एक चित्रकार के संघर्ष की कहानी
- शशि मोहन रवांल्टा
सीमांत जनपद उत्तरकाशी के अंतिम छोर पर बसे मौंडा गांव में जन्में और गांव की ही पाठशाला में प्रारंभिक शिक्षा प्राप्त करने के बाद महानगरों का रूख किया. प्रारंभिक शिक्षा ग्रहण करने के दौरान ही मेरा झुकाव कला की ओर हो गया था. दैनिक जीवन की जरूरी वस्तुओं के लिए गांव से कई मील पैदल चलने के बाद हम स्थानीय बाजार में खरीददारी करने जाते थे. मैं जब अपनी किताबें लेने के लिए जाता तो अपनी कक्षा की किताबों के साथ—साथ कला की एक कॉपी के बजाए दो कॉपियां खरीद लाता था.
घर पहुंचने पर जब मां—बाप स्कूल से मिली किताबों की सूची से मिलान करते तो उन्हें कला की एक कॉपी बजाय दो कॉपियां मिलती थीं. इसके लिए माताजी से हमेशा सुनना पड़ता था कि बिना सोचे—समझे दो कॉपियां उठा लाते हो. जबकि सारे बच्चे तो एक ही लाते हैं. चूंकि मैं बचपन से कुछ न कुछ चित्रकारी करता रहता था, जिस वजह से मेरी एक कॉपी जल्दी भर जाती थी और मुझे दूसरी कॉपी की जरूरत पड़ती थी.
ज्योतिष
मां—बाप की डांट के साथ दूसरी कॉपी मेरे लिए एक नई ऊर्जा की तरह होती थी. चित्र कला की कॉपी में कुछ न कुछ चित्र उकेरना मेरे शौक में शामिल रहा. गांव के सीमित संसाधनों में मेरा जीवन बिता. मेरी प्रारंभिक शिक्षा भी गांव की ही पाठशाला में सम्पन्न हुई. आठवीं पास करने के बाद मैं राजकीय इंटर कॉलेज बड़कोट में पढ़ने चला आया.
पढ़ाई के साथ—साथ मेरा कला प्रेम भी और प्रगाढ़ होता चला गया. मैं कॉलेज में दोस्तों के साथ खेल—कूद और मस्ती के साथ—साथ चित्रकारी भी करता रहता. कई बार दोस्तों को नए—नए चित्र बनाकर दिखाता, जिसे वे सभी खूब पसंद करते थे. इसके साथ ही मेरी चित्रकला की समझ धीरे—धीरे विकसित होने लगी. अब मैं अपने समाज और संस्कृति को चित्रों में उकरने की कोशिश करता और कभी गांव की पृष्ठभूमि पर, तो कभी दोस्तों के चित्र बनाया करता था.ज्योतिष
इंटरमीडिए पास करने के पश्चात मैंने देहरादून जैसे महानगर कर रूख किया, जहां मैंने अपनी आगे की पढ़ाई की. स्नातक करने के पश्चात मैं दिल्ली चला आया. दिल्ली में शुरू—शुरू में
मुझे काफी मुश्किलों का सामना करना पड़ा. क्योंकि दिल्ली मेरे जैसे गांव से आए हुए लड़के लिए एकदम नई जगह थी. चूंकि यहां मेरी जान—पहचान का कोई भी नहीं था. दिल्ली में काफी संघर्ष के बाद मैंने ललित कला अकादमी में स्कॉलरशिप के लिए टेस्ट दिया और उसमें मेरा सलेक्शन हो गया. उसके बाद मुझे स्कॉलरशिप मिलने लगी. अब पढ़ाई के साथ—साथ थोड़ा बहुत खर्चे का जुगाड़ भर हो गया था.ज्योतिष
पहाड़ की शांत व और हरी—भरी
वादियों में जन्में जगमोहन बंगाणी का जीवन इन बर्फीली वादियों, नदी, घाटियों के सुरम्य मखमली बुग्यालों में बीता. बचपन से उनके प्रकृति प्रेम ने उन्हें कुछ हटकर करने की प्रेरणा दी. वे इन वादियों से रंगों को चुराकर उन्हें अपने अंदर पल रहे गांव और समाज के प्रेम को चित्रों के माध्यम से मूर्त रूप देने में जुट गए.ज्योतिष
गांव का सामाजिक परिवेश, रहन—सहन, वेश—भूषा और पहाड़ के पहाड़ जैसा जीवन उनके चित्रों के माध्यम से दुनिया ने जाना और समझा. उन्होंने यमुना घाटी की संस्कृति को अपने
रंगों के माध्यम से जीवंत बनाया. आज जगमोहन बंगाणी देश ही नहीं दुनिया में चित्रकारी की दुनिया में जाना पहचाना नाम है. वह चित्रकारी की दुनिया में इकलौते ऐसे आर्टिस्ट हैं जो संस्कृति के मंत्रों की पेंटिंग बनाते हैं.ज्योतिष
जगमोहन भाई बताते हैं कि उन्होंने दिल्ली कॉलेज आफ आर्ट में एडमिशन के लिए 4 से 6 बार प्रयास किया लेकिन हर बार असफल रहे. फिर उन्होंने तय किया कि एक न एक
दिन वह इस कॉलेज में जरूर पढ़ाएंगे और उन्होंने अमुक कॉलेज में 6 साल बच्चों को चित्रकारी के गुर सिखाए. जगमोहन भाई आज एक सफल आर्टिस्ट हैं और इसके पीछे उनकी मेहनत और लगन है जिसकी बदौलत आज वे देश ही दुनिया में खूब नाम कमा रहे हैं.(लेखक पांचजन्य एवं आर्गेनाइजर पत्रिका में आर्ट डायरेक्टर हैं)