल सकें.”

आज ‘घृत संक्रान्ति’ के अवसर पर समस्त देशवासियों और खास तौर से उत्तराखण्ड वासियों को गंभीरता से विचार करना चाहिए कि कृषिमूलक हरित क्रान्ति से पलायन करके आधुनिक औद्योगिक क्रान्ति के लिए की गई दौड़ ने हमें इस योग्य तो बना दिया है कि हम पहाड़ों की देवभूमि में देशी और विलायती शराब की नदियां घर घर और गांव गांव में बहाने में समर्थ हो गए हैं पर ये देश का कैसा दुर्भाग्य है कि हमारे देश के नौनिहालों को शुद्घ घी की बात तो छोड़ ही दें गाय और भैंस का ताजा और शुद्ध दूध भी आज नसीब नहीं है. वैसे तो यह समस्या पूरे देश में व्याप्त है किंतु दूध और घी की नदियां बहाने वाले उत्तराखण्ड क्षेत्र में दुग्ध उत्पादन की समस्या बहुत शोचनीय बन गई है. आज थोड़े से भाग्यवान हैं जो गाय भैंस पालते हैं किंतु उन्हें भी मजबूरी में अपनी गुजर बसर के लिए वह दूध अपने बच्चों को न देकर बाजार में बेचना पड़ता है.

आए दिन अखबारों की सुर्खियों में छपे समाचार बताते हैं कि यूरिया और पशुओं की चर्बी से बने जहरीले दूध और मिलावटी घी का गोरख धंधा पूरे देश में चल रहा है किंतु देश की या राज्य की सरकारों के पास पशुधन के संवर्धन के लिए ऐसी कोई योजना नहीं है जिसके द्वारा ग्रामस्तर पर तथा नगरस्तर पर लोगों को शुद्ध घी, दही और दुग्ध पदार्थ मिल सकें और हमारे देश का बच्चा बच्चा गर्व से कह सके –

“मैय्या मैंने ही माखन खायो.”,
“इजा मैंले नौणि निकाई”.

समस्त देशवासियों और उत्तराखण्डसियों को घृत संक्रान्ति की शुभकामना.

(लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय के रामजस कॉलेज से एसोसिएट प्रोफेसर के पद से सेवानिवृत्त हैं. एवं विभिन्न पुरस्कार व सम्मानों से सम्मानित हैं. जिनमें 1994 में ‘संस्कृत शिक्षक पुरस्कार’, 1986 में ‘विद्या रत्न सम्मान’ और 1989 में उपराष्ट्रपति डा. शंकर दयाल शर्मा द्वारा ‘आचार्यरत्न देशभूषण सम्मान’ से अलंकृत. साथ ही विभिन्न सामाजिक संगठनों से जुड़े हुए हैं और देश के तमाम पत्र—पत्रिकाओं में दर्जनों लेख प्रकाशित।)

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