सुनीता भट्ट पैन्यूली
इगास पर्व पर उपरोक्त गढ़वाली लोकगीत गाते हुए, भैलों खेलते, गोल-घेरे में घूमते हुए स्त्री और पुरुष संभवतः अपने कठिन जीवन की पीड़ा सहकर भी इस प्रकार से आशान्वित हैं कि, अंधेरा वहीं काबिज़ रहेगा जहां उसे रहना है,ये प्रकाश ही है जिसे स्वयं अंधेरों के कोने-कोने तक पहुंचकर उसके काले रंध्रों में भी उजाला करना होगा अर्थात स्वयं को उर्ज्जवसित करने के लिये, स्वयं का अनथक प्रयास.. और यही जिंदगी जीने का मूलमंत्र भी तो है. यही जीवन का उदेश्य भी होना चाहिए कि चाहे बाहर जितना भी अंधेरा हो हमें मन के कोनों-कोनों को प्रकाशित करना है.
संपूर्ण भारत में मनायी जाने वाली दीपावली के ग्यारहवें दिन बाद हरिबोधनी एकादशी अर्थात कार्तिक मास शुक्ल पक्ष की एकादशी को उत्तराखंड में बग्वाल, इगास या बूढ़ी दिवाली मनाई जाती है. उत्तराखंड में दीपावली को पारंपरिक रुप से बग्वाल और एकादशी को इगास कहा जाता है.
संपूर्ण भारत में मनायी जाने वाली दीपावली के ग्यारहवें दिन बाद हरिबोधनी एकादशी अर्थात कार्तिक मास शुक्ल पक्ष की एकादशी को उत्तराखंड में बग्वाल, इगास या बूढ़ी दिवाली मनाई जाती है. उत्तराखंड में दीपावली को पारंपरिक रुप से बग्वाल और एकादशी को इगास कहा जाता है. हरिबोधनी एकादशी के बारे में पुराणों में कहा गया है कि आषाढ़ शुक्ल पक्ष की एकादशी को शयन करने वाले भगवान विष्णु कार्तिक शुक्ल पक्ष की हरिबोधनी एकादशी को अपनी निंद्रा त्यागकर जाग जाते हैं. भगवान विष्णु के जागरण की यह तिथि ही इगास पर्व के नाम से मनायी जाती है.
बिसरा दी गयी संस्कृतियों को पुनर्जीवन मिल सकता है यदि उन्हें हम अपने आचार-व्यवहार,सोच और खान-पान में उतारें. यदि उत्तराखंड की संस्कृति और इतिहास की बात की जाये तो बीते काल के गर्भ में बहुत कुछ गड़ा हुआ है जिसे सुधी और मनीषियों ने खोदने की कोशिश भी की है लेकिन आम जनता तक उसका नहीं पहुंचना नैराश्य की बात है.
संभवतः कारण यह भी हो कि पिता समान पहाड़ जिसके वक्ष पर असंख्य लोक-गाथाओं और लोक-संस्कृतियों का जमावड़ा था उसको हमने अच्छी संतति की मानिंद कभी दुलारा ही नहीं,ना ही संरक्षित करने की कोशिश की. बस पैसे कमाने शहर की ओर भाग-पड़े. हमारी पीढ़ियों को तो पता ही नहीं होगा कि बग्वाल इगास क्या है? और गढ़वाल में क्यों मनाई जाति है? हम सभी सोशल मीडिया के द्वारा अभी कुछ सालों से “इगास पर्व” के बारे में जान रहे हैं.
मान्यता है कि भगवान श्री राम जी लंका पर विजय प्राप्त कर अयोध्या आये थे. इसी उपलक्ष्य में दीपावली मनाई जाती है जिसे उत्तराखंड की पारंपरिक भाषा में बग्वाल कहा जाता है. अपनी संपूर्ण संस्कृति और परंपराओं के साथ यह दीवाली उत्तराखंड में भी मनाई जाती है. किंतु रोशनीयों का इसी तरह का अनूठा और रोचक त्योहार उत्तराखंड में दीपावली के ग्यारहवें दिन मनाया जाता है जिसे बग्वाल इगास, बूढ़ी दीवाली या कणसी दिवाली भी कहते हैं.
त्योहार महत्त्वपूर्ण भुमिका निभाते हैं हमारे जीवन को तनाव से मुक्ति देने और आह्लादित करने में.
