Tag: आशिता डोभाल

हर दुल्हन के श्रृंगार में चार चांद लगाती पारपंरिक नथ

हर दुल्हन के श्रृंगार में चार चांद लगाती पारपंरिक नथ

साहित्‍य-संस्कृति
दुनियाभर में मशहूर है टिहरी की सोने से बनी नथ आशिता डोभाल संस्कृति सिर्फ खान-पान because और रहन-सहन में ही नहीं होती, बल्कि हमारे आभूषणों में भी रची-बसी  होती है. उत्तराखंड तो संस्कृति सम्पन्न प्रदेश है और हमारी सम्पन्नता हमारे परिधानों और गहनों में सदियों पुरानी है. उत्तराखंड देश दुनिया में अपने परम्पराओं के लिए विशेष रूप से जाना जाता है, जिस वजह से विदेशी भी हमारी संस्कृति के मुरीद हुए जा रहे हैं. संस्कृति अपनी परंपरागत वेशभूषा के लिए देश so और दुनिया भर में मशहूर है उत्तराखंड. आभूषण हर महिला के श्रृंगार का एक अभिन्न हिस्सा होता है, आभूषणों की चमक-दमक से उसके चेहरे में और निखार आता है और उसकी सुंदरता में चार चांद लग जाते हैं. सजने-संवरने और निखरने के लिए आभूषणों का होना अनिवार्य है. नथ आज मैं आपका उत्तराखंड के एक ऐसे आभूषण से परिचय करवाती हूं जिसे पहनने से सुंदरता में ...
प्राकृतिक आपदाओं से कराहते लोग…

प्राकृतिक आपदाओं से कराहते लोग…

संस्मरण
बंगाण क्षेत्र की आपदा का एक वर्ष… लोगों का दर्द और मेरे पैरों के छाले… आशिता डोभाल बंगाण क्षेत्र का नाम सुनते ही मानो दिल और दिमाग पल भर के लिए थम से जाते हैं  क्योंकि बचपन से लेकर आजतक न जाने कितनी कहानियां, दंत कथाएं वहां के सांस्कृतिक और धार्मिक परिवेश पर सुनी हैं, बस अगर कहीं कमी थी, तो वो ये कि वहां की सुन्दरता और सम्पन्नता को देखने का मौका नहीं मिल पा रहा था जो सौभाग्यवश इस भ्रमण के दौरान देखने को भी मिल गया था. विगत वर्ष दिनांक 17.08.19 व 18.08.19 को बारिश के कहर से पूरी बगांण वैली का तबाह होना या यूं कहें कि एक पूरी सभ्यता की रोजी-रोटी (स्वरोजगार) के साधनों का तबाह होना किसी भी सभ्यता के लिए अच्छे संकेत तो बिल्कूल भी नहीं थे, साधन विहीन हो चुकी बगांण वैली इस वेदना से गुजर रही थी, जिसकी चीख-पुकार सुनने वाला कोई नहीं था. आसमान का कहर उनका इतने कम समय में सब कुछ खत्म कर देगा,...
पहाड़ और परोठी…

पहाड़ और परोठी…

साहित्‍य-संस्कृति
आशिता डोभाल पहाड़ों की संस्कृति में बर्तनों का एक अलग स्थान रहा है और ये सिर्फ हमारी संस्कृति ही नहीं हमारी धार्मिक आस्था का केंद्र भी रहे है, जिसमें हमारी सम्पन्नता के गहरे राज छुपे होते हैं. धार्मिक आस्था इसलिए कहा कि हमारे घरों में मैंने बचपन से देखा कि दूध से भरे बर्तन या दही, मठ्ठा का बर्तन हो उसकी पूजा की जाती थी और खासकर घर में जब नागराजा देवता (कृष्ण भगवान) की पूजा होती है, तो घर में निर्मित धूप (केदारपाती, घी,मक्खन) का धूपाणा इन बर्तनों के पास विशेषकर ले जाकर पूजा की जाती थी, जिससे हमें कभी भी दूध दही की कमी न हो और न हुई. हमारे घर में 6, 4, 2 सेर की एक, एक परोठी हुआ करती थी और मठ्ठा बनाने के लिए एक बड़ा—सा जिसे स्थानीय बोली में परेडू कहा जाता है, होता था और मठ्ठा मथने की एक निश्चित जगह होती थी, उस जगह पर मथनी, रस्सी और दीवार पर मकान बनाते समय ही दो छेद बनाए जाते हैं,...
पहाड़ों में अंधकार को उजाले से रोशन करने वाला एकमात्र साधन-लम्पू

पहाड़ों में अंधकार को उजाले से रोशन करने वाला एकमात्र साधन-लम्पू

संस्मरण
आशिता डोभाल बात सदियों पुरानी हो या वर्तमान की हो पहाड़ों में जब भी बिजली जाती है तब हमारे पास एक ही साधन होता है लम्पू जो कई सालों से हमारे घर के अंधकार को दूर करने में हमारा उजाले का साथी होता था भले ही वर्तमान में पहाड़ों में कई गांव सुविधाओं से सुसज्जित हो गए है पर कई गांव आज भी सुविधाओं से वंचित है जहां आज भी रोशनी का एकमात्र साधन लम्पू ही है. साठ-सत्तर के दशक में समूचे पहाड़ में बिजली से तो क्या ही जगमगाई होगी पर लोगों ने अपने लिए जीवन जीने के संसाधनों को जुटाने के भरकस प्रयास किए होंगे. जीवन के अंधकार और शिक्षा के अंधकार को मिटाने के लिए पहाड़ में लोगों की अपनी अलग तरकीब रही है, पुराने समय में लोग रात के अंधेरे को दूर करने के लिए चीड़ के पेड़ के छिलके (पेड़ की जड़ की तरफ का भाग) का उपयोग करते थे. लोगों की रोजमर्रा की जीवन शैली में लकड़ी निकलना एक विशेष काम होता था. मिट...
वीरान होती छानियां

वीरान होती छानियां

उत्तराखंड हलचल
आशिता डोभाल डांडा छानी (गौशाला)- पहाड़ों में हर मौसम के अनुसार और खेती-बाड़ी के अनुसार लोगों ने छानियां बनाई हुई रहती थी जिससे उन्हें अपनी खेती—बाड़ी के काम और चारा—पत्ती लाने में किसी भी तरह की परेशानियों का सामना न करना पड़े, इससे उनका समय भी बचता था और समय पर उनका काम भी निपटता था. उनकी समय सीमा भी निर्धारित रहती थी कि किस समय और किस मौसम में वो कौन—सी जगह की छानी में उनको रहने जाना है, उस हिसाब से फसल बोना और अपनी जरूरत का सामान जुटाकर जाना होता था. मार्च माह के मध्य में मैं और मेरे साथ मेरे गांव के दो चार लोग हम बुरांश लेने अपने गांव की डांडा छानी गए बल्कि जाना तो उससे भी ऊपर था और गए भी. सच कहूं तो बुरांश लेने जाना तो एक बहाना था मुझे तो उन छानियों को देखना था, जो कभी पशुओं और इंसानों से गुलजार हुआ करती थी, आज वो बिल्कुल निर्जन जंगल भी कहूं तो अतिश्योक्ति नहीं होगी. छानियां ब...