वीरान होती छानियां

  • आशिता डोभाल

डांडा छानी (गौशाला)- पहाड़ों में हर मौसम के अनुसार और खेती-बाड़ी के अनुसार लोगों ने छानियां बनाई हुई रहती थी जिससे उन्हें अपनी खेती—बाड़ी के काम और चारा—पत्ती लाने में किसी भी तरह की परेशानियों का सामना न करना पड़े, इससे उनका समय भी बचता था और समय पर उनका काम भी निपटता था. उनकी समय सीमा भी निर्धारित रहती थी कि किस समय और किस मौसम में वो कौन—सी जगह की छानी में उनको रहने जाना है, उस हिसाब से फसल बोना और अपनी जरूरत का सामान जुटाकर जाना होता था.

मार्च माह के मध्य में मैं और मेरे साथ मेरे गांव के दो चार लोग हम बुरांश लेने अपने गांव की डांडा छानी गए बल्कि जाना तो उससे भी ऊपर था और गए भी. सच कहूं तो बुरांश लेने जाना तो एक बहाना था मुझे तो उन छानियों को देखना था, जो कभी पशुओं और इंसानों से गुलजार हुआ करती थी, आज वो बिल्कुल निर्जन जंगल भी कहूं तो अतिश्योक्ति नहीं होगी. छानियां बिल्कुल खंडहर बन चुकी हैं, मार्च में मैंने जो देखा तो देखते ही रह गई.

कई छानियों का तो नामोनिशान तक नहीं बचा हुआ पर जगह का पता होने से पता चल जाता है कि फलां परिवार की छानी इस जगह पर हुआ करती थी. एक समय वो भी था जब पूरे गांव के लोग सावन माह से कार्तिक माह तक इन्हीं छानियों में अपना डेरा डाले रहते थे यानी कि गांव में सावन माह में लगने वाले मेले के बाद जाना और दीवाली में वापस आना इनका हर साल का क्रम था.

भैंस की जगह देशी जर्सी गाय ने ले ली. लोगों का रुझान दुग्ध उत्पादन की तरफ तो बढ़ा है साथ ही इससे उनकी आय भी बढ़ी है, पर कहीं न कहीं हम लोग छानियों में रहने की संस्कृति से, अपनी मिट्टी से कोसों दूर चले गए हैं. अब न छानियां बची, न वो रौनक.

फसलों से लहलहाते खेत जिनमें मुख्यत दालें, मंडुवा, तिल और खुबानी, सेब, पुलम, आड़ू इत्यादि के पेड़ रहते थे वो बिल्कुल बंजर पड़े हैं. गांव के लोग अब इन छानियों में रहना पसंद नहीं करते क्योंकि जमाने के हिसाब से ये अब उनकी शान के खिलाफ है. गांव के दो चार परिवार ही अब इन छानियों में जाते हैं. हर साल थोड़ी बहुत फसलें बोते हैं, जिनको जंगली जानवर चट कर जाते हैं. थोड़ी बहुत जो बचती हैं उसको समेटकर वो अपना मन संतुष्ट कर लेते हैं. लोगों का मानना है कि सिर्फ भैंस वाले ही उन छानियों में रहने जा सकते है और भैंस शायद ही किसी परिवार के पास होगी. भैंस की जगह देशी जर्सी गाय ने ले ली. लोगों का रुझान दुग्ध उत्पादन की तरफ तो बढ़ा है साथ ही इससे उनकी आय भी बढ़ी है, पर कहीं न कहीं हम लोग छानियों में रहने की संस्कृति से, अपनी मिट्टी से कोसों दूर चले गए हैं. अब न छानियां बची, न वो रौनक.

आज स्थिति ये हो गई है कि देशी जर्सी गाय से आय तो बढ़ी पर कहीं न कहीं डांडा छानी की वो संस्कृति विलुप्त हो गई, जंहा बच्चे—बूढ़े शाम को काम-धाम खत्म करके एक दूसरे की छानियों में बेझिझक होकर जाया करते थे. रात को एक जगह खुले मैदान जैसी जगह पर लोग गाने गाते थे, एक दूसरे की छानियों से बच्चे दूध, दही, मक्खन चोरी छुपे खा जाया करते थे.

मुझे आज भी याद है, जब कभी भी हमारे पशु इन छानियों में रहने जाते थे तो हम बच्चे भी स्कूल से आने के बाद सब एक झुंड बनाकर जाते थे और अगली सुबह स्कूल के लिए वापस आते थे. रोज का यही क्रम रहता था.

एक समय वो भी था जब इन छानियों में दूध, दही, घी, मक्खन, मठ्ठा किसी भी चीज की कोई कमी नहीं रहती थी. हालांकि पानी की थोड़ी बहुत कमी होती थी वो भी बरसात होने से पूरी हो जाती थी.

आज स्थिति ये हो गई है कि देशी जर्सी गाय से आय तो बढ़ी पर कहीं न कहीं डांडा छानी की वो संस्कृति विलुप्त हो गई, जंहा बच्चे—बूढ़े शाम को काम-धाम खत्म करके एक दूसरे की छानियों में बेझिझक होकर जाया करते थे. रात को एक जगह खुले मैदान जैसी जगह पर लोग गाने गाते थे, एक दूसरे की छानियों से बच्चे दूध, दही, मक्खन चोरी छुपे खा जाया करते थे. जब पशुओं को पानी पिलाने दूर तक ले जाना पड़ता था तो एक दूसरे के पशु को लेकर भी जाते थे आपसी मेल—मिलाप से रहने की भावनाएं थी, जो एक दूसरे के काम आसानी से कर लेते थे और ये सिलसिला तब लगातार सावन से कार्तिक माह तक चलता था.

अब समझने वाली बात ये है कि वो लोग हमसे ज्यादा सम्पन्न थे या हम सम्पन्न हैं? क्या उनके पास किसी चीज की कमी थी या नगदी फसलों और अच्छे नस्ल के पशुओं ने हमें ये चीजें छोड़ने को मजबूर कर दिया है? या हम कम मेहनतकश हैं?

(लेखिका सामाजिक कार्यकर्ता हैं.)

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