दीपावली का त्योहार पूरे भारत में बड़े हर्षोल्लास के साथ मनाया जाता है. इसके पीछे मान्यता है कि भगवान श्री राम जी लंका पर विजय प्राप्त कर अयोध्या आये थे. इसी उपलक्ष्य में दीपावली मनाई जाती है जिसे उत्तराखंड की पारंपरिक भाषा में बग्वाल कहा जाता है. अपनी संपूर्ण संस्कृति और परंपराओं के साथ यह दीवाली उत्तराखंड में भी मनाई जाती है. किंतु रोशनीयों का इसी तरह का अनूठा और रोचक त्योहार उत्तराखंड में दीपावली के ग्यारहवें दिन मनाया जाता है जिसे बग्वाल इगास, बूढ़ी दीवाली या कणसी दिवाली भी कहते हैं.
इगास पर्व को मनाने के पीछे बहुत सी कहानियां हैं.या यूं कहें कि गढ़वाल का इतिहास अटा पड़ा हुआ है यहां के गढ़, राजा, भड़, युद्ध, वीरों, वीरांगनाओं से, इन्हीं वीरगाथाओं से एक नाम उद्भूत होकर हमारी “इगास बग्वाल” को मनाने के उदेश्य पर प्रकाश डालता है.वह नाम है “माधो सिंह भंडारी”. माधो सिंह भंडारी गढ़वाल के टिहरी के महाराजा महिपत शाह की सेना के वीर भड़ थे.
करीब 400 साल पहले महाराजा महिपतशाह को वीर भड़ बर्थवाल बंधुओं की हत्या की जानकारी मिली,जिसकी सूचना उन्होंने माधो सिंह भंडारी को दी और तिब्बत पर आक्रमण करने का तुरंत आदेश दिया.वीर भड़ माधो सिंह ने टिहरी, उत्तरकाशी, जौनसार और श्रीनगर से योद्धाओं को बुलाकर सेना तैयार की और तिब्बत पर हमला बोल दिया. सेना ने द्वापा नरेश को हराकर दवापाघाट का युद्ध जीता.इतना ही नहीं तिब्बत सीमा पर मुनारें गाड़ दी जिसमें से कुछ मुनार आज भी मौजूद हैं.
माधोसिंह भंडारी का नाम गढ़वाल में उनके द्वारा किये गये त्याग,तपस्या,कर्तव्य से भी जुड़ा हुआ है. वीर माधोसिंह भंडारी ने मलेथा गांव की उपजाऊ भूमि की सिंचाई के लिए गांव के दांयी ओर चंद्रभागा नदी से पानी पहुंचाने का अडिग व अनथक प्रयास किया था. इसके लिए कूल निर्माण में बाधा बन रही पहाड़ी को खोदकर उन्होंने सुरंग का निर्माण किया जो आज भी सर्वश्रेष्ठ इंजीनियरिंग का उदाहरण है.
दूसरी मान्यता यह भी है कि प्रभु श्री राम जी जब 14 वर्ष बाद लंका फतेह करके वापिस दिवाली के दिन अयोध्या आये थे किंतु उत्तराखंड के पर्वतीय ग्रामीण क्षेत्र के लोगों को इसकी जानकारी ग्यारह दिन बाद मिली. जिस कारण उन्होंने ग्यारह दिन बाद दिवाली मनाई .
एक और मान्यताओं के अनुसार ऐसी ही एक और कथा है कि चंबा का रहने वाला एक व्यक्ति भैलो बनाने के लिए लकड़ी लेने जंगल गया था और ग्यारह दिन तक वह वापिस नहीं आया.उसके दुख में वहां के लोगों ने दीपावली नहीं मनाई .उसके वापस आने पर ही ग्रामीणों ने बग्वाल मनाई और भेल्लो खेला तभी से बग्वाल मनाने और भैल्लो खेलने की परंपरा गांवों में शुरू हुई.
इगास के दिन गढ़वाल में गौ पूजा का विशिष्ट महत्त्व है. भोर होते ही गायों के लिए भात या झंगोरे का पीण्ड बनता है.गाय और बैलों के सींग पर तेल लगाकर उन्हें फूलमाला पहनायी जाती है. हर घर में स्वाले और उड़द की पकौड़ीयां बनती हैं. जिस घर में दीवाली नहीं होती यानि कोई मृत्यु होती है वहां उस घर में पूरा गांव स्वाले,पकौड़े भेजता है.अर्थात इगास पर्व भाई-चारे और सौहार्द्र का प्रतीक भी है.
उत्तराखंड का इगास पर्व देखा जाये तो जीवन में उजास,और हर्ष का सांध्य गीत भी है . इगास के दिन सूरज के क्षितिज में डूबते ही सभी घरों में दीये जगमगा उठते हैं. गांव के खाली खेत या मैदान में ढोल,दमाऊ और रणसिंघा की हुंकार और रोशनीयों का मजमा लग जाता है. शहर के दिखावे की होड़, बनावटी चकाचौंध से दूर इगास पर्व ,पहाड़ी जीवन की सादगी और प्रकृति जनित संसाधनों से आलोकित पर्व भी है.
