इगास पर्व: भैलो रे भैलो काखड़ी को रैलू, उज्यालू आलो अंधेरो भगलू
सुनीता भट्ट पैन्यूली
इगास पर्व पर उपरोक्त गढ़वाली लोकगीत गाते हुए, भैलों खेलते, गोल-घेरे में घूमते हुए स्त्री और पुरुष संभवतः अपने कठिन जीवन की पीड़ा सहकर भी इस प्रकार से आशान्वित हैं कि, अंधेरा वहीं काबिज़ रहेगा जहां उसे रहना है,ये प्रकाश ही है जिसे स्वयं अंधेरों के कोने-कोने तक पहुंचकर उसके काले रंध्रों में भी उजाला करना होगा अर्थात स्वयं को उर्ज्जवसित करने के लिये, स्वयं का अनथक प्रयास.. और यही जिंदगी जीने का मूलमंत्र भी तो है. यही जीवन का उदेश्य भी होना चाहिए कि चाहे बाहर जितना भी अंधेरा हो हमें मन के कोनों-कोनों को प्रकाशित करना है.
संपूर्ण भारत में मनायी जाने वाली दीपावली के ग्यारहवें दिन बाद हरिबोधनी एकादशी अर्थात कार्तिक मास शुक्ल पक्ष की एकादशी को उत्तराखंड में बग्वाल, इगास या बूढ़ी दिवाली मनाई जाती है. उत्तराखंड में दीपावली को पारंपरिक रुप से बग्वाल और एकादशी को इगास कहा...