खाना खाने के बाद औजी के ढोल की थाप से ही सभी ग्रामीण समझ जाते हैं कि भैल्लो खेलने का आमंत्रण है और सभी ग्रामीण घर के आंगन,छज्जे में एकत्रित हो जाते हैं. दरअसल भैल्लो खेलना ही इगास पर्व का मुख्य आकर्षण है.
भैल्लो पेड़ के लगूले (बेल) या विशेष प्रकार की रस्सी से चीड़,भंजीरे,भीमल,तिल,हिस्सर की सूखी लकड़ियों (जो भी उपलब्ध है) खासकर चीड़ की पत्ती जिसमें कि लीसा होता है और जो सबसे ज्वलनशील भी है गट्ठर बांधकर भैल्लो जलाकर “भैल्लो बग्वाली”गाते हुए अपने दोनों ओर घुमाकर एक-दूसरे से लड़ाया जाता है. भैल्लो को अपने पर दो बार घुमाकर संभवतः हम उत्तराखण्ड वासियों का ध्येय पवित्र अग्नि के द्वारा अपने भीतर छिपी विसंगति और नकारात्मक्ता को दूर करना ही है.
वीर भड़ माधोसिंह भंडारी के अपनी सेना के साथ युद्धरत होने पर दीवाली के दिन नहीं पहुंचने पर ग्रामीणों ने दीपावली ग्यारह दिन बाद मनायी जब वीर माधो सिंह अपनी सेना के साथ विजयी होकर लौटे.अत: इगास पर्व उत्तराखण्ड का विजयोत्सव भी है.
ढोल-दमाऊ और रणसिंघा की धुन पर गाये जाने वाले लोकगीत”बारा ऐनि बग्वाल माधोसिंह सोला ऐनि सराध माधोसिंह, मांगल, देवी-देवताओं के जागर झुमैलो, थडया, चौंफला, झौड़, चांछड़ी जैसै लोकनृत्य अपनी परंपराओं को सहेजने और उनकी संवेदनात्मक अभिव्यक्ति की झलक इगास पर्व में देखी व अनुभव की जा सकती है.
उत्तराखंड के लोकगीत व लोकनृत्य जीवन की हर परिस्थितियों पर बने हुए हैं.ऐसे गीत व लोकनृत्य हमें सामाजिक समरसता,सामंजस्यता और सादगी में सौंदर्य के दर्शन का संदेश देते हैं. वीर भड़ माधोसिंह भंडारी के अपनी सेना के साथ युद्धरत होने पर दीवाली के दिन नहीं पहुंचने पर ग्रामीणों ने दीपावली ग्यारह दिन बाद मनायी जब वीर माधो सिंह अपनी सेना के साथ विजयी होकर लौटे.अत: इगास पर्व उत्तराखण्ड का विजयोत्सव भी है.
इगास पर्व लोक-नृत्य, लोक- गीत के माध्यम से हमारे पुरखों द्वारा सहेजी गयी परंपराओं, आस्थाओं, कर्तव्य, भावनाओं और आदर्शों की अपने जीवन में पुनरावृत्ति भी है ताकि हमेशा से अपनी माटी की गंध और संस्कृतियों की सुगंध उनके जीवन में रची-बसी रहे.
उत्तराखंड में भी कार्तिक पक्ष की कृष्णपक्ष में दीपावली मनाई जाती है जिसे बग्वाल कहा जाता है. दीपावली के ग्यारह दिन बाद कार्तिक पक्ष की एकादशी को बग्वाल मनाया जाता है. एकादशी को गढ़वाल में इगास कहा जाता है इसलिए इसे इगास बग्वाल कहा जाता है. इगास बग्वाल में संस्कृति की सुगंध को महसूस किया जा सकता है.
उत्तराखंड गढ़वाल से होने के नाते मैं यह आकांक्षा रखती हूं कि माध्यम चाहे जो भी हो, उत्तराखंड की लोक-संस्कृति और लोक परंपराओं हमारी अमुल्य धरोहर हैं. हम सभी का कर्तव्य है कि इनके वैभव का परिचय हम आज की नयी पीढ़ी से करायें ताकि अपनी माटी और संस्कृति की गंध उनके रूधिर में संचित होकर निरंतर जीवित रहे.
आपको इगास पर्व की हार्दिक शुभकामनाएं